गुरुदेव की विश्व यात्रा तथा पंचवर्षीय क्रिया पद्धति

November 1972

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यह अंक पाठकों के हाथ पहुँचने से एक महीने के भीतर गुरुदेव सम्भवतः अपनी पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार अपनी विश्व यात्रा पर निकल चुकेंगे। समस्त विश्व की यात्रा का पासपोर्ट इकट्ठा ही बनवा लिया गया है। यों यह यात्रा कई खण्डों में- कई टुकड़ों में पूरी होगी। एक साथ लम्बे समय के लिए बाहर जा सकना संभव भी नहीं था। निज की, सघन हिमालय की छाया में संपन्न होने वाली साधना से शान्ति-कुञ्ज में यदा-कदा आकर युग निर्माण आन्दोलन का परोक्ष सूत्र संचालन-प्राण प्रत्यावर्तन के सघन अनुदान-नारी जागरण का अभिनव सूत्रपात, विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय का भागीरथ प्रयास यह पाँचों ही कार्य उन्हें पाँच वर्ष तक चलाने हैं। उनकी निज की पञ्चवर्षीय योजना का यह निर्धारण विगत बसन्त पंचमी पर स्पष्ट रूप से हो चुका है और वे उसी दिन से मार्ग-दर्शक शक्ति के इशारे पर अपने कार्यक्रम में तत्पर हो गये हैं।

विश्व यात्रा की उनकी तैयारी यकायक ही नहीं हो गई है। उसके पीछे लम्बी पृष्ठभूमि है। यह निश्चय चार वर्ष पूर्व तभी कर लिया गया था जब विज्ञान और अध्यात्मवाद के समन्वय के लिए अखण्ड-ज्योति में विवेचनात्मक लेखमाला आरम्भ हुई थी। वस्तुतः यह इस युग की एक अत्यन्त महत्वपूर्ण बौद्धिक क्रान्ति है जिसके दूरगामी परिणाम होंगे। कहना न होगा कि यह प्रत्यक्षवादी और बुद्धिवादी युग है। इसमें ‘बाबा वाक्यं प्रमाणम्’ के आधार पर कुछ भोले लोग ही प्रभावित या सन्तुष्ट किये जा सकते हैं। हर विचारशील क्यों? और कैसे? का सहारा लेकर किसी निष्कर्ष पर पहुँचना चाहता है। चूँकि चिरअतीत में ‘श्रद्धा’ को अपने आपमें एक भावनात्मक विज्ञान का आधार स्तम्भ माना जाता था अस्तु यह सोचकर चला गया था के श्रद्धा के आधार पर सर्वसाधारण को मार्ग-दर्शन किया जा सकेगा। शास्त्र वचनों और आप्त पुरुषों की साक्षियों को प्रमाण भूत मान लिया जायगा और उस आधार पर समाहित लोक-मानस को अध्यात्म तत्वज्ञान का स्वरूप एवं मार्ग समझाने में सफलता मिलती रहेगी। पर अब स्थिति बिल्कुल उल्टी हो गई। वैज्ञानिक, आर्थिक, बौद्धिक, यान्त्रिक और तत्सम्बन्धित अगणित दिशा धाराओं की आश्चर्यजनक प्रगति ने मनुष्य को बुद्धिवाद का- प्रत्यक्षवाद का आश्रय लेने के लिए सन्नद्ध कर दिया। अब किसी विचारशील को कोई बात हृदयंगम करानी हो तो उस प्रत्यक्षवादी आधारों के सहारे ही सन्तुष्ट कराना होगा।

अध्यात्म और धर्म जैसी मानवी चेतना के हृदय और मस्तिष्क की महत्ता असंदिग्ध है। उसके बिना व्यक्ति निर्मम नर पशु मात्र ही रह जाता है। उत्कृष्टता को बिना अपनाये न आत्मा का सत्य प्रकाश में आता है- न चेतना में शिव की अनुभूति होती है और न विश्व सौंदर्य को देख सकने का आधार हाथ लगता है। तत्व दर्शन की रसानुभूति के बिना मनुष्य की स्थिति प्रेत पिशाच जैसी ही रह सकती है इसलिए अन्न, जल और वायु से भी बढ़कर मानवी चेतना को जीवित रखने के लिए अध्यात्म दृष्टि की आवश्यकता पड़ती है। इस युग का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यही रहा कि बुद्धिवाद, प्रत्यक्षवाद, विज्ञानवाद का एकाँगी विस्तार हुआ। दृश्य पदार्थों का ही ऊहापोह उनके द्वारा हुआ। आत्मिक गवेषणा की दिशा में इस उद्देश्य में कुछ भी प्रयास नहीं हुआ। फलतः श्रद्धा विज्ञान के आधार पर प्रतिष्ठापित ‘अध्यात्म’ को बुद्धिवाद की कसौटी पर अप्रामाणिक ठहराया गया। आत्मा, परमात्मा, कर्मफल, परलोक, उत्कृष्टता जैसे तथ्य जैसे चूँकि प्रारम्भिक स्थिति में विकासमान अध्यात्म के आधार पर सिद्ध न हो सके इसलिए इसे कपोल कल्पना ही नहीं-अवाँछनीय, मूढ़ता, प्रतिगामिता भी ठहरा दिया गया।

