कुण्डलिनी जागरण से अनेक देवताओं का उद्भव

November 1972

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मोटे तौर पर मनुष्य शरीर पंच तत्वों का -सप्त धातुओं का बना परिलक्षित होता है। अन्न जल पर उसका निर्वाह चलता प्रतीत होता है पर यदि तात्विक सूक्ष्म दृष्टि से देखा जाय तो उसमें विश्व ब्रह्माण्ड में संव्याप्त समस्त जड़ चेतना शक्तियों के बीज विद्यमान दिखाई देंगे। जो कुछ इस विराट् विश्व में है उसका छोटा रूप अपने भीतर बहुत ही सुव्यवस्थित रीति से सँजोया हुआ है। यदि उन बीजों का ठीक तरह सिंचन पोषण किया जा सके तो उसका विस्तार इतने बड़े विशाल वृक्ष के रूप में हो सकता है कि आश्चर्य चकित रह जाना पड़े।

अपने भीतर सभी देवता, सभी दिव्य लोक, सभी सिद्ध पुरुष, सभी ऋषि, सभी तीर्थ, सभी सिद्धियाँ तथा जो कुछ श्रेष्ठ उत्कृष्ट है उसके अंकुर यथास्थान बोये उगाये हुए मौजूद हैं। आवश्यक केवल उनमें खाद पानी देने की, अनुकूलता प्रस्तुत करने की है। देखते देखते वे विकसित, पल्लवित और फल-फूलों से सुसज्जित हो सकते हैं।

साधना का प्रयोजन अपने भीतर की महानता को विकसित करना ही है। बाहर व्यापक क्षेत्र में भी देव शक्तियाँ विद्यमान हैं पर उनके लिए समष्टि विश्व की देखभाल का विस्तृत कार्य क्षेत्र नियत रहता है। व्यक्ति की भूमिका के अनुरूप प्रतिक्रिया उत्पन्न करने- सफलता और वरदान देने का कार्य उनके वे अंश ही पूरा करते हैं जो बीज रूप में हर व्यक्ति के भीतर विद्यमान हैं। सूर्य का अंश आँख में मौजूद है। यदि आंखें सही हों तो ही विराट् सूर्य के प्रकाश से लाभ उठाया जा सकता है। अपने कान ठीक हों तो ही बाहर के ध्वनि प्रवाह की कुछ उपयोगिता है। इसी प्रकार अपने भीतर के देव बीज यदि विकसित परिष्कृत हों तो उनके माध्यम से विश्वव्यापी देवतत्वों के साथ सम्बन्ध जोड़ना, आकर्षित करना और उनका सहयोग अनुग्रह प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकता है।

कुण्डलिनी जागरण की साधना पद्धति का प्रयोजन अपने भीतर के देव अंशों को विकसित और परिपुष्टि बनाना है। कैलाश पर्वत पर सर्पों का यज्ञोपवीत धारण करके विराजमान शिव और क्षीर सागर में शेष नाग पर सोये हुए विष्णु का बीजाँश हमारे मस्तिष्क मध्य केन्द्र-ब्रह्मरंध्र में यथावत् विद्यमान है। इस स्थान को ‘सहस्रार’ कहते हैं। महाकाली-अग्नि जिह्वा चामुण्डा का बीजाँश जननेन्द्रिय गह्वर-’मूलाधार’ में विद्यमान है। इन दो शक्तियों के असम्बन्ध बने रहने पर केवल उनकी उपस्थिति का आभास मात्र ही होता है पर जब उन दोनों का संगम समागम हो जाता है तो अजस्र शक्ति की एक ऐसी धारा प्रवाहित हो उठती है जिसे अनुपम या अद्भुत ही कहा जा सकता है।

