मन को शासक नहीं, सेवक बनाया जाय।

November 1972

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मन हमारे शासक और सेवक के दोनों काम कर सकता है। यदि हम उसे ढीला छोड़ दें, स्वच्छन्द विचरने दें, उसके कहने पर चलें और अपना आत्म-समर्पण उसे करदें तो मन शासक है। इसके विपरित यदि हम उसे कसे रहें, नियन्त्रण में रखें, अभीष्ट मार्ग पर चलायें, आदेश दें और उसे उपकरण या वाहन की तरह इस्तेमाल करें तो वह सेवक है। शासक की दृष्टि से वह बुरा शासक है अपना भी नाश करता है और अपने प्रदेश-शरीर-प्रजा कायिक उपकरणों का भी सत्यानाश करके रख देता है। ऐसे चंचल मर्कट को शासक नियुक्त करने की जो भी भूल करेगा पछताएगा। पर वह सेवक के स्थान पर बहुत ही उपयुक्त, योग्य, सामर्थ्यवान् कुशल, सब कुछ है। इससे बढ़िया, सस्ता, अहर्निशि, साथ रहने वाला, वफादार नौकर इस दुनिया में और मिल ही नहीं सकता, हो ही नहीं सकता।

मन की खुराक दो हैं। आहार और विहार। जैसा हम अन्न खाते हैं उसका स्थूल रूप शरीर के उपयोग में आता है और सूक्ष्म भाग मन की खुराक बन जाता है। प्रोटीन, स्टार्च, शर्करा, खनिज, विटामिन, वसा, हाइड्रो कारर्बोट्रेट आदि तत्वों के सन्तुलन पर शारीरिक खुराक की उत्कृष्टता निकृष्टता रहती है। खराब भोजन हमें दुर्बल और रुग्ण करता है, अच्छा भोजन निरोग और बलिष्ठ। आहार का सूक्ष्म भाग उसके साथ अविच्छिन्न रूप में जुड़ी हुई सात्विकता है। मिर्च, मसाले, तले, भुने, नशीले पदार्थ तामसिक हैं, यह गुण मन को प्रभावित करता है और ऐसा आहार करने वाले, क्रोधी तामसी, कामुक, चंचल और पतनोन्मुख प्रवृत्तियों से घिर जाते हैं। बेईमानी से, दूसरों को दुःख या धोखा देकर, अनीति पूर्वक, बिना परिश्रम कमाया हुआ पैसा जब पेट में जाता है तो उससे मन अतीत उच्छृंखल, उद्दण्ड हो जाता है। तब वह न शास्त्र की बात मानता है और न सन्त की। अपनी तानाशाही चलाता है और सर्वनाश करने वाले नृशंस शासक का घिनौना उदाहरण प्रस्तुत करता है।

पोषण का दूसरा माध्यम है विहार। जल वायु, वस्त्र निवास, सोना, उठना, श्रम विनोद, संयम, स्वच्छता, संगति, परिस्थिति, वातावरण आदि की मिली-जुली व्यवस्था को विहार कहते हैं। इन बातों का शारीरिक स्वास्थ्य पर बहुत प्रभाव पड़ता है। अवाँछनीय विहार करने वाले उच्छृंखल लोग कभी स्वस्थ नहीं रह सकते। अकेला आहार अच्छा होने से ही काम नहीं चलता, विहार भी ठीक होना चाहिए तभी गाड़ी के दोनों पहिये ठीक तरह लुढ़केंगे और स्वास्थ्य ठीक रहेगा।

विहार का सूक्ष्म रूप भी है जो मन का पोषण करता है। यह है काम करते समय रखा जाने वाला दृष्टिकोण। सामान्य जीवनयापन भी उच्च दृष्टिकोण युक्त हो सकता है और उसी को निकृष्ट भावना से किया जा सकता है। काम का बाहरी स्वरूप एक जैसा रहते हुए भी उसका सूक्ष्म प्रभाव सर्वथा, विपरीत होगा और मन का पोषण उसी एक जैसे काम से भिन्न व्यक्तियों को भिन्न प्रकार का मिलेगा।

काम सेवन-इन्द्रिय लिप्सा के लिए या समाज को सुयोग्य नागरिक प्रदान करने के लिए, इन दोनों दृष्टिकोण में जीवन आसमान का अन्तर है। पत्नी नौकरानी, चौकीदारिन, महाराजिन और काम पिपासा एवं मनोरंजन के लिए अथवा जीवन सहचरी, धर्म पत्नी का प्रयोजन पूरा करने के लिए? विवाह दाम्पत्य जीवन एक समान रहते हुए भी दोनों की दिशायें विपरीत हैं। एक दृष्टिकोण से किया गया विवाह मनुष्य को सदा असन्तोष और संताप ही देता रहेगा, दूसरे दृष्टिकोण से बनाया गया दाम्पत्य जीवन एक वरदान की तरह प्रतीत होगा।

