भगवान की सर्वोत्कृष्ट रचना-मनुष्य कलेवर

November 1972

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मनुष्य कलेवर भगवान की सर्वोत्कृष्ट रचना है। इससे सुन्दर और सुव्यवस्थित शरीर और कोई हो नहीं सकता। भगवान के अधिकाँश अवतार भी इसी मनुष्य शरीर के माध्यम से होते रहे हैं।

अन्य विकसित लोकों में निवास करने वाले प्राणी कैसे होंगे? इस संदर्भ में कितने ही अन्तरिक्ष विज्ञानियों ने कई तरह की सम्भावनायें व्यक्त की हैं फिर भी उन्हें विश्वास यही है कि प्राणी सुविधाजनक शारीरिक स्थिति प्राप्त करने के लिए विकसित लोकों के प्राणियों को लगभग मनुष्य जैसी ही इन्द्रियों से सुसम्पन्न शरीर मिला होगा।

‘मनुष्य के निवास योग्य ग्रह’ पुस्तक के लेखक स्टीफन एच. डॉल ने कुछ ठोस प्रमाणों के आधार पर यह प्रतिपादित किया है कि हमारी मंदाकिनी आकाश गंगा में ग्रहों की संख्या साठ करोड़ है। इनमें से कम से कम पचास ग्रह ऐसे अवश्य हैं जिनमें मनुष्य जैसे बुद्धिमान प्राणियों के निवास की परिस्थितियाँ मौजूद हैं। इतने ग्रह तो एक सौ प्रकाश वर्ष की दूरी के भीतर ही होने चाहिए।

फिर आकाश गंगाओं की संख्या भी अभी तक पूरी तरह नहीं जानी जा सकी और उनके साथ जुड़े बँधे ग्रह उपग्रह और नक्षत्रों का पूरा अनुमान कैसे हो सकता है। फिर भी वह संख्या बहुत बड़ी है। यदि ये और माना जाये कि प्रत्येक प्रकाश गंगा के करोड़ों ग्रहों में यह पचास-पचास भी जीवनधारी ग्रह हों तो उनकी संख्या मिलकर भी करोड़ों हो जाती है। जीवन अकेली पृथ्वी पर है अन्यत्र नहीं, यह सोचना गलत है। जिन परिस्थितियों ने पृथ्वी पर जीवन उत्पन्न किया वे और भी अच्छी स्थिति में अन्य लोकों में हो सकती हैं और वहाँ के प्राणी और भी अधिक विकसित स्थिति में हो सकते हैं। शारीरिक दृष्टि से भी और मानसिक दृष्टि से भी।

अमेरिकी खगोल वेत्ता हारली पैपलो ने तथा स्टीफन ने उन अन्य लोकवासी जीवों की शारीरिक और मानसिक स्थिति की जो कल्पना की है उसके अनुसार यह आवश्यक नहीं कि उनकी आकृति प्रकृति मनुष्य जैसी ही हो। पर वे सोचते हैं कि किसी बुद्धिमान जीव को अपनी बुद्धिमत्ता और सक्रियता से यदि उपयुक्त काम लेना हो तो उसे अनुकूल शरीर जरूर चाहिए। यदि चेतना और आकाँक्षा प्रबल हुई तो अनागत क्रम की शरीर रचना में वे अभीष्ट परिवर्तन भी कर सकते हैं। जैसा कि धरती के मनुष्यों ने आदिम काल की तुलना में अब तक शरीरों में बहुत परिवर्तन कर लिया और विज्ञान की प्रगति के साथ-साथ उसे और भी अधिक परिवर्तन करने होंगे।

आँखें ज्ञान उपार्जन का सबसे बड़ा स्रोत हैं। यही बात दूसरी ज्ञानेन्द्रियों के सम्बन्ध में भी है। कान, जीभ, नाक भी जीवन व्यवस्था की दृष्टि से आवश्यक अंग हैं। इन्हें मस्तिष्क के पास ही होना चाहिए। यदि वे दूर होते हैं तो मस्तिष्क तक उनके ज्ञान तन्तुओं को समाचार पहुँचाने और संकेत प्राप्त करने में बहुत देर लग जायेगी और जीवन क्रम में भारी असुविधा उत्पन्न होगी।

यदि आँख, कान आदि इन्द्रियाँ घुटनों के पास हों तो अब मस्तिष्क को स्थिति समझने और सँभालने में जितनी देर लगती है उसकी अपेक्षा तीस गुनी देर लगा करे। फिर प्राणी की स्फूर्ति और तत्क्षण दृश्यमान होने वाली चेतना बहुत हलकी पड़ जाय और उसे मन्दचर की तरह काम करना पड़े। इसलिए अन्य ग्रह निवासियों की शरीर रचना में और कोई अन्तर हो सकता है पर सिर की स्थिति मनुष्यों जैसी ही होगी। हाँ विकसित जीवों के एक तीसरा नेत्र सिर के पिछले भाग में और हो सकता है जिससे वह ऊपर तथा पीछे की वस्तुओं को भी देख सकें और अचेतन मन को प्रसुप्त पड़े रहने देने की अपेक्षा वह उससे भी अधिक काम ले सकें।