जब वर्षा ऋतु आती है तो सूखे बीहड़ भी हरियाली से भर जाते हैं। ग्रीष्म ऋतु में जिनका कोई अस्तित्व दृष्टि गोचर नहीं होता था, ऐसे दबे हुए बीज भी उपज पड़ते हैं और ऐसा लगता है कि मानो किसी चतुर माली ने विभिन्न प्रकार की वनस्पतियाँ, पुष्प गुल्म, लता वल्लरियाँ विधिवत आरोपित की हैं। कुण्डलिनी साधना की सफलता को पावस का आगमन कह सकते हैं। मनुष्य शरीर एक विशाल उर्वर भूखण्ड कहा जा सकता है। इसमें एक से एक बहुमूल्य बीज दबे पड़े हैं। वर्षा न होने तक उनका अस्तित्व छिपा पड़ा था पर जैसे ही पानी बरसा कि वे सभी प्रकट होकर अपनी शोभा सुषमा दिखाने लगते हैं। साधारणतया जिन विशेषताओं और विभूतियों का किसी को भान भी नहीं होता वे इस पावस में अनायास ही अंकुरित और पल्लवित होने लगते हैं।

आत्म वेत्ताओं ने मानव काया के तीन परतों में- स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों में एक से एक अद्भुत देवाँश खोजा है। शक्ति बीजों की प्रचुर मात्रा उन्हें दृष्टि-गोचर हुई है। विराट् में सन्निहित सब कुछ उन्होंने इसी छोटे से कलेवर में सारभूत विद्यमान पाया है। इसलिए उन्होंने अपने अन्तरंग में ही देव साधना का विधान अधिक महत्वपूर्ण माना है। यों देव मन्दिरों में तथा लोक-लोकान्तरों में भी देव शक्तियाँ संव्याप्त हैं, पर जितनी समीप और जितनी सजीव अपने अन्तरंग में हैं-उतनी अन्यत्र नहीं। जितनी सुविधापूर्वक उन्हें अपने भीतर पाया जा सकता है-उतनी सरलता और सफलता अन्यत्र नहीं मिल सकती। कुण्डलिनी विद्या की साधना अन्तरंग क्षेत्र में ही करनी पड़ती है और उसकी सफलता जब मेघ मालाओं की तरह बरसती है तो अगणित दिव्य विभूतियाँ स्वयमेव प्रस्फुटित और पल्लवित होती हैं। अन्तरंग में कहाँ क्या है इसका वर्णन देखिए-

देहेऽस्मिन् वर्तते मेरुः सप्तद्वीपसमन्वितः।

सरितः सागराः शैला क्षेत्राणि क्षेत्रपालकाः॥

ऋषयो मुनयः सर्वे नक्षत्राणि ग्रहास्तथा।

पुण्यतीर्थानि पीठानि वर्तन्ते पीठदेवता॥

-शिव संहिता 2।1।2

इसी शरीर में सुमेरु, सप्तद्वीप तथा समस्त सरिताएं, सागर, पर्वत, क्षेत्र, क्षेत्रपाल, ऋषि, मुनि, नक्षत्र, ग्रह, तीर्थ, पीठ, देवता, निवास करते हैं।

अस्थिस्थाने महेशानि जम्बुद्वीपो व्यवस्थितः।

माँसेषु च कुशद्वीपः क्रौञ्चद्वीपः शिरासु च॥

शाकद्वीपः स्मृतो रक्ते प्राणिनाँ सर्वसन्धिषुँ।

तदूर्ध्वं शाल्मलीद्वीपः प्लक्षश्च लोमसञ्चये॥

नाभौ च पुष्करद्वीपः सागरस्तदनन्तरम्।

लवणोदस्तथा मूत्रे शुक्रे क्षीरोदसागरः॥

मन्जा दधिसमुद्रश्च तदूर्ध्वं घृतसागरः।

वसापः सागरः प्रोक्त इक्षु स्यात्कटिशोणितम्॥

शोणिते च सुरासिन्धुः कथिताः सप्तसागराः।

-महायोग विज्ञान

अस्थि स्थान में जम्बूद्वीप, माँस में कुश द्वीप, शिराओं में क्रौञ्च द्वीप, रक्त में शाक द्वीप, त्वचा में शल्मिली द्वीप, लोभ समूह में प्लक्ष द्वीप, नाभि में पुष्कर यह सातों द्वीप इस शरीर में ही विद्यमान है।

इसी प्रकार इस काया में सात समुद्र भी हैं। मूत्र में लवण सागर, शुक्र में क्षीर सागर, मज्जा में दधि सागर, मेद में घृत सागर, नाभि में इक्षु सागर, रक्त में सुरा सागर अवस्थित हैं।

श्री पर्वतं शिरःस्थाने केदारं तु ललाटके।

वाराणसी महाप्राज्ञ भ्रु वोर्घ्राणस्य मध्यमे॥

कुरुक्षेत्रं कुचस्थाने प्रयागं हृत्सरोरुहे।

चिदम्बरं तु हृन्मध्ये आधारे कमलालयम्॥

आत्मतीर्थं समुत्सृज्य बहिस्तीर्थानि यो ब्रजेत्।

करस्थं स महारत्नं त्वक्त्वा काचं विमार्गते॥

भावतीर्थं परं तीर्थं प्रमाणं सर्वंकर्मसु।

-जावाल दर्शनोपनिषद् 4।48

इसी मनुष्य देह में सात तीर्थ हैं मस्तक में श्री शैल, ललाट में केदार, नासिका और भौंहों के बीच काशी, स्तनों में कुरुक्षेत्र, हृदय में प्रयाग, मूलाधार में कमलालय तीर्थ विद्यमान है। जो इन आत्म तीर्थों को छोड़कर बाह्य तीर्थों में भटकता है, वह रत्न छोड़कर काँच ढूँढ़ते फिरने वालों की तरह है।

गंगा सरस्वती गोदा नर्मदा यमुना तथा।

कावेरी चन्द्र भागा च वितस्ता च इरावती॥

द्विसप्तति सहस्रेषु नदी नद परिस्रवाः।

इतस्ततो देह मध्ये ऋक्षाश्च पंज विंशतिः॥

योगाश्च राशयश्चैव ग्रहाश्च तिथयस्तथा।

करणानि च वाराश्च सर्वेषाँ स्थापनं तथा॥

सर्वांगेषु च देवेशि समग्रमृक्षमण्डलम्।

त्रयास्त्रशत्कोटयस्तु निवसन्ति च देवताः॥

-महायोग विज्ञान

इसी शरीर में समस्त तीर्थ और देवताओं का निवास है। गंगा, यमुना, सरस्वती, गोदावरी, नर्मदा, सिन्धु, कावेरी, चन्द्रभागा, वितस्ता, इरावती, यह प्रमुख नदियाँ तथा बहत्तर हजार छोटी नदियाँ यह बड़ी और छोटी नदियों के रूप में प्रवाहित हो रही हैं।

ऐसे ही इस शरीर में पन्द्रह तिथियाँ, सात बार, सत्ताईस नक्षत्र, बारह राशि, अट्ठाईस योग, सात करण, नवग्रह उनके उपग्रह, नक्षत्र मंडल तथा तेतीस कोटि देवता इसी शरीर में विराजमान हैं।

चक्रमध्ये स्थिता देवाः कम्पन्ति वायुताडनात्।

कुण्डल्यपि महामाया कैलासे सा विलीयते॥

-शिव संहिता 4।46

प्राण वायु की ताड़ना से चक्रों के मध्य में अवस्थित देवता जागृत होते हैं और माया कुण्डलिनी कैलाश मस्तक में जा पहुँचती है।

ब्रह्मणो हृदसस्थानं कण्ठे विष्णुः समाश्रितः।

तालुमध्ये स्थितो रुद्रो ललाटस्थो महेश्वरः॥

ब्रह्मा का स्थान हृदय, विष्णु का कण्ठ और रुद्र का तालु में और ललाट में सर्वेश्वर का स्थान है।

मनुष्य के भीतर ही समस्त तीर्थ विद्यमान हैं। यदि कुण्डलिनी विद्या द्वारा आत्म साधना करली जाय तो यह काया ही समस्त तीर्थों का संगम बन सकती है और तीर्थ-यात्रा का जो माहात्म्य बताया है वह अनायास ही मिल सकता है। इड़ा, पिंगला, सुषुम्ना की तीर्थराज प्रयाग में गंगा, यमुना, सरस्वती के संगम की उपमा दी है और पुण्य फल अनन्त बताया है।