जीवन के लिए भोजन अथवा भोजन के लिए जीवन इनकी प्रतिक्रिया सर्वथा भिन्न होती है। दो व्यक्ति एक साथ-एक समय एक जैसा भोजन करते हैं। पर उनके परिणाम मन ऊपर भिन्न प्रकार की छाप डालते हैं। भोजन सम्बन्धी रुचि और मर्यादा में अन्तर उपस्थित करते हैं। खाते समय जो छाप मन पर पड़ती है उससे भारी अन्तर रहता है। भोजन को औषधि, ईश्वर का प्रसाद समझकर ग्रहण करने वाला व्यक्ति उसे अमृत समझकर श्रद्धा और प्रसन्नतापूर्वक उतनी मात्रा में खाता है जितना स्वास्थ्य के लिए आवश्यक है। वस्तुओं के चुनाव में उसे पोषक तत्वों और गुणों का ध्यान रहता है। जबकि भोजन के लिए जीने वाला, स्वाद के पीछे पड़ा रहता है। मनचाहा स्वाद न मिलने पर आहार को फेंके-फेंके फिरता है, नाक भों सिकोड़ता है और स्वादिष्ट वस्तु मिलने पर पेट में अधिक ठूँसता चला जाता है। ऐसा आहर मन पर कुत्सित प्रभाव ही डालेगा, उसे कुसंस्कारी ही बनायेगा।

व्यापार, कृषि, नौकरी आदि आजीविका के माध्यमों में दृष्टिकोण की भिन्नता रहती है। एक व्यक्ति इन माध्यमों से बिना नीति अनीति का विचार किये जितना भी जैसे भी सम्भव हो अधिक उपार्जन का प्रयत्न करता है। ग्राहक के, मालिक के, साथियों के अधिकारों का अपहरण करता है और किसी भी सूरत से अपनी सम्पन्नता बटोरने में लगा रहता है। दूसरा व्यक्ति दूसरों का प्रयोजन सिद्ध करने के लिए, फलस्वरूप निर्वाह की व्यवस्था रखने के लिए उपार्जन करता है। अपनी ही तरह वह उनके स्वार्थों का भी ध्यान रखता है जिनके माध्यम से वह आजीविका उपार्जित की गई। किसान है तो बैलों के, मजूरों के प्रति ईमानदारी और वफादारी बरतता है। व्यापारी है तो ग्राहक को ठगता नहीं, वरन् उसकी आवश्यकता का ध्यान रखते हुए अपने और दोनों के स्वार्थों में उचित समन्वय स्थापित करता है।

शिक्षा, विनोद, व्यायाम, मैत्री, खर्च, सम्भाषण, परामर्श, चिन्तन आदि सामान्य दैनिक कार्यों में वह औचित्य और मनुष्यत्व को बनाये रखता है। फलस्वरूप यही रोजमर्रा के काम एक प्रकार से योग साधना बन जाते हैं। इसका प्रभाव मानसिक स्थिति पर पड़ता है। यह विहार क्रम जिसे सात्विक मिला है उसका मन न कुमार्गगामी होगा न उच्छृंखल। वह उद्धत आचरण नहीं करता। जानता है मेरा अस्तित्व सेवा करना है। मुझे सेवक के रूप में बनाया गया है, मेरा कर्त्तव्य आत्मा की सहायता करना है। मुझे कोई ऐसा काम न करना चाहिए जिससे जीवात्मा के जीवन लक्ष्य में बाधा व्यवधान उत्पन्न होता है। ऐसा समझदार मन मर्यादा तोड़कर सेवक से शासक बनने का प्रयत्न स्वतः ही नहीं करता और उसके उच्छृंखल बनने की आशंका नहीं रहती।

मन पर देख-रेख न रखी जाय, उसे दुनिया की भेड़चाल में चलने दिया जाय तो वह भी अन्य चोर नौकरों की तरह भोले मालिकों की हजामत बनाने का ढर्रा अपना लेगा। यदि मालिक सावधान हो और यह जनता हो कि इस दुमुँहे सर्प को कैसे बरता जाय तो वह खतरे से बच जायेगा। सरकस और दर्शकों का मनोरंजन करता है पर यदि वह उजड्ड और अनियन्त्रित हो तो मालिकों से लेकर दर्शकों तक सभी के लिए संकट सिद्ध होगा। मन रूपी दुधारी तलवारों से जहाँ शत्रु को समाप्त किया जा सकता है वहाँ उलटा प्रयोग होने पर अपना भी सर्वनाश हो सकता है।

मन को साथ लिया जाय तो वह पारद से रसायन बनने की तरह उपयोगी भी अत्यधिक है। उसका कुसंस्कारी रूप तो विषैले पारे की तरह है जो जिस शरीर में भी जायेगा उसे तोड़-फोड़ कर बाहर निकलेगा। मन के निग्रह के लिए जहाँ उसे सत्परामर्श देना, समझाना बुझाना, मनन, चिंतन के आधार पर परिष्कृत करना, स्वाध्याय, सत्संग से सन्मार्गगामी बनाया जाना चाहिए वहाँ यह भी आवश्यक है कि उसके लिए आहार विहार की ऐसी व्यवस्था बनाई जाय जिससे वह स्वयं उच्छृंखलता छोड़कर शालीनता को स्वीकार करने के लिए सहमत हो जाय।

सतोगुणी, न्यायोपार्जित सज्जनों के सम्पर्क में बना हुआ आहार मन की सत्प्रवृत्तियों को उभारता है और हर कार्य में उदात्त दृष्टिकोण का समन्वय रखने से क्रिया कलाप की छाप मन पर ऐसी सुसंस्कार युक्त डालता है जिसे परिष्कृत विहार कहा जा सकेगा। शरीर को स्वस्थ रखने की तरह ही मन को सुसंस्कारी रखने के लिए भी उपयुक्त आहार-विहार की व्यवस्था रखी जानी चाहिए। तभी वह आत्मा का शासक बनने की कुचेष्टा न करके एक सदाचारी, सहयोगी की तरह सेवक बना रहने के लिए सहमत रह सकेगा।


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