दार्शनिक दृष्टि से कितने ही सिद्धान्तों का समर्थन खण्डन होता रहता है। पर आत्मवाद को उनमें से एक, नहीं ठहराया जा सकता है। शरीर में प्राण की जो स्थिति है वह जीव चेतना में अध्यात्म की है। उन्हें अलग कर दिया जाय तो फिर जो कुछ बच रहता है उसे घिनौना ही कहा, देखा और समझा जा सकता है। इस युग का यह एक महीन संकट था कि जनमानस को बुद्धिवाद से विरत करके श्रद्धा तुष्ट बनाया नहीं जा सकता था और बुद्धिवाद की कसौटियाँ अध्यात्म का अस्तित्व स्वीकार करने को तैयार न थी। इस गतिरोध को कैसे दूर किया जाय इसका न तो कोई उपाय दीखता था और न मार्ग सूझता था। इस गतिरोध को दूर करने के लिए यत्र-तत्र छुटपुट प्रयास भी होते रहे हैं। कहीं-कहीं से कुछ ढूँढ़ा, कहा, लिखा भी जाता रहा है पर वह था चंचु प्रवेश मात्र। जब तक अध्यात्म को विज्ञान के आधार पर प्रतिपादित करने की ठोस, विस्तृत और सर्वांग पूर्ण प्रक्रिया खड़ी न की जाय तब तक विज्ञान और अध्यात्म को एक दूसरे का पूरक समर्थक नहीं बनाया जा सकता और जब तक यह प्रकरण पूरा न हो जाय तब तक युग जिज्ञासा का वह समाधान नहीं हो सकता जिसके आधार पर पर बुद्धिजीवी वर्ग को उस आत्मिक तत्वज्ञान के प्रति निष्ठावान बनाया जा सकता है और व्यक्ति तथा समाज की अगणित समस्याओं का हल जिसके आधार पर निकल सकता है।

गुरुदेव ने युग की इस महती आवश्यकता को पूरा करने के लिए जो कदम उठाया उसे युग परिवर्तन का एक अत्यन्त महत्वपूर्ण स्तम्भ कहा जा सकता है। यदि इस स्तर के प्रयास अग्रगामी न हों तो इन दिनों प्रचलित धार्मिक कर्मकाण्ड-कथा कीर्तन-जप तप-उपहासास्पद ही बने रहेंगे और विज्ञ समाज का समर्थन न मिलने के कारण कुछ ही समय में अपना अस्तित्व खो बैठेंगे। विश्वास के आधार पर ही सुदृढ़ श्रद्धा जमती है और विश्वास से पूर्व मनः चेतना तथ्यों और तर्कों के सहारे यथार्थता जानना चाहती है। अध्यात्म को भी यह अग्नि परीक्षा देने के लिए तैयार रहना होगा। बचने के लिए बहाने ढूँढ़ते रहने से देर तक काम नहीं चल सकता। इस नग्न सत्य का सामना करने के लिए विज्ञान के - तर्क और तथ्य के - आधार पर अध्यात्म गरिमा का प्रतिपादन अखण्ड-ज्योति ने चार वर्ष पूर्व आरम्भ किया था। प्रसन्नता की बात है कि उससे विश्वभर के बुद्धिजीवी वर्ग में भारी दिलचस्पी, हलचल पैदा हुई है। अखण्ड-ज्योति का अनेक भाषाओं में प्रकाशित होना और ग्राहक संख्या अप्रत्याशित रूप से बढ़ते जाना इस नये प्रतिपादन के प्रति लोक-मानस की उत्कट अभिरुचि का ही द्योतक है। आस्तिक वर्ग की निराशा को चीरते हुए एक अभिनव आशा की प्रभाव किरणें उपलब्ध हुई हैं और विश्वास हो चला है कि अगले दिनों बुद्धिवाद का रुख पलट जायगा और उसकी चपेट में आकर आस्तिकों को नास्तिक-बनने का खतरा न रहेगा वरन् नास्तिकों को आस्तिक बनकर अपनी भूल सुधारनी पड़े।

