प्रेमास्पद के चुनाव में सतर्कता बरतें।

November 1972

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प्रेम आत्मा की जागृति और उल्लास मय स्थिति का दृश्यमान स्वरूप है। जिसके अन्तःकरण में प्रेम की रस धारा का उद्भव नहीं हुआ, समझना चाहिए अभी वह भावना की दृष्टि से जड़ योनियों की स्थिति में ही पड़ा है। हलचल तो जड़ पदार्थों में भी होती है। पाषाण और धातुयें भी जन्म, यौवन और जरा के चक्र में बंधे रहते हैं पेड़ पौधे भी अनुकूल, प्रतिकूल परिस्थितियों में सुख-दुख अनुभव करते हैं। जड़ कहे जाने वाले पदार्थों में भी चेतना के चिह्न स्वल्प मात्रा में पाये जाते हैं। मनुष्यों में भी ऐसे ही ‘जड़’ हो सकते हैं जिनका शरीर और मन से बना काय कलेवर तो बहुत प्रकार की हलचलें करता हो पर भाव भूमिका प्रसुप्त, मूर्छित अथवा मृत अवस्था में पड़ी हो।

शरीर की दृष्टि से मृत वह कहा जायेगा जिसकी श्वास-प्रश्वास, रक्ताभिषरण, आकुञ्चन प्रकुञ्चन एवं धड़कन बन्द हो गई। किन्तु आत्मिक दृष्टि से मृत वह है जिसमें उच्चस्तरीय भावनाओं का अभाव है। इन्द्रियों के स्वाद, वासनात्मक अनुभूतियाँ शरीर को होती हैं। इन्हें प्राप्त करने की आतुरता में किन्हीं वस्तुओं की उपलब्धियाँ आवश्यक होती है और किन्हीं व्यक्तियों का सहयोग अपेक्षित होता है। इन्हें प्राप्त करने के लिये आतुरता का स्वरूप कई बार प्रेम जैसा दीखता है, पर वस्तुतः उस प्रयास में वैसा कुछ है नहीं।

प्रेम सदा आदर्शों के साथ जुड़ा होता है जबकि मोह जिसे दूसरे अर्थों में काय कलेवर की ललक लालसा भी कह सकते हैं, यह एक उफान मात्र है जो अभाव रहने तक ही उमड़ता है और प्राप्त होने के साथ ही तिरोहित हो जाता है। पर प्रेम अभाव और भाव दोनों ही स्थिति में एक समान बना रहता है। उसके व्यवहार स्वरूप तो बदलता है पर अन्तःस्थिति में कोई अन्तर नहीं आता। प्रेम पात्र के न मिलने पर छटपटाहट दर्द जैसी अनुभूति होती है और मिल जाने पर समर्पण की लय की उत्कंठा उमंगती है। अपने लिए प्राप्ति की आकाँक्षा न अभाव की स्थिति में होती है और न भाव की स्थिति में।

देखते हैं जड़ जगत के जड़ जीव जिनमें नर-पशु भी सम्मिलित हैं, मात्र मोह लिप्सा में जलन भर अनुभव कर पाते हैं उन्हें प्रेम के अमृत की एक बूँद भी उपलब्ध नहीं होती। बहुत करके प्रेम शब्द का प्रयोग तरुण नर-नारियों के बीच उत्पन्न यौन आकर्षण की आतुर मनः स्थिति के लिए किया जाता है। यह एक जड़ आकर्षण है। प्रकृति ने अपनी सृष्टि परम्परा को क्रमबद्ध रखने के लिये उभयलिंगी जीवधारियों को यौन आकर्षण के बन्धनों में बाँधा है। दुर्बल शिशु के पालन और संरक्षण के लिए माता में वात्सल्य को संजोया है। यह दोनों ही सामयिक है। तभी तक स्वाभाविक रहते हैं जब तक प्रकृति को सृष्टि परम्परा को इनकी आवश्यकता रहती है। वह प्रयोजन पूरा होते ही क्रमशः उस आकर्षण में शिथिलता आती है और अन्ततः उसकी समाप्ति भी हो जाती है। प्रेम का अन्त इस प्रकार की दुर्गति के साथ नहीं होता वह अपूर्णता को पूर्णता में परिणत करके ही दम लेता है।

ऋतु अवसर पर पशु नर मादाओं में जो आकर्षक आतुरता पाई जाती है वह समय निकलते ही समाप्त हो जाती है। छोटे बच्चे और मादा के बीच जो वात्सल्य रहता है वह बच्चे के बड़े होते ही दूसरा बच्चा सामने आते ही शिथिल एवं- समाप्त हो जाता है। नर-पशुओं में भी यह प्रवृत्ति उतनी क्षणिक तो नहीं होती पर उभार और शैथिल्य का क्रम निश्चित रूप से रहता ही है। प्रेयसी तभी तक अप्सरा लगती है, जब तक वह पत्नी नहीं बन जाती है। अभाव में उछल कूद करती हुई आतुरता भाव की उपलब्धि होते ही तिरोहित हो जाती है। उसमें ऐसे उफान आवेश भरे उतार-चढ़ाव आवें उसे प्रेम के पवित्र नाम से किसी भी प्रकार सम्बोधित नहीं किया जा सकता। उसे पशु प्रवृत्ति अब मोह, लिप्सा भर कहा जाना चाहिए।

