प्रचण्ड वाक्शक्ति का चमत्कारी उपयोग

November 1972

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वाणी से उपासना करना पर्याप्त नहीं, उसे ‘वाक्’ बनाकर ही इस योग्य बनाया जा सकता है कि अध्यात्म पथ पर बढ़ते हुए साधक को कुछ कहने लायक सफलता मिल सके। आयुर्वेद में सोना, चाँदी, ताँबा, राँगा, अभ्रक, पारद आदि की भस्म बनाकर उनके सेवन का विधान है। विषों का भी बड़ा लाभ बताया गया है पर वह सम्भव तभी होता है जब उन विषों को विधान पूर्वक शुद्ध किया जाय। वाणी एक मूल पदार्थ है। शोधित होने पर वह अमृत बन जाती है और विकृत होने पर विष का काम करती है। शोधित वाणी को ही ‘वाक्’ कहा गया है।

यम नियमों द्वारा अपने गुण, कर्म, स्वभाव को परिष्कृत करना साधना मार्ग का प्रथम प्रयास है। मात्र वाणी का संयम करने से भी उसे वाक् रूप में परिणत नहीं किया जा सकता। मौन, सत्य, मधुर वचन, सप्रयोजन, सन्तुलित एवं स्वल्प सम्भाषण, जिह्वा साधना के आवश्यक बाह्योपचार हैं। अन्तः उपचार अन्तःकरण में उत्कृष्टता और क्रिया-कलाप में आदर्शवादिता का समन्वय करना ही है। प्याज, मूली, शराब, हींग, आदि खाने पर मुख से वैसी ही गन्ध आती है। अन्तःकरण में असन्तुलन भरा हो तो जिह्वा की रोक-बाँध में चूक होती ही रहेगी। वस्तुस्थिति उभर कर जिह्वा के माध्यम से प्रकट होती ही रहेगी। अस्तु वाणी साधना को मात्र शब्द साधना नहीं समझना चाहिए वरन् अन्तःकरण की शुद्धि से उसको ‘अन्योन्याश्रय’ मानना चाहिए।

मन्त्र शक्ति असोम है। उसकी सामर्थ्य का वारापार नहीं। लोहे से बने, विद्युत संचालित यन्त्रों का करतब हम प्रत्यक्ष देखते हैं। पर वह होता तभी है जब वे यन्त्र सही लोहे के- सही पद्धति से निर्मित हों और उनमें सही शक्ति सञ्चार की व्यवस्था हो। बच्चों के खिलौने के रूप में रेल, मोटर, हवाई जहाज आदि बने होते हैं पर उनकी बाहरी शक्ल भर बनी होती है। निर्माण पद्धति का प्रयोग जैसा चाहिए वैसा न होने से वे खिलौने मात्र रह जाते हैं। वह काम नहीं कर सकते जो असली यन्त्र करते हैं। यन्त्र की तरह ही मन्त्र भी हैं। शब्द शृंखला को मन्त्र नहीं समझना चाहिए। वह समर्थ और सर्वांगपूर्ण तब होता है जब साधक का व्यक्तित्व अध्यात्म प्रक्रिया पद्धति को अपना लेता है। तभी वाणी का प्रत्यावर्तन ‘वाक्’ रूप में होता है और तभी उसके द्वारा उच्चारित मन्त्र सफल सार्थक होते हैं।

ऐसी वाक् शक्ति की शास्त्रों में पग-पग पर महिमा गाई गई है। कहा गया है -

बागक्षरं प्रथमजाऋतस्य वेदानाँ माताऽमृतस्य नाभिः।

-तै.ब्रा. 2।6।6।5

ऋतु का प्रथम सृजन अविनाशी ‘वाक्’ है। यही वेदों की माता है। यही अमृत की नाभि है।

क्ल यद्वाग्वदन्त्य विचेतनानि

राष्ट्री देवानाँ निषसाद मन्द्रा।

चतस्रव्र लर्ज्ज दुदुरे पयाँसि

क्व ल्विदस्याः परमं जगाम॥

-सरस्वती रहस्योपनिषद्

वाक् विश्व व्यापिनी है, समस्त प्राणियों में व्याप्त है। अल्प चेतनों में भी वह विद्यमान है। वह देवताओं का भी संचालन करती है। न जाने हम कब उसे जान सकेंगे।

स वै वाचमेव प्रथमामत्यवहत्- सा यदा मृत्यु मत्युमुच्यत सोऽग्निरभवत्- सोऽयमग्निः परेण मृत्युमतिक्रान्तो दीप्यते।

-वृ.उ. 1. 3. 12।

‘वाक्’ देवता को प्राण ने मृत्यु से पार किया। यह वाक् अग्नि बनकर अमर हो गई और वह असीम शक्तियों से ओत-प्रोत होकर ज्योतिर्मय हो गई ।

मन्त्र की शक्ति का विकास जब से होता है। जितनी अधिक घिसाई पिसाई की जाती है, उतनी ही पदार्थ की शक्ति उभरती है। ढेले को तोड़ते उसे अणु की स्थिति में ले जाया जाय तो वह अणु-ढेले की तुलना में अत्यधिक सामर्थ्यवान होगा। घोटने और पीसने की प्रक्रिया बहुत समय चलते रहने पर ही आयुर्वेदिक दवायें गुणकारी होती हैं। बार-बार घिसने से गर्मी पैदा होती है। बार-बार रगड़ने से चमक उत्पन्न होती है। इस तथ्य को हर कोई जानता है। मन्त्र की शक्ति उसके क्रम बद्ध रूप से बहुत समय तक जप करने से उभरती है। अनुष्ठान एवं पुरश्चरण विज्ञान का यही रहस्य है। इसी लिए ‘जप’ की महिमा प्रतिपादित की जाती है।

यज्ञानाँ जप यज्ञोस्मि स्वावरणाँ हिमालयः॥

गीता. 10।25

यज्ञ में जप यज्ञ मैं हूँ और पर्वतों में हिमालय हूँ।

शक्तिपातानुसारेण शिष्योऽनुग्रहमर्हति।

यत्र शक्तिर्न पतति सिद्धिर्न जायते॥

“शक्तिपात’ न होने से सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती। शक्तिपात के अनुसार ही तो शिष्य अनुग्रहित होता है।”

मननार्त्सव भावानाँ त्राणात्संसार सागरात्।

मन्त्ररूपा हि तच्छक्तिर्म ननत्राण रूपिणी॥

-प्रपञ्च सार तन्त्र

मन, मनन और भावनायें तथा समस्त जगत- का त्राण करने वाली शक्ति का नाम मन्त्र है। वह मूल में एक होते हुए भी प्रयोग में अनेक हो जाती है।

मनन त्राण धर्माणो मन्त्राः

-महार्थ मंजरी

मनन और त्राण की शक्ति से सम्पन्न शक्ति का नाम मन्त्र है।

देवस्य मंत्र रूपस्य मंत्र व्याप्तिम जानताम्।

कृताचंनादिक सर्वं व्यर्थ भवति शाम्भवि॥

देव मन्त्र स्वरूप भी होते हैं मन्त्रों का तत्व समझने से ही साधना सफल होती है।

मननात् प्राणनाञ्चैव मद्रू पस्याववोधनात् मन्त्र मित्युच्यते ब्रह्मन् यद्धिष्ठान तोपि वा।

-योग शिखोपनिषद- 2, 7

मनन किये जाने के कारण, प्राणों का उत्थान करने के कारण, मेरे रूप का ज्ञान उत्पन्न करने के कारण मेरा अनुष्ठान किये जाने के कारण मन्त्र मन्त्र बनते हैं।

जकारो जन्म विच्छेदः पकारः पाप नाशकः।

तस्याज्जप इति प्रोक्तो जन्म पाप विनाशकः॥

-अग्नि पुराण

‘ज’ अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा, ‘प’ अर्थात् पापों का नाश। इन दोनों प्रयोजनों को पूरा करने वाली निष्पाप और जीवन मुक्त बनाने वाली साधना को ‘जप’ कहते हैं।

जप के लिये प्रयुक्त की जाने वाली वाणी का स्तर ऊँचा होना चाहिए। जिह्वा से होने वाले शब्दोच्चारण को बैखरी वाणी कहते हैं। यह केवल जानकारी के आदान-प्रदान से प्रयुक्त होती है। भावों के प्रत्यावर्तन में मध्यमा वाणी काम आती है। इसे भाव सम्पन्न व्यक्ति ही बोलते हैं। जीभ और कान के माध्यम से नहीं वरन्- हृदय से हृदय तक प्रवाह चलता है। भावनाशील व्यक्ति ही दूसरों की भावनायें उभार सकता है। यह बैखरी और मध्यमा वाणी मनुष्यों के बीच विचारों एवं भावों के बीच आदान-प्रदान का काम करती है।

इससे आगे दो और वाणियाँ हैं जिन्हें परा और पश्यन्ति कहते हैं। परा पिण्ड में और पश्यन्ति ब्रह्माण्ड क्षेत्र में काम करती है। आत्म निर्माण का-अपने भीतर दबी हुई शक्तियों को उभारने का काम ‘परा’ करती है। ईश्वर से- देव शक्तियों से- समस्त विश्व से- लोक-लोकान्तरों से सम्बन्ध, सम्पर्क बनाने में पश्यन्ति का प्रयोग किया जाता है। अस्तु इन परा और पश्यन्ति वाणियों को दिव्य वाणी एवं देव वाणी कहा गया है।

ऐं चत्वारि वाक् परिमिता पदानि

तानि विदुर्ब्राह्मणा यं मनीषिणः।

गुहा त्रीणि निहिता नेंगयन्ति

तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति॥23॥

स उत त्वः पश्यन्न ददर्श वाचमुत त्वः शृण्वन्न शृणोत्येनाम्। उतो त्वस्मै तन्वाँ विसस्र जायेव पत्य उशती सुवासाः ॥32॥

-सरस्वती रहस्योपनिषद्

वाणी के चार चारण हैं - (1) परा (2) पश्यन्ती (3) मध्यमा (4) वैखरी। इनमें से प्रथम तीन अन्तःकरण रूपी गुफा में छिपी रहती हैं। वैखरी ही बोलने में प्रयोग की जाती है ॥23॥

वाणी की रहस्यमयी शक्ति को कुछ लोग देखते हुए भी नहीं देखते, सुनते हुए भी नहीं सुनते, वे लोग बड़े भाग्यवान हैं जिनके सामने वाणी के नग्न स्वरूप का उद्घाटन होता है॥32॥

चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदु र्ब्राह्मण ये मनीषिणः।

गुहा त्रीणि निहिता नेगयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति।

ऋक् 1। 22। 164। 40

यह वाणी चरण वाली होती है। उसे विद्वान ब्रह्मवेत्ता ही जानते हैं। इन वाणियों में से तीन तो गुफा में ही छिपी बैठी हैं। वे अपने स्थानों से नीचे नहीं हिलतीं। चौथी वैखरी को ही मनुष्य बोलते हैं।

परायामंकुरी भूय पश्यन्त्याँ द्विदलीकृता॥18॥

मध्यमायाँ मुकुलिता वैखर्या विकसीकृता।

पूर्वं यथोदिता या वाग्विलोमेनास्तगा भवेत्॥19॥

-योग कुण्डल्युपनिषद् 3।18-19

वाणी का उद्भव परा से होता है। पयन्ती में विकसित होकर उसकी दो शाखाएं फूटती हैं । मध्यमा में वह पुष्पों से लद जाती है और वैखरी में वह फलित होती है। जिस क्रम से उसका विकास होता है उसके उलटे क्रम से वह लय भी हो जाती है।

विधानात्मक कर्मकाण्ड की उपयोगिता भी है और महत्ता भी। पर उसे समग्र सर्वांगपूर्ण नहीं मानना चाहिए। उसके साथ जब भावनाओं का-वृत्तियों का-समन्वय होता है तभी उस कर्मकाण्ड से शक्ति उत्पन्न होती है।

बहिर्मुखस्य मन्त्रस्य वृत्तयो याः प्रकीर्तिताः।

ता एवान्तर्मुखस्यास्य शक्तयः परिकीर्त्तिताः॥

मन्त्र जब तक बहिर्मुख कर्मकाण्ड पूरक है तब तक उसे ‘वृत्ति’ कहा जाता है। पर जब वह अन्तर्मुख हो जाता है तो उसे शक्ति कहते हैं।

‘साम’ उसी प्रकार की भाव विभोर स्वर लहरी को कहते हैं। उत्कृष्ट व्यक्तित्व और उच्च भावनाओं के समन्वय के साथ किया गया मंत्रोच्चार स्वर है। वेद पाठ में शब्दों के उतार-चढ़ाव को भी ‘स्वर’ माना गया है पर वह तो भावाभिव्यक्ति की गायन कला मात्र है। वे भाव-जो हृदयतंत्री को झंकृत करते हैं- अन्तःकरण से ही उद्भूत होते हैं। अस्तु भाव संस्थान को ही साम और ‘वाक्’ द्वारा उच्चारित मन्त्र को ही आत्म विज्ञान में स्वर माना गया है। इसीलिये मन्त्र की सफलता स्वर पर निर्भर बताई गई है।

वेद मात्र ग्रन्थ ही नहीं हैं। ऋचायें मात्र शब्द शृंखलायें नहीं समझी जानी चाहिए। स्वर आरोह अवरोह तक सीमित नहीं है। शब्द ब्रह्म पठन-पाठन की सीमा में अवरुद्ध नहीं है। वेद ज्ञान का मूल आधार अन्तःकरण है। आन्तरिक परिष्कार-अन्तःकरण में आत्म साक्षात्कार की विधि व्यवस्था ही वास्तविक वेद ज्ञान है। उस ज्ञान को शब्द शृंखला में बाँधने का-पुस्तकाकार निर्माण करने का यही प्रयोजन है। इस तथ्य का स्थान-स्थान पर उद्घाटन भी हुआ है।