चमड़े की आँखों से देखने में यह इस प्रतिपादन का स्थूल रूप भले ही न दीखता हो पर जिन्हें सूक्ष्म दृष्टि मिली है उन्हें स्वीकार करना होगा कि यह सृजन असाधारण है। उसे मार्क्स दर्शन, अणु विज्ञान, विद्युत आविष्कार-तार-बेतार से घटकर नहीं बढ़कर ही मान्यता मिलेगी। विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय में अखण्ड-ज्योति मात्र लेख छापती रहे बात इतने से ही समाप्त नहीं हो जाती वरन् उसे प्रयोगशाला में भी सही सिद्ध करना पड़ेगा। इसके लिए गुरुदेव अपनी इस हिमालय की एकान्त तप साधना में समुचित तैयारी करते रहते हैं। तर्क और प्रमाण दोनों ही आधारों को इतनी मात्रा में संग्रह कर लिया है कि बुद्धिवाद और प्रत्यक्षवाद को उसके आधार पर एक सीमा तक सन्तुष्ट किया जा सके।

प्रस्तुत विश्व यात्रा का एक महत्वपूर्ण कारण यह है कि संसार के विज्ञान वेत्ताओं से मिलकर कुछ सीखा जाय और कुछ सिखाया जाय। जो आविष्कार हो चुके हैं उनकी जानकारी सभी को है पर जो शोध कार्य विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में चल रहा है वह भी इतना महत्वपूर्ण है कि भूतकालीन आविष्कार उसके सामने तुच्छ सिद्ध होंगे। इन शोध प्रयासों की दिशाएं एक विद्यार्थी की तरह जानना जहाँ गुरुदेव का उद्देश्य है, वहाँ एक लक्ष्य यह भी कि जो उनने जाना है उसका परिचय शोधकर्त्ताओं को दें और उन्हें वह दिशा बतायें जिसके आधार पर अगले दिनों विज्ञान और अध्यात्म को एक दूसरे का समर्थक पूरक-प्रयोगशाला में भी किया जा सके। यह महान प्रयोजन ऐसा था जिसके लिए विश्व यात्रा किये बिना काम चल नहीं सकता था। इसलिए यह व्यवस्था बनी और गुरुदेव अगले महीने उसके लिए जा रहे हैं। सर्वसाधारण में इसकी चर्चा पहले से नहीं की गई थी, पर यह सब बहुत पहले से ही निर्धारित निश्चित था। इस बार की गुरुदेव के निजी जीवन की-पंचवर्षीय योजना कुछ ऐसी ही है कि जिसकी चर्चा बहुत पहले नहीं ही करने की नीति निर्धारित की गई है, इसके पीछे बहुत ही ठोस कारण हैं।

विश्व यात्रा का दूसरा पक्ष यह है कि युग-निर्माण परिवार की शाखाएं विश्व के अधिकाँश देशों में हैं। उनके कार्यकर्ताओं में से अधिकाँश से कभी भी गुरुदेव का साक्षात्कार नहीं हुआ। उन्हें आवश्यक प्रेरणा, प्रकाश एवं दिशा देने के लिए यह आवश्यक था उनसे व्यक्तिगत परामर्श भी किया जाय और स्थानीय समस्याओं के अनुरूप मार्ग-दर्शन दिया जाय। इस संदर्भ में प्रथम कदम अफ्रीका महाद्वीप के देशों में कार्य करने वाले कार्यकर्ताओं के सम्मेलन के रूप में होने जा रहा है।

इसके अतिरिक्त इस विश्व यात्रा में उन लोगों के साथ घनिष्ठ सम्पर्क बनाना है जो नव-निर्माण के विश्व व्यापी महा अभियान में अपने-अपने देश, धर्म, भाषा, संस्कृति के आधार पर एक और नेक बनने बनाने का प्रयास प्राणपण से कर रहे हैं। भारत में हिन्दू धर्म के माध्यम से युग-निर्माण योजना किस प्रकार अपनी क्रिया-प्रक्रिया चला रही है इसे हम सब जानते हैं। पर बात यहीं समाप्त नहीं हो जाती। संसार में अन्य धर्म भी हैं और उनके अनुयायियों को उसी परम्परा के आधार पर एक केन्द्र पर जा मिलने के लिए अग्रगामी बनाया जा रहा है। आरम्भ में सभी धर्मानुयायी एक हो जायँ यह उचित तो है पर वर्तमान स्थिति में सम्भव नहीं इसलिए एक लक्ष्य की ओर जो जहाँ है वहीं से चल पड़े यही व्यावहारिक समझा गया है। मुसलमान, ईसाई, पारसी, बौद्ध, यहूदी आदि कई धर्मों के अनुयायी अपने-अपने धर्मों, पर्वों, शास्त्रों तथा परम्पराओं को ऐसा स्वरूप दे सकते हैं जिसे अपनाकर ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ के लक्ष्य तक पहुँचा जा सके। इस प्रयोजन के लिए विभिन्न धर्मानुयायी युग-निर्माण योजना के अंतर्गत अपने-अपने ढंग से-अपने-अपने क्षेत्रों में कार्य संलग्न हैं। युग निर्माताओं की इस सृजन सेना में आन्तरिक दृष्टि से पूर्ण एकता, घनिष्ठता और समस्वरता है। इसे और भी अधिक स्पष्ट तथा प्रखर बनाने के लिए गुरुदेव की यह विश्वयात्रा आवश्यक हो गई थी। इसके परिणाम आज भले ही सर्वसाधारण की कल्पना में न हों पर जब समस्त विश्व को एक राष्ट्र, एक धर्म, एक भाषा, एक संस्कृति के सहारे सच्चे अर्थों में विश्वमानव की महत्ता अपनाने में सफल हुआ पाया जायगा तब यह भी पता चलेगा कि इसके पीछे किन लोगों ने भागीरथ प्रयत्न किये थे और वे श्रेय दूसरों के देने के लिए स्वयं नींव के पत्थर भर बने रहे।

गुरुदेव की विश्वयात्रा का प्रमुख उद्देश्य है संसार की उन विभूतिमती आत्माओं से सम्पर्क स्थापित करना और दिशा प्रेरणा देना जिनके द्वारा युग परिवर्तन के लक्ष्य को अग्रगामी बनाया जा सकता है। राजनीति, धर्म, विज्ञान, साहित्य, अर्थ, कला, प्रतिभा के क्षेत्रों में एक से एक विभूतियाँ मौजूद हैं, उनके साथ इस यात्रा में सम्पर्क बनाकर यह प्रयास किया जायगा कि वे अपने-अपने ढंग से, अपने-अपने क्षेत्र में, अपनी-अपनी सामर्थ्य के अनुसार तत्परतापूर्वक जुट जायं और महाकाल के युग परिवर्तन प्रयोजन में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह करें।

उपरोक्त लक्ष्यों के लिए गुरुदेव की विश्वयात्रा होगी पर उसे प्रकाशन विज्ञापन से पूर्णतया बचाया जायगा। कारण कि अगले दिनों अत्यधिक महत्वपूर्ण सम्भावनाएं प्रकाश में आने वाली हैं। उचित यही है कि उनका श्रेय अनेक व्यक्तियों को मिले। युग-निर्माण की विभिन्न भूमिकाएं-विभिन्न व्यक्तियों द्वारा निर्वाह की जाती दिखाई पड़ें इसी में शोभा और सुन्दरता है। अस्तु गुरुदेव का लक्ष्य अगले दिनों सम्पादित की जाने वाली एक से एक बढ़ी-चढ़ी भूमिकाओं में स्वयं पर्दे के पीछे रहने और आगे दूसरों को किये रहने की है। तदनुसार विश्व यात्रा के क्रिया-कलापों पर प्रायः पूरी तरह पर्दा ही पड़ा रहेगा। स्पष्ट है कि इन प्रयासों के पीछे वर्तमान उथली राजनीति के साथ दूर का भी सम्बन्ध नहीं है। अन्तर्राष्ट्रीय राजनैतिक षड़यन्त्रों में धर्माध्यक्षों ने पिछले दिनों बड़ी फूहड़ भूमिका निबाही है और उन्हें संदिग्ध दृष्टि से समझे जाने और आशंका भरी दृष्टि से देखे जाने के कारण सामने आये हैं। अपना प्रयोजन स्फटिक की तरह स्वच्छ है। उसमें दुरभिसंधियों की गन्ध कोई सूँघना चाहे तो उसे वैसा कहीं कुछ भी न मिलेगा। जिस महान मिशन को लेकर गुरुदेव अग्रगामी हुए हैं उसमें इस प्रकार के ओछे हथकंडों के लिए राई रत्ती भर भी गुंजाइश नहीं है।

कहना न होगा कि विज्ञान और अध्यात्म के समन्वय का पथ-प्रशस्त करने वाला ऐसा सर्वतोमुखी साहित्य सृजा जायगा जो बुद्धिवाद और प्रत्यक्षवाद की चुनौती स्वीकार कर सके और धर्म की गरिमा एवं उपयोगिता को असंदिग्ध सिद्ध कर सके। यह कार्य मेज पर बैठकर पूरा हो जाने वाला नहीं है वरन् इसके लिए भारी ढूँढ़ खोज की आवश्यकता पड़ेगी। विभिन्न देशों में उपलब्ध सामग्री का संचय करना पड़ेगा। तभी इस प्रयोजन को पूरा कर सकने वाला अपने ढंग का एक विश्व कोष तैयार हो सकेगा। नई पीढ़ी के लिए यह कार्लमार्क्स के ‘कैपिटल’ से अधिक आकर्षक, प्रामाणिक, सारगर्भित और उपयोगी सिद्ध होगी। आज के भौतिकवाद एवं स्वार्थवाद से लोहा लेने के लिए यदि इस समय उस साहित्य को अपने युग का अनुपम अनुदान सिद्ध करे तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए। विश्वयात्रा में इसके लिए बहुमूल्य सामग्री खोजी और इकट्ठी की जा सकेगी ऐसी आशा की जानी चाहिए।

ऊपर की पंक्तियों में गुरुदेव की निजी पंचवर्षीय योजना के दो अंगों की चर्चा की गई है। विज्ञान और अध्यात्म के पूरक समर्थन सर्वतोमुखी साहित्य का निर्माण उस क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से इस उद्देश्य के लिए सारगर्भित परामर्श, विचार विनिमय तथा आदान-प्रदान को एक कार्य माना जा सकता है। दूसरा है विभिन्न देशों और धर्मों में युग परिवर्तन प्रक्रिया में संलग्न लोकसेवियों को प्रकाश और प्रोत्साहन देना तथा युग-निर्माण शाखाओं को अधिक सक्रिय बनाना। विश्व के लिए समय-समय पर जाते रहा जायगा। चूँकि इस बीच और भी अनेक महत्वपूर्ण कार्य किये जाने हैं इसलिये भारत में भी काफी समय देना पड़ेगा। इसलिए यात्रा लगातार नहीं हो सकती, वह खण्डों में ही चलती रहेगी।

अगले पाँच वर्ष ही गुरुदेव के प्रत्यक्ष कार्यक्रमों से संबद्ध समझे जाने चाहिए। इसके उपरान्त सम्भवतः उनकी कार्य पद्धति पूर्णतया सूक्ष्म हो जायगी और शरीर से नित्य कर्म के अतिरिक्त और कुछ करने की आवश्यकता न रहेगी। जो कार्य करने होंगे वे सूक्ष्म शरीर से ही सम्पन्न होते रहेंगे। उस समय दीखने वाली निष्क्रियता भी प्रचण्डतम सक्रियता से अधिक महत्वपूर्ण परिणाम उत्पन्न करती रहेगी। इन पाँच वर्षों में एक कार्य है समय समय पर कुछ दिनों के लिए हिमालय अञ्चल में जाकर अपने हथियार तेज करना-शक्ति का संग्रह करना और उस उपार्जन से अधिक महत्वपूर्ण सफलताएं प्राप्त करना। पिछले बीस वर्षों में भी उनके द्वारा जो कुछ कार्य हुआ है उसका श्रेय उनकी प्रतिभा एवं परिश्रमशीलता को नहीं मिल सकता वस्तुतः यह अब उनकी तप साधना की ही पूँजी थी जिसके बल पर एक व्यक्ति के प्रयास से सर्वथा असम्भव दिखने वाला क्रिया विस्तार सम्भव हो सका। 15 वर्ष की आयु से लेकर 60 वर्ष की आयु तक 45 वर्षों में जो कार्य उनने किया है; उसकी अपेक्षा अगले 5 वर्षों में सौ गुना काम उनके माध्यम से सम्पन्न होना है। इसके लिए आत्मबल की जितनी पूँजी अपेक्षित है उसका अंश उनकी मार्गदर्शक सत्ता अनुदान में देगी और एक अंश उन्हें स्वयं अपनी तप साधना से पूरा करना पड़ेगा। उसके लिए उपयुक्त स्थान और वातावरण भी उनने चुन लिया है। वह सर्वथा अज्ञात और कष्ट साध्य होते हुए भी अभीष्ट प्रयोजन के लिए सर्वथा उपयुक्त है। वे समय-समय पर वहाँ आते-जाते रहने के क्रम अगले पाँच वर्षों तक जारी रखेंगे। कितना समय, कब, कहाँ लगेगा इसका विवरण अनिश्चित और अप्रकाशित ही रहेगा। पूर्व चर्चा-पूर्व योजना का प्रकाश अगले दिनों प्रत्येक कार्य पद्धति के सम्बन्ध में अप्रकट ही रहा करेगा। यथासमय ही कोई बात जानी-जनाई जाय, इसी प्रकार अबकी बार का निश्चय है।

