दुःख और दुष्टता की जननी- दुर्बलता

November 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

दुर्बलता भी चोरी, झूठ, छल, हिंसा आदि की तरह एक पाप ही है और उसका दण्ड भी अन्य अपराधों की तरह मिलकर रहता है। दुष्कर्म करने वाले की निन्दा भी होती है और उसे राजदण्ड तथा समाज का असहयोग सहना पड़ता है। दुर्बलता समेट लेना भी इसी श्रेणी में आता है, और उस पाप के फलस्वरूप भी लगभग उसी स्तर की यातनायें सहनी पड़ती हैं।

आत्मा शक्ति सम्पन्न है उसे अशक्त नहीं बनाया गया है। मनुष्य का सृजन जिन तत्वों से सम्पन्न हुआ है वे ऐसे प्रखर हैं कि हर अभाव को दूर कर सकते हैं। हर अवरोध को हटा सकते हैं और हर दिशा में प्रगति का पथ प्रशस्त कर सकते हैं।

फिर भी मनुष्य यदि दीन दुर्बल अभावग्रस्त बना रहता है तो उसमें उसका शारीरिक और मानसिक आलस्य ही प्रधान कारण है। भीरु और संशयी प्रकृति के मनुष्य ही पिछड़े पड़े रहते हैं। प्रभु प्रदत्त प्रतिभा का प्रयोग न करना और आत्मा की आवश्यकता सशक्तता की प्राप्ति के लिये तत्पर न होना, कर्त्तव्य का प्रतिघात है। दूसरों की हत्या की तरह ही - आत्म-हत्या और कर्त्तव्य हत्या का अपराध माना गया है। आत्महत्या का प्रयास करने वाले पुलिस द्वारा पकड़े जाते हैं और न्यायालय द्वारा जेल भेजे जाते हैं। कर्त्तव्य में असावधानी करने वाले फौजी कोर्ट मार्शल की पकड़ में आते हैं और गोली से उड़ा दिये जाते हैं। दूसरों के साथ दुर्व्यवहार करना ही पाप नहीं है- अपने प्रति अपराध करना भी उसी श्रेणी में आता है।

दुर्बल रहना- स्पष्टतः आत्महत्या और कर्त्तव्य हत्या है। अपंग, असाध्य रोगी और पागलों की बात दूसरी है, वे अपवाद हैं। उनके अतिरिक्त हर व्यक्ति में उस क्षमता की पर्याप्त मात्रा विद्यमान है जिसके आधार पर वह शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, आर्थिक, आत्मिक सभी क्षेत्रों में इतनी प्रगति कर सकता है कि अपना जीवन सुखपूर्वक जिये, अपने आश्रितों को सहारा दे और समाज को समुन्नत करने की भूमिका निबाहे। समय और श्रम का सदुपयोग करने वाले, चरित्र को उज्ज्वल रखने वाले और व्यवहार कुशलता अपनाने वाले व्यक्ति सहज ही मनुष्योचित समर्थता प्राप्त प्राप्त कर लेते हैं। ऐसा प्रयत्न पुरुषार्थ निरन्तर करते रहना मानवीय कर्त्तव्यों की प्रथम पंक्ति में ही अंकित है।

समर्थता प्राप्त करने के लिए शारीरिक आलस्य और मानसिक प्रमाद बरतना प्रकृति को सर्वथा असह्य है। उसकी दृष्टि में ऐसे लोग अनावश्यक ही नहीं अवाँछनीय भी हैं। उसकी सुन्दर सृष्टि में कुरूपता फैलाने वाले कूड़ा-करकट को यदि वह झाड़-बुहार कर सड़ने के लिए एक ओर फेंक देती है तो उस पर निर्दयता का दोषारोपण नहीं किया जा सकता। माली अपने बगीचे में और किसान अपने खेतों में इसी रीति-नीति को अपनाते हैं। खर पतवार, झाड़-झंखाड़ वे बीनते, काटते, उखाड़ते रहते हैं, न उखाड़ें तो उनकी फसल ही चौपट हो जाय, बगीचा ही वीरान हो जाय।

देखा जाता है कि परिस्थितियाँ दुर्बलों पर ही बरसती हैं और समर्थों को सहारा देती हैं। तेज हवा दीपक को बुझा देती है और अग्नि को प्रज्ज्वलित करती है। आग में घी पड़ने से उसके ज्वलित होने की बात प्रसिद्ध है पर नन्हीं सी चिनगारी के लिए वह भी काल बन जाती है और बुझा कर रहती है। शीत ऋतु स्वास्थ्य वर्धक मानी जाती है। लोग जाड़े के दिनों में अपना स्वास्थ्य बना लेते हैं पर बूढ़े कमजोर उन्हीं दिनों काल के गाल में समा जाते हैं। ठण्ड उनके लिये मौत बनकर आती है। इसे दुर्बल पर दैव का प्रकोप ही कहना चाहिए।

