ज्ञान और कर्म ही नहीं भक्ति भी अपेक्षित है।

November 1972

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ज्ञानेन्द्रियों के आधार पर हमारी अन्तः चेतना सुख दुःख, काम, क्रोध, आदि अनुभव करती है। इस चेतना को ही मन कहते हैं। मन को और अधिक स्पष्ट करें तो उसे विविध अनुभूतियों के आधार पर बनी हुई मानवी चेतना कह सकते हैं जो इतनी समर्थ भी होती है कि जिन कोषों की एकत्रित अनुभूतियों ने उसका निर्माण किया है उन पर नियन्त्रण भी रख सके। मस्तिष्कीय चेतना के विविध पक्षों को प्रभावित, नियन्त्रित और प्रोत्साहित कर सकने में समर्थ होने के कारण मन को अत्यधिक महत्व दिया गया है, उसे ही उत्थान पतन का कारण माना गया है और उसे ही शत्रु मित्र की संज्ञा दी गई है। परिष्कृत और सुव्यवस्थित होने पर वह सचमुच मित्र का काम करता है और व्यक्तित्व को प्रतिभाशाली, सम्मानास्पद, सन्तोषप्रद बनाने के साथ-साथ भौतिक और आत्मिक प्रगति का पथ प्रशस्त करता है इसके विपरीत यदि वह अस्त-व्यस्त एवं असंस्कृत हो तो फिर वह दूसरों के लिए ही नहीं अपने लिए भी एक संकट सिद्ध होता है। दुष्प्रवृत्तियों से ग्रस्त मन वाला मनुष्य सब की दृष्टि में अविश्वस्त और अप्रामाणिक रहता है अपने आपके लिए भी वह विक्षोभ और असन्तोष ही उत्पन्न करता है। ऐसे व्यक्ति पग-पग पर असफल और तिरस्कृत होते रहते हैं। अभाव और सन्तोष से घिरे रहते हैं। ऐसी विषम परिस्थिति में धकेल देने वाले मन को यदि शत्रु कहा जाय तो उसमें कुछ भी अत्युक्ति नहीं है।

मस्तिष्क की भौतिक संरचना से ऊपर उठकर यदि उसकी चेतनात्मक संरचना का विवेचन किया जाय तो उसे तीन भागों में बाँटना पड़ेगा। (1) भावनात्मक, (2) क्रियात्मक, (3) ज्ञानात्मक। यों हर काम में इनमें से एक का बाहुल्य रहता है पर उनका समुचित समन्वय हर काम में रहना चाहिए अन्यथा वह कार्य भोंड़ा और बेतुका दीखने लगेगा और उस कार्य का वह परिणाम न निकलेगा जो सन्तुलित स्थिति में निकल सकता था।

भावना का आवेश मनुष्य को विक्षिप्त जैसी स्थिति में पटक देता है। प्रेम, श्रद्धा आदि भावनाओं का रंग कई बार ऐसा चढ़ जाता है कि बिना समझे परखे और आगे की बात सोचे अपने प्रेमी या श्रद्धास्पद पर सब कुछ निछावर कर देने का आवेश छाया रहता है। यदि प्रेम पात्र या श्रद्धास्पद उपयुक्त हुआ तो ठीक अन्यथा इस आवेश में खतरा ही खतरा है। भोली लड़कियों को कितने ही दुराचारी इसी प्रेम जाल में फँसा कर उनका भविष्य हर प्रकार अन्धकारमय बना देते हैं। अन्ध श्रद्धा के चंगुल में फँसे हुए देवी-देवताओं अथवा सन्त महन्त के माध्यम से इतनी क्षति उठाते हैं जो यदि सही दिशा में विवेकपूर्वक उठाई गई होती तो उससे अपना और दूसरों का बहुत बड़ा हित साधन होता।

अनियन्त्रित भावनाएं यदि कुमार्गगामी हो जायें तो पूरी विपत्ति बनकर ही सामने आती है। कामान्ध क्रोधान्ध लोभान्ध, मोहान्ध न जाने क्या क्या न करने लायक कर बैठते हैं और पीछे पछताते हैं। पेशेवर हत्यारों की बात छोड़ दें तो सामान्यतः हत्याएं और आत्म हत्याएं क्रोधान्ध स्थिति में ही होती हैं। उस समय विवेक पूर्णतया नष्ट हो जाता है और आवेश इस कदर मस्तिष्क पर छा जाता है कि परिणाम का, औचित्य का विचार कर सकने की गुंजाइश ही नहीं रहती। और तनिक से कारण को लेकर आवेशग्रस्त व्यक्ति हत्या या आत्म हत्या कर बैठता है, पीछे जब वह बुखार उतरता है तो दूसरों की तरह स्वयं ही अपने आपको धिक्कारते ही बनता है।