युग-निर्माण आन्दोलन की बागडोर यों प्रत्यक्षतः दूसरे हाथों में सौंप दी गई है पर परोक्ष रूप से उसके सूत्र संचालन का प्रयास अभी भी गुरुदेव ने छोड़ा नहीं है और अपने को उस उत्तरदायित्व से सर्वथा मुक्त नहीं माना है। यों विदाई सम्मेलन में हजारों अपने प्राण प्रिय अनुयायियों, उत्तराधिकारियों के हाथ में लाल मशाल सौंपी थी और यह आशा की थी कि अब एक दाना मथ कर हजार नये दाने उत्पन्न कर रहा है। एक आचार्य जी की जगह युग-निर्माण की मशाल को थामने वाले हजारों आचार्य जी पैदा हो रहे हैं। सो उनकी आशा ही सिद्ध हुई। मिशन का कार्य विस्तार जितना उनके सामने था उससे कई गुना अधिक बढ़ गया है और विश्वास है कि वह दिन-दिन आगे ही बढ़ता रहेगा, प्रत्यक्षतः इसका श्रेय गायत्री तपोभूमि के आत्मदानियों को- सक्रिय सदस्यों और कर्मठ कार्यकर्ताओं को- मिल सकता है, मिलना चाहिए फिर भी यह भुलाया नहीं जा सकता कि इस विशालकाय संयन्त्रों को बिजली कहीं अन्यत्र से ही मिल रही है। अगले पाँच वर्ष तक प्रचुर परिमाण में अश्व शक्ति की यह बिजली उत्पन्न होती रहे और कर्मठ कार्यकर्तागण उसके सहारे आशातीत सफलता का श्रेय, उत्साह प्राप्त करते रहें यह प्रयत्न बराबर चलता रहेगा। गुरुदेव अपनी उस परोक्ष जिम्मेदारी का पाँच वर्ष की अवधि तक बराबर निर्वाह करते रहेंगे।

इसी शृंखला की एक महत्वपूर्ण कड़ी प्राण प्रत्यावर्तन सत्र है। इस योजना के अंतर्गत सजीव और संस्कारवान परिजनों को पाँच-पाँच दिन के लिए शान्ति-कुञ्ज बुलाया जाता रहेगा और संचित आत्मबल का एक अंश उन्हें अनुदान में देने का क्रम चलता रहेगा। उनका विचार पाँच वर्षों में कुल मिलाकर एक हजार ऐसी जागृत आत्माओं को समर्थता प्रदान करना है जो अर्जुन और हनुमान की भूमिका सम्पादित कर सकें अपने को ऐतिहासिक महामानव सिद्ध कर सकें और विश्व मानव का भविष्य उज्ज्वल बनाने के ईश्वरीय प्रयोजन में हाथ बटा सकें। व्यक्तिगत सुख स्वार्थ की समस्याएं लेकर उनके पास अगणित व्यक्ति सदा से आते रहे हैं और शायद यह क्रम उनके जीवित रहते बन्द भी नहीं पर प्रत्यावर्तन शिविरों में अत्यन्त कड़ा प्रतिबन्ध लगा दिया है कि क्षुद्र प्रयोजन लेकर इस विश्व के महानतम पवित्र यज्ञ का गौरव घटाने के लिए कोई ओछे व्यक्ति न आयें। ऐसे लोग मिलने भर के लिए स्वीकृति लेकर कभी आ भी सकेंगे पर प्रत्यावर्तन के लक्ष्य के साथ उन्हें निर्मम उपहास न करने दिया जाएगा। यह प्रवचन, सत्संग, अनुष्ठान जैसे आयोजन नहीं है इनमें मात्र आत्मिक गरिमा का आदान-प्रदान है इसलिए जिन्हें बुलाया जायगा उनसे यही कहा जाएगा कि भौतिक समस्याओं को सुलझाने के लिए नहीं वरन् उच्च स्तरीय आत्मबल एवं दिव्य प्रकाश लेने के लिए अपनी मनोभूमि देवात्मा जैसी बनाकर ही इधर आवें।

गुरुदेव के सम्पर्क परिवार में शिष्य मण्डली में लाखों व्यक्तियों के नाम हैं, इनमें से केवल एक हजार को ही प्रत्यावर्तन का अवसर मिलेगा। पर आशा की जानी चाहिए कि जो भी इसमें आ सकेंगे वह गुरुदेव के अवतरण की महान शृंखला के महत्वपूर्ण घटक बनकर प्रकाशवान नक्षत्र की तरह युग-युगान्तरों तक चमकेंगे।

