जो मनुष्य अधिकारी व्यक्ति के सामने स्वेच्छापूर्वक अपने दोष शुद्ध हृदय से कह देता है, और फिर कभी न करने की प्रतिज्ञा करता है, वह मानो शुद्धतम प्रायश्चित करता है।
-महात्मा गाँधी
यह आशा करना बाल बुद्धि है कि छुट-पुट धार्मिक कर्मकांडों से, या क्षमा-प्रार्थना से पाप दूर हो जायेंगे। इतने सस्ते में यदि कर्मफल छूट जाया करते तब तो उनसे डरने की कोई बात न थी। ऐसा तो कोई भी कर लिया करे और कम दण्ड से बच जाया करे फिर इस विश्व में व्यवस्था क्या रहेगी। भगवान न्यायकारी कहाँ रहेगा। कर्मफल की अनिवार्यता का समर्थन शास्त्रों में पग-पग पर मिलता है-
यत् करोत्यशुभं कर्म शुभं वा यदि सत्तम।
अवश्य तत् समाप्नोति पुरुषों नात्र संशय॥5॥
मनुष्य जो शुभ या अशुभ करता है, उसका फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है, इसमें संशय नहीं है।
ज्ञानोदयात् पुराऽऽरब्धं कर्म ज्ञानान्न नश्यति।
यदत्वा स्वफलं लक्ष्यमुदृश्योत्सृष्टवाणवत् ॥53॥
-अक्ष्युपनिषद 2।53
ज्ञान का उदय हो जाने पर भी पूर्वकृत कर्मों के प्रारब्ध भोग तो भोगने ही पड़ते हैं। उनका नाश नहीं होता। धनुष से छूटा हुआ तीर प्रहार करता ही है।
फिर क्या कर्मफल से छुटकारा पाने का कोई उपाय नहीं है? है- और वह केवल एक ही है- प्रायश्चित्य। प्रायश्चित्य का अर्थ है- पाप का दण्ड स्वेच्छा पूर्वक स्वीकार कर लेना। पुण्य से पाप को तोल कर बराबर कर देना। समाज को जो क्षति पहुंचाई है उसे पूरी कर देना, आत्मा पर जितना मैल चढ़ाया है उतना ही तप रूपी साबुन घिसकर उस मलीनता को स्वच्छ कर देना।
यह प्रयोजन यदि इसी जीवन में पूर्ण किया जा सके। यदि अपने इस जीवन के दुष्कर्मों को स्मरण कर उनका प्रायश्चित्य विधान इसी जन्म में पूरा कर लें तो भविष्य को अन्धकारमय होने से बचा सकते हैं। पापों का आच्छादन ही ईश्वर का प्रकाश हम तक पहुँचने देने में- आत्मबल के अभिवर्धन में- प्रधान रूप से बाधक होता है। यह बाधा प्रायश्चित्य प्रक्रिया से ही हट सकती है। आध्यात्मिक साधनाओं की सफलता के लिए तो सबसे प्रथम यही प्रयोग करना चाहिए। कपड़े को रंगने से पहले उसे धोना पड़ता है। ईश्वरीय रंग में आत्मा को रंगने से पूर्व प्रायश्चित्य रूपी भट्टी पर पहले उसके कषाय-कल्मषों को ही स्वच्छ किया जाना चाहिए।