रोगों के कीटाणु दुर्बल शरीरों में अड्डा जमाते हैं। सशक्तों से कतरा कर निकल जाते हैं। बेचारी बकरी को हिन्दू, मुसलमान, देव, दानव, भूत-पलीत, सिंह, व्याघ्र सभी खाने को तैयार रहते हैं। रीछ, भेड़िये, चीते कोई नहीं खाता। कबूतर का माँस हर किसी को पसन्द है। न कोई कौआ पकड़ता है न बाज। मछली सबको रुचिकर है घड़ियाल किसी को नहीं।

ठगी के शिकार भोले और विश्वासी लोग बनते हैं। चोर उनके घर में सेंध लगाते हैं जो असावधान रहते हैं। जेब उनकी कटती है जो लापरवाही बरतते हैं। सताये वे जाते हैं जिनमें प्रतिरोध करने की शक्ति नहीं होती। आक्रमण के शिकार वे बनते हैं जो उसे देखकर डर जाते हैं। वनवासी लड़के हलकी सी कमान और बरछी लेकर एकाकी हिंस्र जन्तुओं से भरे जंगल में फिरते रहते हैं। उन्हीं से आँख मिचौनी खेलते हैं और देखते-देखते उन्हीं वनराजों को मारकर कन्धे पर टाँग लाते हैं जिन्हें देखकर हाथी भी चिंघाड़ते हैं।

दुर्बलता-दुष्टता को ललचाती है और उसे आक्रमणकारी होने के लिए प्रोत्साहित करती है। डरपोक आदमी अपने आपसे, अपनी दुर्बलता से डरता है- इसलिये उसे डराने के लिए हर कोई तैयार रहता है। बेबस बेकस जंगल की झाड़ी अँधेरे में दैत्य बनकर डरपोक को कँपा देती है। जले, गढ़े मुर्दे तब भूत-पलीत बनकर डराने के लिए तैयार हो जाते हैं। चुहिया की उछल-कूद उनकी धड़कन बढ़ा देने के लिये काफी है। मन में उठने वाली बेसिर पैर की कुकल्पनाएं-आशंकायें-विभीषिका बनकर प्राणघाती पिशाचिनी बन जाती हैं और कितने व्यक्ति इन्हीं को देखते, सोचते अधमरे हो जाते हैं। जब अस्तित्व रहित कल्पनाएं इतना त्रास दे सकती हैं तो अस्तित्व सम्पन्न जीवधारी तो उनके लिए यमदूत ही बन सकता है।

दीन दुर्बलों पर अत्याचार होने की बात हम सुनते हैं, स्वभावतः उनके कष्टों पर दया आती है और भावनायें उठती हैं कि किसी प्रकार उनके कष्ट दूर हों। इसके लिये तीन उपाय हैं। एक यह है कि हम स्वयं आगे बढ़ें और अनीति तथा व्यथा को दूर करने के लिए सक्रिय रूप से हाथ बटायें। मात्र दुख प्रकट करना और आँसू बहाना पर्याप्त नहीं। यदि सहानुभूति सच्ची है तो उसे सक्रिय भी होना चाहिए। हमें दुर्बलों को सबल बनाने और अनीति का प्रतिरोध करने में अपनी प्रतिभा और क्षमता का प्रयोग करना चाहिए।

दुष्ट दुरात्मा, शोषक और उत्पीड़कों की निष्ठुरता को करुणा में बदलना चाहिए, उन्हें मनुष्यता को कलंकित करने और पाप का घड़ा भरने से उत्पन्न परिणामों को स्मरण दिलाना, उनका विरोध करना और प्रतिरोध के लिए समर्थ संघर्ष खड़ा करना चाहिए। अनीति को दण्डित किये बिना-कुकृत्यों को लाभ रहित बनाये बिना रोका नहीं जा सकता। इसलिये उनका मार्ग अवरुद्ध करने के लिये कठोर उपाय करने चाहिए, भले ही उस संघर्ष में अपने को अथवा प्रतिरोधकों को चोट सहनी पड़े।

इससे भी अधिक आवश्यकता इस बात की है कि दुर्बल को अपनी दुर्बलता छोड़ने के लिए तैयार किया जाय। गरीबी को जब तक स्वतः उतारकर न फेंका जाय तब तक वह जाती नहीं है। दुर्बलता की जड़ें मन में जमी रहती हैं और उनकी बेल जीवन के हर पक्ष को दुर्बल बनाती रहती है। दूसरों की सहायता क्षणिक लाभ पहुँचाकर समाप्त हो जाती है। दूसरों का रक्त किसी के शरीर में चढ़ाया जाय तो उसकी शक्ति कुछ घण्टों तक ही काम देती है। जीवन धारण किये रहना तो अपने उत्पादित रक्त से ही सम्भव है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118