विश्व यात्रा और हिमालय साधना के बाद बचे हुए समय में वे शान्ति-कुञ्ज के अपने डाक बँगले में ठहरा करेंगे और उन्हीं दिनों प्रत्यावर्तन सत्र में थोड़े-थोड़े व्यक्तियों को बुलाया करेंगे। यह सत्र भी कब, कितने दिन चलेंगे उसका कुछ पूर्व निश्चय नहीं। समयानुसार ही सूचना देकर बुलाया जाया करेगा।

दस वर्ष पूर्व के एक वर्ष वाले अज्ञातवास का प्रायः सारा विवरण अखण्ड ज्योति में छपा था। वहाँ कइयों को बुलाया भी था और कइयों को पत्र भी लिखे थे पर अब की बार सब कुछ अप्रकट अविदित रखा गया है। कारण कि अब कि गतिविधियाँ पिछली बार की अपेक्षा अत्यधिक महत्वपूर्ण और अत्यधिक रहस्यपूर्ण हैं समय से पूर्व उनके प्रकट होने में लाभ की अपेक्षा सार्वजनिक हानि ही अधिक समझी गई है। इसलिए इस संदर्भ में अनावश्यक चर्चा पर जो प्रतिबन्ध है उसका कारण एवं उद्देश्य सहज ही समझा जा सकता है।

पाँचवाँ कार्य जो अगले पाँच वर्षों में सम्पन्न किया जाना है वह है शान्ति कुञ्ज (हरिद्वार) का शक्ति पुञ्ज में परिवर्तन। यह आश्रम सप्त ऋषियों की तपोभूमि सप्त सरोवर नामक क्षेत्र में इसीलिए बनाया गया है कि गुरुदेव की तप-स्थली तथा जन सम्पर्क प्रक्रिया के बीच वह एक शृंखला जैसा माध्यम बना रहे। यह गुरुदेव का ‘डाक बँगला’ है जिसमें वे यदा-कदा ठहरते हैं और प्रत्यक्ष क्रिया-कलाप का-संचालन मार्ग-दर्शन करते हैं। पाँच वर्ष तक ही इस आश्रम की यह उपयोगिता है उसके बाद इस भव्य इमारत को महिला जागरण केन्द्र के रूप में पूरी तरह परिणत कर दिया जायगा।

स्पष्ट है कि नये विश्व का- नये युग का- नेतृत्व भार नारी के कन्धों पर ही जायगा। आत्मिक विशेषताओं में नर की अपेक्षा नारी स्वाभाविक रूप से आगे है। नये युग में शरीर बल नहीं- आत्मबल प्रमुख होगा। इसकी स्वाभाविक मात्रा नारी में अधिक रहने से अबकी पारी उसी की है। पुरुष की पारी पूरी हो चुकी। हर क्षेत्र का नेतृत्व नारी को ही संभालना है इसके लिए उनका जागरण उत्थान भविष्य की महती आवश्यकता है। इसे पूरी करने में शान्ति-कुञ्ज की भूमिका अनुपम होगी। इसे नारी गायत्री तपोभूमि के रूप में देखा जा सकेगा और यहाँ से उड़ी हुई चिनगारियों को व्यापक क्षेत्र में ज्योतिर्मय होता देखा जा सकेगा।

जिस प्रकार गायत्री तपोभूमि मथुरा की स्थापना के अवसर पर सहस्र कुण्डी गायत्री महायज्ञ, 2400 तीर्थों के जल, चौबीस करोड़ मन्त्र लेखन एवं अखण्ड यज्ञाग्नि से प्राणवान बनाया गया था। उसी प्रकार अखण्ड दीपक पर अखण्ड गायत्री महापुरश्चरण कुमारी कन्याओं के माध्यम से यहाँ भी सम्पन्न किये जा रहे हैं। गुरुदेव ने 24 वर्षों में जो साधना की थी उसी को यहाँ अखण्ड क्रम में छह वर्षों में पूरा कर दिया जायगा। इन दिनों इस प्रयोजन के लिए यहाँ 20 कन्याएं रहती हैं और तप साधना के अतिरिक्त महत्वपूर्ण शिक्षा भी प्राप्त करती हैं। यह प्रक्रिया क्रमशः बढ़ती चली जायगी। तीन-तीन महीने गृहस्थ महिलाएं भी गृहस्थ संचालन की शिक्षा प्राप्त करेंगी। कन्याओं का विद्यालय और भी अधिक व्यवस्थित हो जायगा। जिनके ऊपर गृहस्थ की जिम्मेदारियाँ हैं, जिन्हें लोभ और मोह के बन्धन पाश से मुक्ति मिल चुकी है ऐसी जीवन्त महिलाओं को अपना जीवन महिला जागरण के लिए समर्पित करने को कहा जा रहा है, आशा है ऐसी ज्योतिर्मयी आत्माएं यहाँ इकट्ठी होती चली जायेंगी और विश्व व्यापी महिला आन्दोलन की शाखा प्रशाखाओं का संचालन करेंगी। पाँच वर्ष में इसके लिए आवश्यक इमारत तथा दूसरी तैयारी होती चली जायगी। इस आन्दोलन का संचालन कर सकने वाली सुयोग्य महिलाओं की एक टीम भी तब तक यहाँ खड़ी हो जायगी। इस महिला जागरण केन्द्र का एक स्पष्ट, सजीव और क्रियाशील स्वरूप इन पाँच वर्षों में ही बनकर खड़ा हो जायगा। तब कोई यह न कह सकेगा कि गुरुदेव ने नारी जागरण का अभियान खड़ा करने में उपेक्षा बरती।

