जीव जगत और विधाता की विनोद प्रियता

November 1972

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सृष्टि का कौतूहल कौतुक देखते ही बनता है। यहाँ सब कुछ सीधा सरल ही नहीं चित्र विचित्र भी बहुत है। प्राणधारियों पर दृष्टिपात करें तो उनकी रचना और स्थिति में ऐसी विलक्षणतायें दीखती हैं कि आश्चर्य चकित रह जाना पड़ता है। विनोदी विधाता बैठा ठाला क्या-क्या कौतूहल रचता रहता है उसे देखकर लगता है उसमें बचपन जैसी आँख मिचौनी करने, भूल भुलैया बनाने की उद्धत मनोवृत्ति कम नहीं है। बूढ़ा हो गया तो क्या बचपन फिर भी उसका बना ही हुआ है और ऐसे खेल करता है जिसमें न केवल उसी का मनोरंजन हो वरन् दूसरे भी उसके इस कर्तृत्व की विलक्षणता पर मुस्कराए बिना न रहें।

डॉ. एडवर्ड होम और कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय के जीव शास्त्री डॉ. एच. काल्डवेल ने उस प्राणी पर गहरी गवेषणा की है। यह अण्डे देता है और बच्चों को दूध भी पिलाता है, पानी में डुबकी लगाता है, जमीन पर बिल बनाता है। पूँछ चपटी, त्वचा पर कोमल बाल, बतख जैसी जाल युक्त उंगलियाँ, कर्ण रहित, चिड़िया की चोंच जैसा मुँह, लम्बाई 50 से.मी., वजन एक किलो, दो बार नियत समय पर भोजन करने का अभ्यासी, एकान्त परिस्थितियों में प्रजनन का अभ्यासी, यह प्राणी निस्संदेह अद्भुत है। उसका वंश सुरक्षित रखने के लिए आस्ट्रेलिया सरकार ने इसे पकड़ने या मारने पर कड़ा प्रतिबंध लगा दिया है। वह प्रतिकूल जलवायु में जीवित नहीं रहता फिर भी उसे न्यूयार्क में व्राक्स चिड़िया घर में 10 वर्ष तक जीवित रखने में सफलता प्राप्त की गई।

स्तन पायी और सरीसृप जाति के बीच का एक प्राणी है- प्लेटिपस। यह केवल आस्ट्रेलिया में ही पाया जाता है। सरीसृप वर्ग ने जब सृष्टि के आरम्भिक दिनों में प्रगति करते हुए स्तनपाई वर्ग में प्रवेश किया तो उस मध्यान्तर काल का यही एक प्राणी साक्षी अवशेष के रूप में विद्यमान है। यों इसी प्रकार का एक और जन्तु ‘इक्रिडना’ भी पाया जाता है पर वह इतना कम शेष रह गया है कि उसके संबंध में प्रकाश डाला जा सकना संभव नहीं। 5 करोड़ वर्ष से अपनी जाति का पृथक अस्तित्व बनाये रहने में समर्थ यह प्राणी यों अति स्वल्प मात्रा में ही शेष रह गया है फिर भी वह प्राणी वैज्ञानिकों के लिए एक आश्चर्य के रूप में विद्यमान है।

चमगादड़ का वर्गीकरण करना कठिन पड़ता है क्योंकि उसमें पशु और पक्षियों के दोनों चिन्ह पाये जाते हैं। उड़ती है इसलिये पक्षी है और स्तनपायी है अण्डे नहीं बच्चे देती है और घोंसला नहीं बनती है इसलिए पशु है। उसे उभय पक्षी कहकर सन्तोष करना पड़ता है। यही बात छिपकली के बारे में है, वैसे वह साँप की तरह रेंगने वाले वर्ग में गिनी जानी चाहिए पर चूँकि उसके पैर और पंजे होते हैं इसलिए उस वर्ग में भी कैसे गिना जाय?

छिपकली की सब से अद्भुत बात यह है कि उसकी पूँछ शरीर में जुड़ी हुई होते हुए भी एक स्वतंत्र उप अंग मात्र है। पूँछ से वह कई काम लेती है पर जब विपत्ति आती है कोई आक्रमण करता है तो अपने आप झटककर उसे तोड़कर अलग कर देती है। कटी हुई पूँछ देर तक हिलती जुलती और हरकत में रहती है। आक्रमण कारी उसे ही असली छिपकली समझ लेता है और उस पर झपट पड़ता है। इस अवसर का लाभ उठाकर वह नौ दो ग्यारह हो जाती है।

शरीर के टुकड़े करके अलग करने में प्रवीण एक और अद्भुत जीव है ‘पालोलो’। यह मलाया पालीनेशिया, फ्लोरिडा के तटवर्ती चट्टानों में पाया जाता है। रेंगने वाले जीवों में ही उसकी गणना है। वह अपने आप में ही नर है- अपने में ही मादा। वंश वृद्धि की दृष्टि से वह अपने आप में पूर्ण है। उसे किसी को साथी बनाने या ढूंढ़ने की जरूरत नहीं पड़ती। शरदऋतु में उसका प्रजनन काल होता है। तब वह चट्टानों से निकल कर समुद्र तट पर आ जाता है, उसका पिछला दो तिहाई भाग हरा और नीला होता चलता है। उस पर दाने दाने से उग आते हैं। अब अगले एक तिहाई भाग को नर और पिछले दो तिहाई भाग को मादा कह सकते हैं। गुप चुप भीतर ही भीतर न जाने क्या होता रहता है कि पूँछ गर्भवती हो जाती है और उगे हुए दाने अण्डों का रूप धारण कर लेते हैं। जब उसकी अभिन्न सहचरी मादा पूँछ प्रजनन की तैयारी में होती है तो ‘पालोलो’ उसे झटक कर अलग कर देता है झंझट से बचने के लिए खुद तो फिर चट्टान में आ छुपता है और बेचारी मादा समुद्र में अपने अण्डे बच्चों के साथ एकाकी अपनी जीवन नौका खेती है और अपना परिवार संभालती है। जिस तरह एक पत्नी के मरने के बाद मर्द दूसरा विवाह करके नई दुलहन ले आते हैं इसी तरह पालोलो की नई पूँछ निकलनी शुरू होती है, बढ़ती और पुष्ट होती है अगले वर्ष उसकी भी दुर्गति। पुराने सामन्त राजाओं का वही तरीका था जब तक पत्नी गर्भवती नहीं होती तब तक उसे साथ रखते थे। इसके बाद उसे रद्दी खाते का माल समझकर महल के एक कोने में पटक दिया जाता था। और नई दुलहन को साथ लगाया जाता था। लगता है ‘पालोलो’ ने इसी प्रकार की रीति-नीति अपना रखी है। फर्क इतना ही है उसे नई दुलहन तलाश नहीं करनी पड़ती, वह घर बैठे आ जाती है और अपने आप ही उसमें आत्मना होने का प्रयत्न करती है।

ठीक इसी तरह का एक और रेंगने वाला जीव है ‘माईरिआनीडा’ यह भी अपने आप में पूर्ण है। स्वयं ही नर, स्वयं ही मादा। मार्च में उसकी सफेद पूँछ लहराने लगती है और पीली होती जाती है। यही है उसका गर्भ धारण। जब यह अण्डों के भार से बोझिल हो जाती है तो वह भाग अलग हो जाता है और उसमें जन्मा परिवार स्वतंत्र रूप से अपना जीवन धारण करता है।

‘कुछ सेक्सलैस’ जीव मछली शक्ल के भी होते हैं वे बिना नर की सहायता के अपने शरीर में ही अण्डे उगाते रहते हैं और पके हुए अण्डे मूल शरीर से बाहर निकलकर स्वावलम्बी जीवन जीने लगते हैं।

फ्रान्स के जीव विज्ञानी बेलाफेकर ने बिच्छू के संबंध में भी बहुत खोजबीन की है। उसकी प्रेम-कथा और दाम्पत्य जीवन की परिणति जितनी विचित्र है उतनी ही दुखद भी। ऐसी अद्भुत रीति नीति शायद ही किसी अन्य प्राणी में पाई जाती हो।

अप्रैल, मई में बिच्छुओं का ऋतु काल आता है। नर मादा एक दूसरे को तलाश करते हैं। पटरी बैठती है या नहीं इसके लिए शीर्षासन की तरह सिर नीचे और पूँछ ऊपर करके उलटे खड़े हो जाते हैं। पूँछ मिलने पर वे इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि उपयुक्त साथी मिला या नहीं। पूँछ हुक की तरह उलझ जायँ तो समझना चाहिए कि विवाह पक्का हो गया। अन्यथा वे दूसरी तलाश में बिछुड़ जाते हैं।

जोड़ी बन जाने पर दोनों मिलकर छोटा गड्ढा खोदने में लगते हैं। यही उनका अन्तः पुर होता है। इस खुदाई के बीच भी वे दोनों एक दूसरे का एक हाथ पकड़े रहते हैं। रात भर उसमें उनका विश्राम होता है और यहीं सुहाग रात मनाते हैं।

दूसरे दिन प्रातःकाल उस गड्ढे का दृश्य बहुत ही वीभत्स बन जाता है। नर बिच्छू के पंजे, डंक और कुछ अन्य अवशेष ही वहाँ इधर-उधर छितरे मिलते हैं। शेष कुछ गायब। मादा बिच्छु अपनी काम तृप्ति करने के उपरान्त स्वादिष्ट भोजन का आनन्द भी पति देव के शरीर से लेती है और उसे भोर होते ही खा पी कर समाप्त कर देती है।

इतने पर भी मादा बिच्छु अपने बच्चों के प्रति बड़ी सहृदय होती है। प्रायः 14 महीने उसे गर्भधारण किये रहना पड़ता है इसके बाद वह अण्डे देती है। उन्हें सेती है और कई सप्ताह तक बच्चे जब तक चलने फिरने लायक नहीं होते पीठ पर ही लादे फिरती है।

मनुष्य के दाँत दो बार निकलते हैं एक जन्म के समय दूसरे 5, 6 वर्ष की जिन्दगी में पर हाथी के दाँत उसकी 50-60 वर्ष की जिन्दगी में छह बार उखड़ते और निकलते हैं। उसे अपना बड़ा सा पेट भरने के लिये कड़े वृक्ष तोड़ने चबाने पड़ते हैं। फलतः दाँत जल्दी घिसते और टूटते हैं इसलिये प्रकृति ने उसके दाँत छह बार निकलने की व्यवस्था की है।

जीवधारी जगत की विचित्रताएँ उसके रचनाकार की महानता का ही नहीं उसकी विनोद प्रियता का भी परिचय देती हैं।


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