इड़ायाँ यमुना देवी पिंगलायाँ सरस्वती।

सुषुम्णायाँ वसद् गंगा तास्तं योगस्त्रिधा भवेत्॥

संगता ध्वज भूले च विमुक्ता भ्रू वियोगतः।

त्रिवेणी योगः संप्रोक्ता तत्र स्नानं महाफलम्॥

-षट्चक्र निरूपणम्

इड़ा नाड़ी यमुना, पिंगला सरस्वती और सुषुम्ना गंगा है। यही योग त्रिवेणी है। उनका मूलाधार से और वियोजन मध्य में होता है। इस योग त्रिवेणी के संगम का महाफल है।

इड़ा भागीरथी गंगा पिंगला यमुना नदी।

इड़ापिंगलयोर्मध्ये सुषुम्ना च सरस्वती॥

त्रिवेणी संगमो यत्र तीर्थराजः स उच्यते।

तासाँ तु संगमे स्नात्वा धन्यो याति पराँ गतिम्॥

इडासुषुम्णे शुभतीर्थकेऽस्मिन्,

ज्ञानाम्बुपूर्णा बहतः शरीरे॥

ब्रह्माम्बुभिः स्नातितयोः सदा,

यः किन्तस्य गांगैरपि पुष्करैर्वा॥

-महायोग विज्ञान

इड़ा गंगा और पिंगला यमुना के बीच सरस्वती रूपी जो सुषुम्ना बहती है, उनके संगम में स्नान करने वाला धन्य हो जाता है और परमगति पाता है।

इड़ा पिंगला और सुषुम्ना इनका संगम शिव तीर्थ है। इनके ज्ञान रूपी ब्रह्म जल में जो स्नान करते हैं। उनके लिए बाह्य नदी सरोवरों तथा तीर्थों का क्या प्रयोजन?

इड़ा हि पिंगला ख्याता वरणासीति होच्यते।

वाराणसी तयोर्मध्ये विश्वनाथोऽत्र भाषितः॥

एतत् क्षेत्रस्य माहाम्यमृषिभिस्तत्त्वदर्शिभिः।

शास्त्रेषु बहुधा प्रोक्तं परं तत्त्वं सुभाषितम्॥

-शिव संहिता 5।126-127

इड़ा नाड़ी को वरणा और पिंगला को असी कहते हैं। इन दोनों के बीच स्वयं विश्वनाथ विराजमान हैं। यही वाराणसी है।

इसी वाराणसी का महात्म्य तत्वदर्शी ऋषियों तथा शास्त्रों ने गाया है और उसे ही परम तत्व कहा है।

आज्ञापंकजदक्षाँसाद्वामनासापुटं गता।

उदग्वहेति तत्रेडा गंगेति समुदाहृता॥

-शिव संहिता 5।232

आज्ञा चक्र के दाहिने भाग में बाई ओर को जाने वाली इड़ा नाड़ी को ही गंगा कहते हैं।

‘कारण शरीर’ का देवता ब्रह्मा-’सूक्ष्म शरीर’ का अधिपति विष्णु और ‘स्थूल शरीर’ का अधिष्ठाता शिव है। यह अधिष्ठाता देव सामान्य व्यक्तियों के जीवन में गाँठ की तरह बँधे हुए एक कोने में पड़े रहते हैं। पर जब कुण्डलिनी जागरण की तीन अग्नियाँ प्रज्वलित होती हैं तो उनका प्रभाव तीनों शरीरों पर पहुँचता है और उनके प्रसुप्त तीनों देवता सजग, सक्षम, सक्रिय होकर अपना प्रकाश एवं प्रभाव प्रदर्शित करने लगते हैं। जिन तीन शरीरों का साधारणतया आभास अनुभव भी नहीं होता वे अपने अधिष्ठाता देवताओं के जागृत होने पर स्थूल शरीर से भी अधिक प्रत्यक्ष एवं समर्थ दिखाई देने लगते हैं। ब्रह्म ग्रन्थि-विष्णु ग्रन्थि और रुद्र ग्रन्थि के खुल जाने से समस्त अभावों और शोक सन्तापों के भव-बन्धनों से भी छुटकारा मिल जाता है और साधक की प्रतिभा में देवत्व का प्रकाश स्पष्ट परिलक्षित होता है।


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