यदि उस ग्रह का वायुमण्डल भारी होगा तो नथुने और मुंह के छेद छोटे होंगे ताकि अधिक मात्रा में हवा एक साथ प्रवेश कर पाये। हलका वायुमण्डल हुआ तो जीव बहुत लम्बे और पतले होंगे और भारी रहने पर वे ठिगने, चपटे तथा गेंडे जैसी मोटी चमड़ी के रहेंगे।

हार्वर्ड विश्वविद्यालय के नेतृत्व वेत्ता विलियम हैकिल्ज का कथन है कि विकसित स्तर के प्राणियों के लिए किसी ग्रह पर चार परिस्थितियाँ आवश्यक हैं 1- सन्तुलित गुरुत्वाकर्षण 2-वायुमण्डल 3 तापमान 4-पानी और थल। यह चारों बातें जहाँ सन्तुलित होंगी वहाँ बुद्धिमान प्राणधारी का गुजारा हो सकेगा। यों जीवन मात्र तो सूर्य जैसे तापमान और प्लेटो जैसे अति शीत ग्रह पर भी पाया जा सकता है पर वह बुद्धियुक्त न होगा। बुद्धिमान जीवन के शरीर में अस्थि पिञ्जर, रक्त सञ्चार और नाड़ी संस्थान की अति आवश्यकता रहेगी भले ही उनका गठन मनुष्य की अपेक्षा दूसरे क्रम से हुआ हो। इन्द्रियों की शक्ति के बारे में भी भिन्नता हो सकती है। जैसे हम लोग शब्द ध्वनियों को सुनते भर हैं पर वे सुनने की अपेक्षा उन्हें देखें अथवा चमगादड़ की तरह छूकर अनुभव कर लिया करें। मस्तिष्क संरचना विकसित स्तर की होने पर ही प्राणी प्रगतिशील हो सकता है। इसी प्रकार सृजन प्रजनन की दृष्टि से लिंग भेद होना जरूरी नहीं जिस तरह पौधे पराग का प्रत्यावर्तन करके प्रजनन करते रहते हैं उसी प्रकार उन जीवों में बिना स्त्री पुरुष का झंझट हुए अन्य सरल विधियों से वंश परम्परा चलती रह सकती है ।

उन जीवों के हाथ-पैर जरूर होंगे क्योंकि इनके बिना कुछ महत्वपूर्ण कार्य नहीं हो सकते। उँगलियाँ भी जरूरी हैं। हो सकता है किन्हीं लोकों में चार हाथ वाले जीव हों और वे हम लोगों की अपेक्षा अधिक मात्रा में और अधिक तरह के काम एक साथ कर सकें। देवताओं के चार हाथ मानने का कारण यह है कि उनका कर्तृत्व सामान्य मनुष्यों की तुलना में कम से कम दूना तो होना ही है। विकसित प्राणी थलचर ही होंगे क्योंकि जलचरों की अधिकाँश शक्ति तैरने में और पक्षियों को उड़ने में खर्च हो जाती है फिर उसके पास इतना शक्ति कोप नहीं बचता कि जीवन विकास के लिए कोई बड़े कदम बढ़ा सकें। यदि उन लोकों में अमोनिया तत्व अधिक हों तो बिना पानी के भी काम चल सकता है। रसायन शास्त्री जे.वी.एस. हान्डेन के प्रयोगों से यह सिद्ध है कि पृथ्वी निवासी जीवों की शरीर रचना के विकल्प में एक दूसरी पद्धति भी हो सकती है कि सिलिकॉन और वोरोन नाइट्रोजन के संयोग से जीवाणुओं की संरचना हो और उनके लिए पानी की आवश्यकता तरल अमोनिया कर सकता है । पृथ्वी के आदि काल में यही स्थिति थी। तब नाइट्रोजन के अभाव में पानी की कमी की पूर्ति अमोनिया ही करता था ।

शरीर रचना की दृष्टि से मनुष्य में और अन्य लोक वासियों में भारी अन्तर हो सकता है। उनके आहार विहार और समाज गठन में भी अन्तर हो सकता है। पर एक समानता समस्त ब्रह्माण्ड वासियों में पाई जायगी वह है अपने कर्त्तव्य एवं उत्तरदायित्वों को समझना और दूसरों के साथ स्नेहसिक्त उदार व्यवहार करना।

लोकान्तर निवासी प्राणी यदि समुन्नत होंगे तो उन्हें मनुष्य जैसा शरीर मिला होगा और उन्हें मानवीय आदर्शों के अनुरूप अपनी गतिविधियों का निर्माण करना पड़ रहा होगा। इस मनुष्य लोक के निवासी भी यदि समुन्नत बनना चाहेंगे तो उन्हें भी इस सुविधाजनक शरीर के साथ जुड़े हुए आदर्शवादी दृष्टिकोण, क्रिया-कलाप और उत्तरदायित्व को भी अपनाना होगा।


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