जीवन का अर्थ

November 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

मानव-जीव एक बहुमूल्य निधि है। अनेकानेक योनियों में घूमने को पश्चात् यह दुर्लभ क्षण प्राप्त होता है। यह अत्यधिक सौभाग्य की बात है कि सृष्टि के प्रत्येक जीव को उपलब्ध न हो सकने वाले इस अवसर को प्राप्त कर हम मानव कहलायें। वस्तुतः ईश्वर ने मनुष्य को जो शक्ति-सामर्थ्य दी है- वह अन्य प्राणियों की तुलना में हजारों गुना अधिक है। अतएव यह हर मनुष्य का पूरा कर्त्तव्य है कि वह अपने जीवन को, अपनी शक्तियों को, समय को व्यर्थ न करे। उनका सही-सही और पूरा-पूरा उपयोग कर वह सच्चे अर्थों में मानव कहलाने का गौरव प्राप्त करे।

प्रायः देखा जाता है कि मनुष्य कुकामनाओं और कुवासनाओं की कीचड़-कुण्ठाओं में अपने जीवन को बरबाद कर देता है। वह न तो ईश्वर-प्रदत्त असामान्य क्षमताओं का महत्व ही जानता है और न जीवन का उपयोग। जीवन को भार समझकर वह नारकीय कीटों की भाँति कषाय-कल्मष युक्त जीवन व्यतीत करता है और मौत के दिन पूरे करता है।

हमें नहीं भूलना चाहिए कि यह बिरल-वरदान यों दुरुपयोग करने के लिए नहीं मिला वरन् इसलिये प्राप्त हुआ है कि इसका अधिकाधिक उपयोग कर सृष्टि के अन्य प्राणियों को लाभ पहुँचाया जा सके, ईश्वर के कार्यों में सहयोग दिया जा सके, सत्प्रवृत्तियों एवं सद्भावनाओं के अभिवर्धन में योगदान दिया जा सके। जो इस ईश्वरीय प्रयोजन को समझता तथा इसके अनुरूप कार्य करता है, वही ईश्वर का प्रेम और आशीर्वाद प्राप्त करता है।

वस्तुतः जीवन जीना एक कला है। जिसे ठीक से जीना आ गया, उसे सब कुछ आ गया। वही सच्चा कलाकार है, वही सच्चा शिल्पी है।

‘हम जी रहे हैं’ मात्र इतना ही पर्याप्त नहीं है। जीवन का भार ढोना एक पृथक बात है और जीवन का सदुपयोग करना भिन्न बात है। परिवार के भरण-पोषण के लिये आजीविका कमाना और बच्चे पैदा करना तो निम्न श्रेणी के मनुष्यों का कार्य है, शिश्नोदर जीवन तो पशु-पक्षी भी व्यतीत करते हैं। पेट और प्रजनन के लिये जीने वाले मनुष्यों को जैविक इच्छायें तृप्त करने वाला पशु-मात्र ही कहा जा सकता है।

जीवन का अर्थ है- आशा और प्रगति। जिसे सही अर्थों में जीवन जीना आ गया उसे पलभर को भी निराशा और दुःख की भावना उत्पीड़ित नहीं कर सकती। कठिन से कठिन परिस्थितियों में वह आशावादी व्यक्ति हँसते मुस्कराते जीता है और अन्ततः लक्ष्य पा ही लेता है। जीवन का अभिप्राय है-प्रगति अर्थात् प्रति क्षण अपने भाव संस्थान को-गुण-कर्म और स्वभाव को उत्कृष्ट बनाना। धन-वैभव तथा अन्य लौकिक ऐषणायें तो क्षणजीवी हैं, नश्वर हैं, कामनाओं और वासनाओं को अधिकाधिक बढ़ाने वाली हैं परन्तु जिसने अपनी आत्मा को निर्मल बना लिया, कषाय-कल्मषों से स्वयं को मुक्त कर लिया, वही सच्चा सुख प्राप्त करता है।

जिसे जीना आ गया है उसका जीवन स्वतः ही पुष्प जैसा स्मितिवान् चन्दन जैसा शीतल-सुगन्धित तथा दीपक जैसा प्रकाशवान- बन जाता है। वह पुष्प के सदृश हँसता-खिलता, सत्यं शिवं सुन्दरम् युक्त जीवन व्यतीत करता है। उस स्तर का व्यक्ति अपने पेट का मोह छोड़कर अपनी गरदन नुचवाता हुआ त्याग के मार्ग पर अग्रसर होता है। चन्दन के समान समीपवर्ती वातावरण को सुगन्धित बनाये रखता है तथा घिसे जाने पर भी रोष-विद्वेष की भावना मन में नहीं लाता। दीपक के सदृश वह तिल-तिल जलकर अन्धकार से लड़ता है तथा अन्तिम बूँद तक दूसरों को प्रकाश देता रहता है।

ऐसे व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में ईश्वर पुत्र कहलाने योग्य हैं। वह मानव न रहकर महामानव बन जाता है और अन्ततः ईश्वरीय सत्ता में समाहित हो जाता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118