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November 1972

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जो कुछ सुन्दर और कल्याणमय है उसके साथ यदि हृदय की समीपता बढ़ाते रहें तो संसार सत्य और पवित्रता की ओर अग्रसर होगा।

-प्रसाद

कोलाहल और वायुप्रदूषण जीवनी शक्ति घटाने के दो और भी प्रबल कारण हैं जो धनी आबादी में रहने के कारण सामान्य संयमी, सन्तुलित जीवन जीने वालों पर भी अपना बुरा प्रभाव छोड़े बिना नहीं रहते। सड़कों पर दौड़ने वाले द्रुतगामी वाहन, रेलें, कारखानों की मशीनें, वार्तालाप, लाउडस्पीकर इन सबसे मिलकर बड़े नगरों में कोलाहल का भयावह अम्बार आकाश में छाया रहता है। कान से प्रत्यक्ष सुनाई पड़ना ही आवश्यक नहीं, रेडियो सक्रियता की तरह खुले कान से या खुली आँख से अनुभव में न आने पर भी यह कोलाहल उत्तेजित ध्वनि कम्पनों के रूप में घुमड़ता है और मस्तिष्क के अन्तः तन्तुओं से टकराकर उन्हें उत्तेजित किये रहता है। यह अदृश्य उत्तेजना कई घण्टों शारीरिक श्रम करने के बराबर शक्ति खा जाती है और उसका बुरा प्रभाव शरीर से भी अधिक मस्तिष्क पर पड़ता है। कहना न होगा कि उत्तेजित और उद्विग्न मस्तिष्क मानसिक स्वास्थ्य को ही नहीं शारीरिक स्वास्थ्य को भी नष्ट करने का एक बहुत बड़ा कारण है। यह शारीरिक मानसिक क्षति जो मोटे तौर पर ‘थकान’ के रूप में दीखती है, बड़े नगरों में कोलाहल पूर्ण वातावरण के कारण भी उत्पन्न होती है।

कोलाहल के अतिरिक्त दूसरा शहरी अभिशाप है-वायु दूषण -घुटन। इन दिनों औद्योगिक विकास के लिये लगे हुये बड़े बड़े कारखाने वायुमण्डल को बुरी तरह विषाक्त करते हैं। उनमें उड़ता हुआ धुआँ तो आँखों से भी देखा जा सकता है। इसके अतिरिक्त अदृश्य विषाक्त गैसें इतनी अधिक निकलती हैं जो धुएँ से भी अधिक खतरनाक और अधिक मात्रा में होती हैं। मोटरें और रेलें शोर ही नहीं करतीं उनमें जो तेल, कोयला जलता है वह वायुमण्डल के प्राणप्रद तत्वों को नष्ट और उसे विष से भर देने में विघातक सिद्ध होता है। वायु दूषण की घुटन आरम्भ में नाक और फेफड़ों को अनुभव होती है। पीछे अभ्यास में आ जाने पर उन्हें भी वह वातावरण अखरता नहीं। पर इससे क्या? प्रकृति की सूक्ष्म सम्वेदन शक्ति तो यथावत काम करेगी ही- उसे तो मजबूर नहीं किया जा सकता, कोलाहल और घुटन उत्पन्न तो मनुष्य कर सकता है पर उसके दुष्परिणामों से बचने में सर्वथा असहाय असमर्थ है। इसका दण्ड यदि उसे ‘थकान’ के रूप में भुगतान पड़े तो उसे अप्रत्याशित नहीं समझना चाहिए ।

बोस्टन की ‘मनोविज्ञान शोध संस्था’ के अधिकारी श्री एफ.एन. ऐलन का कथन है- ओछापन, संकीर्णता, खुदगर्जी और असामाजिक स्वभाव के लोग अपनी ही उधेड़ बुन में लगे रहते हैं। दूसरों के दुःख दर्द में हिस्सा नहीं बटाते-औरों की खुशी में सम्मिलित नहीं होते। अपने अभाव और दूसरे के दुर्व्यवहार का ही हिसाब लगाते रहते हैं। फलस्वरूप उनका मानसिक संस्थान अवसाद ग्रस्त हो जाता है। उस स्थिति को चिकित्सा शास्त्री ‘डिप्रेशन’ कहते हैं। थकान के कारण डिप्रेशन तो कठोर शारीरिक श्रम करने वालों को हो सकता है पर सरल और सुविधा की स्थिति रहने पर भी थकान आती है उसका बहुत बड़ा कारण मानसिक अवसाद-डिप्रेशन है। इन दिनों मनुष्य ओछा-स्वार्थी और संकीर्ण एवं असामाजिक होता जाता है। उसकी हँसी-खुशी का दायरा बहुत छोटा हो गया है फलस्वरूप वह अपने आपको एकाकी, असहाय, दुःखी, निराश एवं उद्विग्न अनुभव करता है। इसे उदात्त आध्यात्मिक दृष्टिकोण का, सामाजिकता का अभाव ही कहना चाहिए। यह मानसिक रुग्णता मनुष्य को नशा पीने- अपराध करने- या आत्म हत्या जैसे क्रूर कर्म करने के लिये प्रेरित करती है। ऐसे ही लोग नशा पीकर कुछ समय के लिये अपने आन्तरिक अवसाद से राहत पाने का रास्ता खोजते हैं। थकान तो उन पर छाई ही रहती है।

इस थकान जन्य विभीषिका से बचने के लिये सरल उपाय नहीं मिल सकता। दवादारु इस सम्बन्ध में कोई स्थाई हल नहीं दे सकती। शहरों की चकाचौंध भरी तथाकथित सभ्यता के आकर्षणों से मुँह मोड़कर हमें देहाती और सरल जीवन पद्धति अपनाने के लिये प्रकृति की ओर पीछे लौटना चाहिये। बाबूगीरी, अमीरी, साहबी के ऐयाशी, शान शौकत के भ्रम जञ्जाल में फँसकर अपनी मानसिक शान्ति और शारीरिक स्फूर्ति का बलिदान करने से इनकार कर देना चाहिए। स्फूर्ति को लेकर हर्षोल्लास भरा- सरल और शान्त- निरोग और लम्बा जीवन जिया जाय। सामाजिक और उदात्त दृष्टिकोण और नैतिक एवं लोकोपयोगी क्रियाकलाप अपनाया जाय।

चिंगारी की तरह चुपके चुपके सब कुछ जला डालने वाली थकान की बीमारी को छोटा न समझा जाय। उससे पिण्ड छुड़ाने के लिये दवादारु की मृगतृष्णा में न भटका जाय वरन् जीवनयापन के क्रिया-कलाप में आमूलचूल परिवर्तन किया जाय, सुविधापूर्ण स्थिति में रहने वाले के लिए इसी में बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता है।


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