प्रेम की चर्चा तरुण तरुणियों के बीच आकर्षण के आधार पर ही क्यों की जाय? दो वृद्ध पुरुषों में दो वृद्ध नारियों में, दो विवाहितों में- दो किशारों में भी तो प्रेम हो सकता है अथवा आयु की दृष्टि से असमान व्यक्तियों में भी वह परिलक्षित हो सकता है। तरुण और तरुणियों के बीच चलती हुई आकर्षण आतुरता में आमतौर से प्रकृति गत सृष्टि परम्परा जारी रखने की जैविक प्रेरणा भर रहती है, उसमें आत्मा के रस ‘प्रेम’ की झाँकी कभी कदाचित ही पाई जाती है। दुर्भाग्य यही है कि आज बेचारा ‘प्रेम’ शब्द इसी कीचड़ में पड़ा हुआ सड़ रहा है। फिल्म, उपन्यास, संगीत, शृंगार, नृत्य अभिनय से लेकर दैनिक व्यवहार में प्रेम की यही फूहड़ व्याख्या प्रस्तुत की जाती है। यही क्रम चला तो सम्भवतः कुछ समय में लोग यथार्थ प्रेम के स्वरूप से भी अपरिचित हो जायेंगे।

समझा जाना चाहिए कि प्रेम आत्मा की विकसित स्थिति की उल्लास अनुभूति है। वह आदर्शों पर ही आधारित रहती है। भौतिक स्वार्थ साधन के लिए जहाँ व्यक्तियों के बीच घनिष्ठता उभर रही हो उसे विशुद्ध ‘मोह’ कहना चाहिए। ऐसा मोह धूप छाँह जैसा क्षणिक होता है। आज का घनिष्ठ मित्र कल उपेक्षित हो जाता है और परसों शत्रु लगने लगता है। इन उन्मादों में आज प्राण निछावर करने के आश्वासन देने वाला कल प्राण घातक भी बन सकता है। आये दिन समाचार पत्रों में ऐसी घटनाएं सामने आती रहती हैं जिनमें प्रेमी प्रेमिकाओं के मधुर सम्बन्ध का पैशाचिक विश्वासघात के साथ अन्त हुआ। मित्र बनकर शत्रु का कार्य करने वाले छल प्रपञ्च भर घटना क्रम पग पग पर देखे, सुने जा सकते हैं। कुछ दिन तक इतनी गहरी दीखने वाली घनिष्ठता तनिक से कारण को लेकर इस स्तर की पैशाचिकता बन सकती है इस गुत्थी को सुलझाते हुए प्रेम एक पहेली बनकर सामने आता है और मैत्री में कभी भी कोई भयानक दुर्घटना की आशंका नहीं रहती।

प्रेम और मोह के अन्तर को समझने से ही यह गुत्थी सुलझेगी। काया और छाया में जो अन्तर होता है वह प्रेम और मोह में है। यह हजार बार समझा और याद रखा जाना चाहिए कि ‘प्रेम’ आदर्श के लिये- आदर्शवादी व्यक्तियों के बीच ही सम्भव है। धूर्त और स्वार्थी कभी घनिष्ठता का निर्वाह नहीं कर सकते। दाँत काटी रोटी वाले दूध शक्कर जैसे बने हुए चोर, डाकू तनिक सा दबाव पड़ते ही मुखबिर बन जाते हैं और साथियों को पकड़वा मरवा देने में तनिक भी संकोच अनुभव नहीं करते। वेश्या और भड़ुए जितने चोचले करते हैं उतने ही भीतर भीतर घोर घृणा से भी भरे रहते हैं। पतित व्यक्ति-पतित प्रयोजन के लिये कभी मित्रता साध रहे हैं तो उसमें धूर्तता ही प्रधान रहेगी। जो उस जञ्जाल में फँसकर कोई जोखिम उठावेगा वह बेतरह मारा जायेगा। मोह और प्रेम का अन्तर न समझने वाले भावुक लोगों में से इस अभिचार की चट्टान से टकराकर आये दिन अपना सर्वनाश करते रहते हैं।

