एक कुष्ठी भिक्षा माँग रहा था (Kahani)

November 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

एक कुष्ठी भिक्षा माँग रहा था। उधर से जो कोई निकलता कुष्ठी अपना हाथ फैलाकर कहता ‘जो दे उसका भला और न दे उसका भी भला’। पाश्चात्य वेशभूषा से सज्जित एक युवक ने दो पैसे का सिक्का उसके हाथ पर डालते हुये पूछा- ‘क्यों भाई! तुम्हारा पूरा शरीर गला जा रहा है। हाथ और पैर की अंगुलियाँ तक अब ऐसी नहीं रही जो कुछ कार्य कर सकें। फिर इस कष्ट का जीवन जीने से क्या लाभ? यह तो जीवित अवस्था में भी लाश ढोने जैसी स्थिति है।’

कुष्ठी ने कहा- ‘मित्र! तुम बात तो ठीक कहते हो और कभी-कभी मेरे मन में भी इस प्रकार का प्रश्न उठता है, पर मुझे ऐसा लगता है कि ईश्वर इसलिये जीवित रखे हुये है कि लोग कम से कम मुझे देखकर यह समझ सकें मूर्ख, इस संसार में कभी तू भी मेरे जैसा हो सकता है अतः संसार में काया की सुन्दरता का घमण्ड करने से कोई लाभ नहीं है।’


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles