देव-सत्ता और असुर-सत्ता का अस्तित्व

November 1972

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इस विश्व में देव तत्व और असुर तत्व दोनों का अस्तित्व है। देवत्व का पोषण अभिवर्धन, और सम्मान किया जाना चाहिए साथ ही असुरता की दुरभि सन्धियों तथा आक्रमणों से अपना बचाव भी करना चाहिए।

सज्जनों की सबसे बड़ी विशेषता यह होती है कि वे अपने आदर्श और व्यवहार पर स्थिर रहते हैं। सज्जनता की रीति-नीति बदलते नहीं। परस्पर टकराते भी नहीं। कोई उनसे टकराये तो टूटते भी नहीं। अपनी दिव्य सत्ता को अक्षुण्ण रखते हैं और किसी अनात्म तत्व के सामने आत्म समर्पण नहीं करते। अपना स्वाभिमान और स्वावलम्बन हर भली-बुरी स्थिति में अक्षुण्ण बनाये रहते हैं।

देव तत्वों की तरह-सज्जनों की तरह परमाणु की मूल सत्ता होती है। यह अपनी शाश्वत और सनातन विशेषता को नष्ट नहीं होने देती।

यह परमाणु सृजन के काम में ही लगे रहते हैं। वे इकट्ठे होते हैं, जुड़ते हैं मिल-जुलकर रहते हैं। उनकी यह संगठन और सृजन की भावना ही विभिन्न पदार्थों का निर्माण करती है। नींव के पत्थरों की तरह, अदृश्य और अविदित रहकर वे सृजन के कार्य में अथक रूप में से संलग्न हैं। इस सुन्दर विश्व में जो विशालता दीख पड़ती है वह इन छोटे परमाणुओं के पारमार्थिक क्रिया-कलाप का परिणाम ही है। इन्हें इस धरती के- सृजन कर्ता, पोषक और परिवर्तनकारी- ब्रह्मा, विष्णु, महेश कहा जाये तो कुछ अत्युक्ति न होगी।

छोटे परमाणु एकाकी नहीं है। उनके भीतर और भी छोटा परिवार है। इसमें भले और बुरे दोनों तत्वों का निर्वाह होता है।

इलेक्ट्रोन एवं प्रोटोन के मूल कणों को विभक्त नहीं किया जा सकता। उनकी परस्पर टक्कर या सम्मिश्रण का परिणाम इतना भर हो सकता है कि वे परस्पर मिलकर अन्तः क्रिया, मिश्रित क्रिया द्वारा नवीन कणों या नवीन नाभिकों में परिणत हो जायं।

परमाणु विद्या के अन्वेषणों के अनुसार अब तक मूल कण लगभग 20 की संख्या में खोजे जा चुके हैं। फोटोन, इलेक्ट्रोन, प्रोटान, न्यूट्रॉन, पॉजीट्रान, न्यूट्रिनों, मेसान, न्यू मेसान, पाई मेसारन, के. मेसान, हाइपरान, ड्यूट्रान, जैसे कणों से ही यह सारा विश्व विनिर्मित हुआ है। इन्हें विश्व भवन की ईंटें ही कहना चाहिए।

इसी दैवी अणु शक्ति में एक प्रतिरोधी असुर तत्व भी मौजूद है। समय-समय पर यही रंग बदलता है, टूटता-फूटता है और विरोध विग्रह उत्पन्न करता है। कुचक्रों का यही शिकार होता है और अन्ततः विनाश जैसी दुर्गति भी इसी की होती है। इस संसार में देवत्व नहीं असुरत्व भी मौजूद है सम्भवतः यही परिचय देने के लिए यह प्रतिक्षण विद्यमान हो।

परमाणु के प्रत्येक मूल कण के साथ विपरीत प्रकृति का एक ‘प्रति कण’ भी रहता है। जैसे इलेक्ट्रान का प्रति कण पॉजीट्रान, प्रोटान का एन्टी प्रोटान, न्यूट्रॉन का एन्टी न्यूट्रॉन, न्यूट्रिनों का एन्टी न्यूट्रिनों है। मेसानों में भी यह विरोधी प्रति कण रहते हैं।

सभी प्रतिकण अल्प जीवी होते हैं। यह प्रतिकण जब अपने समान सामान्य कण से टकराते हैं तो दोनों एक दूसरे से भिड़ जाते हैं और भयंकर विस्फोट उत्पन्न होता है। उसी से विकरण उत्पन्न होता है और भयानक ऊर्जा फैलती है।

यह विरोधी प्रकृति के प्रति कण कहाँ से आते हैं? क्यों अवरोध उत्पन्न करते हैं ? कुछ समझ में नहीं आता। वैज्ञानिकों का अनुमान है कि इस ब्रह्माण्ड में शायद कोई अन्य विश्व ऐसा है जिसे सर्वथा विपरीत प्रति विश्व कहा जा सके। उसकी संरचना इन विपरीत प्रकृति के प्रतिकणों से ही हुई होगी। वहाँ सब कुछ यहाँ से उलटा ही होता होगा। इस लोक में सारा पदार्थ- एन्टी मैटर- होगा। वहाँ के नाभिक-एन्टी प्रोटान और एन्ट्री न्यूट्रॉन के बने होंगे। उन प्रति नाभिकों के इर्द गिर्द इलेक्ट्रान के स्थान पर पॉजीट्रान भ्रमण करते होंगे। वहीं से यह प्रति कणों का प्रवाह धरती पर आता होगा और यहाँ कि अणु रचना के साथ उसका सम्मिश्रण यह परस्पर विरोधी स्थिति उत्पन्न करता होगा। यह प्रतिविश्व कहाँ है यह ढूँढ़ा नहीं जा सका पर उसका अस्तित्व तो एक प्रकार से मान ही लिया गया है।

हमें अपने चिन्तन और व्यवहार में इस तथ्य को ध्यान में रखना चाहिए कि इस विश्व में जहाँ देव सत्ता का वर्चस्व है वहाँ असुर सत्ता भी हर जगह मौजूद है। न कोई व्यक्ति या पदार्थ पूर्ण शुद्ध है न अशुद्ध। गुण, दोष की मात्रा सर्वत्र मौजूद है। हमें गुणों को देखना, समझना, ढूंढ़ना और बढ़ाना चाहिए क्योंकि वे ही स्थिर और सत् हैं। असुरत्व भी हर जगह मौजूद है, उससे सतर्क रहें, बचें। मनुष्य में यह कुशलता बनी रहे वह नीर-क्षीर, विवेक कर सकने में समर्थ रहे इस प्रशिक्षण के लिए भगवान ने संसार में असुरता का अंश रखा है। परमाणु में भी प्रतिकण अंश भेजा है। भेजने वाली असुर सत्ता सम्पन्न दुनिया भी कहीं है। वह बाहर भी है और भीतर भी। उससे सतर्क रहना भी उतना ही आवश्यक है जितना देवत्व का अवलम्बन।


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