उभरते युग बोध (Kavita)

November 1972

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आप कहें यह रात अँधेरी, मुझको लेकिन दिखता भोर।

दृष्टि आपकी है तारों पर, मेरी है पृथ्वी की ओर ॥

सत्ता की सीता जनमी थी, मिट्टी का मैलापन लेकर ।

जो मिट्टी के निकट रहे थे, उनको सत्ता गई न तजकर॥

बिछुड़ गये हैं जो सत्ता से, वे मिट्टी से कतराते हैं।

जो बन सकते धूल-धूसरित, युग के रथ पर चढ़ जाते हैं॥

यह रथ चलता जिधर, उधर ही, पथ ही पथ बनते जाते हैं।

पथ से हटकर चलें पथिक यदि, कभी न मञ्जिल वे पाते हैं॥

इस रथ की ध्वनि में, गति-गति में, जन-बल अपने गीत गा रहा।

जितने दूर रहोगे इससे यह स्वर उतना निकट आ रहा ॥

आप कहें यह कोलाहल, पर मिट्टी गूँथ रही है डोर।

आप हो रहे विचलित जिससे, वर्तमान का सत्य कठोर॥

सत्ता बिकती कभी नहीं है, सदा वरण की जाती है ।

इसे भोगते जो संयम से, उनकी ही जय-जय होती है॥

यह साधन की खुद जननी है, इसके स्वामी कभी न साधन।

समय स्वयं इसका प्रहरी है, जन-गण है इसका सिंहासन॥

जिनको यह आसन पाना है, उनको जनता तक जाना है।

जनता कामधेनु इस युग की, उसने सबको पहचाना है॥

यज्ञ-कुण्ड में जो जाते हैं, जलते रहते सौरभ बनने।

द्वार सभी के लिए खुले हैं, नहीं पराये कोई अपने॥

सत्ता सदा प्रज्ज्वलित रहती, तेजोमय करती नर नाहर।

किन्तु इसी की चिनगारी से जले, चले थे जो न सँभलकर॥

आप चाहते नहीं क्राँति पर, क्राँति सदा अनचाही होती ।

नए-नए युग-बोध उभरते, नए-नए यह सपने गोती ॥

आप कहें यह केवल आँधी, जन-मानस पर आत्मविभोर।

आप बँधे अपनी साया में, यह है परिवर्तन का दौर॥

आप कहें यह रात अँधेरी, मुझको लेकिन दिखता भोर।

दृष्टि आपकी है तारों पर, मेरी है पृथ्वी की ओर॥

(रामनिवास जाजू)

*समाप्त*


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