इन दिनों कन्याओं को अखण्ड दीपक पर तप साधना इसलिए भी कराई जा रही है कि अगले दिनों अवतरित होने वाली- महान आत्माओं का तेज वे अपने गर्भ में धारण कर सकें। अञ्जनी, कौशल्या, देवकी, यशोदा, कुन्ती, मदालसा, द्रौपदी आदि महान महिलाओं ने पूर्व जन्मों में तप साधना करके ही वह शक्ति प्राप्त की थी कि अपनी गोदी में देवताओं को खिलाने का सौभाग्य प्राप्त कर सकी। पार्वती के तप का ही प्रभाव था कि उनकी गोदी में समस्त देवताओं में पूजा अग्रणी गणेश का परिपोषण हो सका। महान आत्माएं उत्कृष्ट वातावरण में ही जन्म लेती हैं। ऐसा भावनात्मक, शारीरिक और मानसिक वातावरण किसी व्यक्तित्व में घुला हुआ हो इसके लिए तप साधना की नितान्त आवश्यकता है।

इन दिनों शान्ति कुञ्ज में अखण्ड जप साधना में सम्मिलित होने वाली तपस्विनी कन्याओं को ऐसा ही सौभाग्य मिले तो किसी को आश्चर्य नहीं करना चाहिए। युग नेतृत्व के लिए जीवन मुक्त आत्माओं के अवतरण के लिए इस प्रकार की पृष्ठभूमि बनाई जानी आवश्यक भी है। शान्ति-कुञ्ज का अखण्ड दीपक पर चलने वाला महा पुरश्चरण जहाँ युग-निर्माण परिवार के सदस्यों की कितनी ही कठिनाईयों को हल करने की शक्ति उत्पन्न कर रहा है, वहाँ कन्याओं की शिक्षा के अतिरिक्त उनमें उत्कृष्ट स्तर की क्षमता भी उत्पन्न कर रहा है। इस प्रयोजन के पीछे भी असाधारण दूरदर्शिता पूर्ण उद्देश्य छिपा पड़ा है।

गुरुदेव की वर्तमान क्रिया पद्धति की पंचवर्षीय योजना का संक्षिप्त परिचय उपरोक्त पंक्तियों में मिल सकता है। (1) विज्ञान और अध्यात्म के समग्र साहित्य निर्माण के लिए विश्व व्यापी खोजबीन, (2) वैज्ञानिकों, विचारकों, युग निर्माताओं एवं शाखा संगठनों से अति महत्वपूर्ण विचार विनिमय तथा आदान-प्रदान के लिए विश्व यात्रा, (3) हिमालय के सघन अञ्चल में चलने वाली तप साधना के क्रम (4) मिशन का सूत्र संचालन तथा प्राण प्रत्यावर्तन अनुदान, (5) नारी जागरण के लिए शान्ति-कुञ्ज का समग्र निर्माण निर्धारण। इन्हें वे इस थोड़ी अवधि में पूरा कर सकेंगे इस बात पर उन्हें अविश्वास न होगा जो आत्मबल की गरिमा समझते हैं। अन्नमय कोश, प्राणमय कोश, मनोमय कोश, विज्ञानमय कोश, आनन्दमय कोश के पाँच आवरण जागृत होने पर पाँच स्वतन्त्र व्यक्तियों जितना काम कर सकते हैं। स्पष्टतः गुरुदेव ने इन पाँचों को समर्थ सक्रिय बनाकर पिछले दिनों आश्चर्यजनक कार्य किया है। उन्हें अधिक समर्थ बनाकर वे अधिक कार्य भी कर सकेंगे और उपरोक्त पाँच वर्षीय योजना को पूरा कर लेंगे इसमें किसी को सन्देह नहीं करना चाहिए।


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