प्रेम किसी भौतिक आकर्षण के कारण नहीं हो सकता। रंग, रूप, सौंदर्य, यौवन, प्रतिभा, मुस्कान, कला कौशल, पद, धन, सहयोग, आश्वासन, आशा आदि के आधार पर जो खिचाव उत्पन्न होता है वह विशुद्ध भौतिक है। उसमें प्रायः एकाँगी पागलपन ही भरा रहता है। फिल्मों के नट नर्तक नर-नारी बहुतों के लिये आराध्य बने रहते हैं, उनके चित्र छाती से चिपकाये रहते हैं, जन्म दिन पर बधाई सन्देश भेजते हैं, सोचते हैं कि इस प्रेम प्रदर्शन के आधार पर वे अपनी छाप उन पर छोड़ सकेंगे पर सही बात है कि इन प्रेमोन्मादियों की ओर आँख उठाकर देखने की भी उन्हें फुरसत नहीं होती इसी प्रकार प्रतिभा सम्पन्न लोग झूठे आश्वासन देकर लुभाते, ललचाते तो कितनों को ही रहते हैं पर जब कसौटी का समय आता है तब पल्ला झाड़कर अलग जा खड़े होते हैं। ऐसी एकांगी और छद्म प्रेम विडम्बनाएं भी कम देखने को नहीं मिलती। अपनी हवेली, तिजोरी, मोटर वाहवाही से भी कितनों को बड़ा प्यार होता है पर जब वे दूसरे के अधिकार में चली जाती हैं तो आँख उठाकर देखने जितना भी लगाव उनमें नहीं रह जाता। जिसमें स्थायित्व न हो वह प्रेम की परिभाषा में आ ही नहीं सकता। प्रेम आत्मा का स्वभाव है। आत्मा सत् है, चित् है, आनन्द है। उसकी अनुभूति में प्रेम में अवास्तविकता-अस्थिरता-अवाँछनीयता एवं असुखकर असमञ्जस भरी स्थिति उत्पन्न हो ही नहीं सकती।

आत्मा एक दिव्यसत्ता है- उसका प्रेम घनिष्ठता उत्कृष्टता एवं आदर्शवादिता जैसे भाव प्रवाह के साथ ही हो सकता है। इसका अभ्यास करने के लिये उस स्तर के व्यक्तियों को भी चुना जा सकता है। इष्टदेव वस्तुतः उत्कृष्ट स्तर का आत्मदेव ही है। इस दृष्टि से प्रमाणित है कि हर व्यक्ति अपनी श्रद्धा, आस्था और वस्तुस्थिति के अनुरूप एक देवता या असुर है। उसी के पोषण का भला बुरा वरदान अनुदान हमें पग-पग पर मिलता रहता है। यह आत्म प्रेम हुआ। दूसरे व्यक्ति या व्यक्तियों से यदि कभी सच्चा प्रेम हो सकता है तो वह एक मात्र उच्च स्तरीय आदर्शवादिता ही हो सकती है। चरित्रवान एवं अनुकरणीय व्यक्तित्व ही सच्चे अर्थों में प्रेमपात्र की भूमिका सम्पन्न कर सकते हैं। दुष्ट, दुराचारियों की घनिष्ठता न केवल प्रेमी का बेतरह शोषण करती है वरन् अन्ततः ऐसी चोट पहुँचाती है कि प्रेम तत्व के प्रति ही घोर अनास्था उत्पन्न हो जाती है। असफल प्रेमी एक प्रकार से उन्मादी विक्षिप्त की स्थिति में जा पहुँचता है। अपने उपार्जित अध्यात्म संस्कारों से भी वंचित हो जाता है।

प्रेम एक उच्च कोटि की आत्म सम्पदा है। मणि मुक्तकों से बढ़कर, रक्त भंडार को सुरक्षित बैंक या तिजोरी में ही रखा जाता है। प्रेम का प्रत्यारोपण ऐसे व्यक्ति के ऊपर किया जाना चाहिए जिसका बहिरंग एवं- अन्तरंग जीवन स्तर की उत्कृष्टता असंदिग्ध हो। ऐसा सत्पात्र यदि न खोजा जा सके तो सर्वसुलभ यही है मात्र आदर्शवादी भावनाओं और उत्कृष्ट विचार शृंखला को ही अपना प्रेमास्पद बनाया जाय। मानवता के उच्चतम स्वरूप को इष्टदेव या आत्मदेव मानकर उसके साथ अनन्य प्रेम की घनिष्ठ मैत्री को विकसित किया जाय।

निजी स्थूल काय कलेवर के साथ प्यार करने की बात का विश्लेषण किया जाय तो प्रतीत होगा कि यह स्नेह प्रवाह भी उसकी सूक्ष्म सत्ता से ही किया जा रहा है। प्रेमी की आत्मा का साथ छोड़कर बाहर निकले हुए उसी के मल-मूत्र, कफ, दाँत, बाल, नख, रक्त, माँस आदि से कोई प्रेम नहीं करता, जब तक यह वस्तुयें आत्मा के साथ जुड़ी थीं तभी तक प्रिय थीं। इससे सिद्ध है कि प्रेम कभी स्थूल पदार्थों से हो ही नहीं सकता-भले ही वह प्रेमी का काय कलेवर ही क्यों न हो। सूक्ष्म आत्मा अपनी आत्मीयता का विस्तार दूसरी अपने ही स्तर की सूक्ष्म आत्मा पर ही कर सकता है और आत्मा का स्वरूप जो अनुभव में आता है वह उच्चस्तरीय आस्थाओं एवं क्रियाकलापों के रूप में ही समझा, परखा और जाना जा सकता है। अस्तु निष्कर्ष यही निकला कि यदि प्रेम को निर्बाध गति से विकसित होते रहने देना हो, उसका आनन्द अनवरत रूप से उठाना हो तो आदर्शवाद को ही प्रेमास्पद बनाना चाहिये। भगवान की भक्ति इसी को कहते हैं।


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