वाग्दोहं यो वाचो दोहोऽन्नवानन्नादो भवति य ऐतान्येवं विद्वानुद्गीथाक्षराण्युपास्त उद्गीथ इति।

-छान्दोग्य 1। 5

वाणी ही ऋचा है। प्राण ही साम है। ओंकार ही उद्गीथ है। ऋचा वाणी और साम प्राण की जोड़ी प्रख्यात है।

स्वरन्ति घोषं विततं ऋतायवः।

- ऋ. 5।5।4।12

इस विश्व ब्रह्माण्ड में सर्वत्र संव्याप्त दिव्य घोष को ऋतु की आकाँक्षा रखने वाले व्यक्ति स्वर युक्त करते रहते हैं।

व्यापिनीर्व्योम रूपाः स्युरन्नताः स्वर शक्तयः।

-गौतमीय तन्त्र 9-26

आकाश की तरह सर्वत्र संव्याप्त स्वर की शक्तियाँ असीम- अनन्त- हैं।

‘सा च अमश्चेति तत्साम्नः सामत्वम्’

-बृहदारण्यक. 1।3।22

ऋक् के साथ स्वर का सम्मिश्रण होने से ही सामवेद की ‘साम विशेषता’ है।

का साम्नो गति रिति स्वर इति होवाच।

-छान्दोग्य 1।8।4

साम क्या है ? इस प्रश्न का उत्तर है स्वर की गति।

तस्य हैतस्य साम्ना यः स्वं वेद। भवति हास्य स्वं तस्य वै स्वर एव स्वम्।

-वृहदारण्यक 1।3।25

साम का रूप स्वर है। जो उस स्वर साम को जानता है वह उसे प्राप्त भी कर लेता है।

स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उक्थिनः।

-ऋ. 8।332

भगवान्, अन्तःकरण में से बाहर निकलने के लिए भक्ति भरे स्वर के रूप में प्रस्फुटित होते हैं।

स्वरेण सन्धयेद् योगम् ।

-ब्रह्मबिन्दूपनिषद् 7

योग की साधना स्वर के माध्यम से करनी चाहिए।

स्वरन्ति त्वा सुते नरो वसो निरेक उक्थिनः।

-ऋग्. 8।33।2

उत्कर्ष के लिए प्रयत्नशील मनुष्य-भावना पूर्वक स्वर साधना करते हैं ।

स्वरेण सल्लयेद् योगी।

-त्रिपुरतापिन्युपनिषद् 5।7

स्वरेण सन्धयेद् योगम्

-ब्रह्मबिन्दूपनिषद् 7

अर्थात्- स्वर के माध्यम से योग साधना करनी चाहिए।

स्वरन्ति घोषं विततं ऋतायवः

-ऋग्. 5।54।12

इस ब्रह्माण्ड में सर्वत्र संव्याप्त ब्रह्मघोष की योगवेत्ता स्वर के रूप में परिणत करते हैं।

वाक् शक्ति को ही अग्नि भी कहा गया है। यह अग्नि सर्वत्र तेजस्विता, ऊर्जा, प्रखरता एवं आभा उत्पन्न करती है। इसलिए वाक् अग्नि भी है-

त्वाँ पूर्व ऋषयो गीर्भिरायन्

त्वा मध्वरेषु पुरुहूत विश्वे।

-ऋग्वेद 10।98।9

पूर्व काल में ऋषि वाणी द्वारा अग्नि को प्राप्त करते रहे हैं।

वैखरी, मध्यमा, परा और पश्यंति वाणियों के प्रभाव के अनुरूप उनके नाम वायु, सूर्य, दिग्पाल, चन्द्र नाम भी दिया गया है-

अग्निर्वाग् भूत्वा मुखं प्राविशद्वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशत् आदित्यश्चक्षुर्भूत्वाऽक्षिणी प्राविशद्दिशः श्रोत्रं भूत्वा कर्णौ प्राविशन्........ चन्द्रमा मनो भूत्वा हृदयं प्राविशत् ।

-ऐतरेय ब्राह्मण 2।4।2

अग्नि ने वाक् बनकर मुख में प्रवेश किया। नाक में होकर वायु देवता-प्रविष्ट हुए। सूर्य ने नेत्रों में निवास किया। दिग्पाल कानों में प्रवेश कर गये। चन्द्रमा मन बनकर हृदय में समाया।

यदि हम देव, वेद मन्त्र, वाक्, जप, स्वर के तात्विक स्वरूप को समझ सके तो निस्सन्देह मन्त्र शक्ति के अद्भुत चमत्कार मूर्तिमान होकर सामने खड़े हो सकते हैं ।


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