भावनाओं का स्तर परिष्कृत हो तो मनुष्य सन्त, सज्जन, दयालु, परोपकारी, सत्प्रवृत्ति से सुसम्पन्न होकर देवोपम जीवन जी सकता है और महामानवों की पंक्ति में खड़ा होकर ऐसे आदर्श उपस्थित कर सकता है जिससे असंख्यों को चिरकाल तक प्रेरणा मिलती रहे। सद्भावना सम्पन्न अन्तःकरण स्वयं सन्तुष्ट रहता है और उसके समीपवर्ती शान्ति और शीतलता अनुभव करते हैं। भावनाओं का सन्तुलन-उन्हें आवेशों से मुक्त रखकर सत्पथ गामिनी बनाये रहना मन का सच्चे अर्थों में सदुपयोग है, जो इसे कर सकें वे मनस्वी कहलाते हैं और उस मनोबल के कारण अपना और दूसरों का भारी हित साधन करते हैं।

मनः चेतना का क्रिया पक्ष भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। शरीर के द्वारा- मस्तिष्क के द्वारा जो कुछ किया जाता है उसी के फलस्वरूप भली बुरी उपलब्धियाँ सामने आती हैं। परिणाम फल फूल है और उन पौधों के बीज हैं कर्म। अक्सर भले-बुरे परिणामों का कारण दूसरे लोगों या कारणों को समझा जाता है। इसमें बहुत थोड़ी सच्चाई है। वास्तविकता यह है कि अपनी खामियों के कारण परिस्थितियों का पाशा उलटा पड़ जाता है और जिनका व्यवहार अनुकूल रह सकता था, उनका प्रतिकूल हो जाता है। काम को पूरे मन से न करना, उसे खराब करने की बराबर है। लापरवाही से-अन्यमनस्क होकर कुछ किया जाय उससे तो न करना अच्छा। मनोयोग के अभाव में क्रिया त्रुटिपूर्ण रह जाती है और तत्काल एक काम पूरा किया दीखने पर भी परोक्ष रूप से उसमें इतनी कमी रह जाती है जिसके कारण उसे न करने से भी अधिक अपनों को या दूसरों को हानि उठानी पड़े।

क्रिया पक्ष यह चाहता है कि उसके साथ पूरा मनोयोग जुड़ा हो। जो किया जाय पूरी दिलचस्पी के साथ किया जाय। समग्र कुशलता का उसमें समावेश जुड़ा रहे। ऐसे काम ऐसे शानदार होते हैं कि उनसे अपना मन भी प्रसन्न हो और दूसरों की दृष्टि में उस कर्तव्य के आधार पर अपने व्यक्तित्व का मूल्य बढ़े। व्यवस्था बुद्धि कोई जन्म जात गुण नहीं है। पूरे मनोयोग से-अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न मानकर यदि हर काम को करने की आदत डाल ली जाय तो निस्सन्देह उसके द्वारा किये हुए काम ऐसे बढ़िया होंगे कि शत्रु भी उन हाथों को चूमना चाहेगा। छोटे कामों में अपनी यह प्रवृत्ति दिखाने वालों को दुनिया सिर आँखों पर उठाती है और फिर वे एक के बाद एक उन्नति की सीढ़ियाँ पार करते हुए प्रतिष्ठा एवं सफलता के उच्च शिखर पर पहुँच जाते हैं।

अच्छी आदतें डालने में देर लगती है और अध्यवसाय से काम लेना पड़ता है। आत्म नियन्त्रण रखना पड़ता है। पर बुरी आदतें थोड़ा सा ही अवसर पाने पर स्वभाव का अंग बन जाती हैं और फिर मुश्किल से छूटती हैं। आलसी और प्रमादी स्वभाव के व्यक्ति अपना अधिकाँश समय ऐसे ही बर्बाद करते रहते हैं और सामर्थ्य की तुलना में दसवां अंश भी काम उनसे नहीं बन पड़ता। हरामखोरी की, कामचोरी की आदत आलस और प्रमाद के रूप में परिपक्व होकर जीवन की बर्बादी का कारण बनती है। ऐसे व्यक्ति कभी कुछ महत्वपूर्ण कार्य नहीं कर सकते। नशेबाजी, जुआ आदि के व्यसन कइयों के पीछे पड़ जाते हैं। फिजूलखर्ची की कइयों की ऐसी बुरी आदत होती है कि वे उपयुक्त आजीविका होते हुए भी सदा ऋणग्रस्त और तंगदस्त रहते हैं। अपने क्रिया संस्थान पर मन का नियन्त्रण न होने से ही ऐसी अस्त-व्यस्तताएं पनपती हैं। यदि मनः चेतना प्रखर हो और मच्छर काटते ही जिस तरह उसे उड़ाने का, काटे हुए स्थान को खुजलाने का प्रबन्ध अचेतन मन करता है उसी तरह यदि सचेतन मन शरीर की समस्त क्रिया पद्धति पर नियन्त्रण रखे तो समय का हर क्षण, बुद्धि का हरण कर सप्रयोजन कामों का अभ्यस्त हो सकता है और प्रगति की दिशा में इतना आगे बढ़ा जा सकता है जिसे जादू या चमत्कार कहा जाय।


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