सृष्टि के आरम्भ में मनुष्य अपने जीवन के उद्देश्य को भलीभाँति समझता था। उसके दोनों नेत्र अच्छी वस्तुओं को देखने में ही व्यस्त रहते। किसी रमणी को देखता तो उसके मन में माता और बहन के भाव आते और मस्तक श्रद्धा से झुक जाता।
कान ईश्वर गुणगान तथा अच्छी बातें सुनने के ही अभ्यस्त थे। किसी की आलोचना सुनने का अवसर आता तो वह स्पष्ट कह देता ‘भाई! सर्वगुण सम्पन्न तो केवल ईश्वर होता है। हम लोग मनुष्य हैं,और मनुष्यों से भूल हो जाना स्वाभाविक है। किसी की आलोचना करने से तो अच्छा है अपनी आलोचना स्वयं की जाये अपने को समझने का प्रयत्न किया जाये। आत्मनिरीक्षण की वृत्ति मानवोचित गुणों का विकास करती है।’
और मनुष्य के दोनों हाथ श्रेष्ठ कर्म में रत रहते । गिरे हुये लोगों को उठाना, दूसरों की सहायता करना, दान देना ही मानो हाथों का कर्तव्य हो।
शैतान मन ही मन जलभुन रहा था। उसे अपनी योग्यता दिखाने का अवसर नहीं मिल रहा था अतः वह एक दिन वेश बदलकर गया और बोला ‘विधाता ने तुम्हें दो आँख, दो कान और दो हाथ दिये हैं इसका मतलब यह नहीं कि दोनों अंगों को अनावश्यक कष्ट दिया जाये। क्या तुम एक आँख, एक कान और एक हाथ से काम नहीं कर सकते!’
शैतान को अपनी बात मनुष्य के गले तक उतारने में सफलता मिल गई। मनुष्य भी सोचने लगा बात तो ठीक है और उसने एक ही आँख से देखना, एक कान से सुनना और एक हाथ से काम करना शुरू कर दिया। उसकी एक आँख, एक कान और एक हाथ पूर्ण विश्राम प्राप्त कर सर्वथा आलसी और निष्क्रिय बन गये।
शैतान इसी अवसर की ताक में था, उसने मनुष्य के उन अंगों पर अड्डे जमा लिये जो निष्क्रिय थे। और तभी से मनुष्य की आंखें भले के साथ बुरा भी देखने लगीं कान अच्छी बातों के साथ बुरी बातों, आलोचना तथा गाली सुनने में रस लेने लगे और भी सत् कार्यों के साथ दुष्कर्म करने लगे।