आजादी सत्प्रवृत्तियों को मिले-दुष्प्रवृत्तियों को नहीं

November 1972

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यह शताब्दियाँ आजादी की शताब्दियाँ कही जा सकती हैं। इन में स्वतन्त्रता प्राप्ति की व्यापक लहर आई और उसे सफलता भी मिली। राजनैतिक क्षेत्र में स्वाधीनता की माँग उभरी, जनता द्वारा, जनता के लिए राज्य का नारा बुलन्द हुआ और वह सफलता के साथ आगे बढ़ता चला गया। अब राजतन्त्र और उपनिवेशवाद अपनी अन्तिम साँस गिन रहे हैं।

सामाजिक क्षेत्र में भी आजादी की लहर रंग लाई। दास दासी प्रथा वंश परम्परा के आधार पर ऊँच नीच की मान्यता, नारी प्रतिबन्धन जैसी अवाँछनीय परम्पराओं से समाज पर लगी कलंक कालिमा घुलती चली जा रही है। आर्थिक साम्राज्यवाद की, पूँजीवाद की जड़ें खोखली हो चली हैं। पूँजी का एकत्रीकरण करके सम्पन्न लोग जनसाधारण का प्रकारान्तर से अपना गुलाम बनाये हुए थे। समाजवादी अर्थ व्यवस्था ने स्थान ग्रहण करके अमीरी का वर्चस्व समाप्त करने में आशाजनक सफलता पाई है। बची खुची परतन्त्राएं निकट भविष्य में समाप्त होने जा रही हैं। स्वतन्त्रता की लहर अभी शिथिल नहीं हुई है उसकी प्रौढ़ता अवशेष बन्धनों को भी मोड़ती ही चली जायेगी। इसे उज्ज्वल भविष्य का शुभ चिन्ह ही कहना चाहिए।

स्वतन्त्रता मानवीय अन्तःकरण की एक महत्वपूर्ण आवश्यकता है। उसे उसकी प्राप्ति का अवसर मिलना ही चाहिए। इस दिशा में किये गये प्रयत्नों का समर्थन ही किया जाना चाहिए। सराहा ही जाना चाहिए।

पर साथ ही यह नहीं भुला दिया जाना चाहिए कि व्यक्ति और समाज में दुष्प्रवृत्तियों की भी कमी नहीं। यदि उन्हें भी स्वतन्त्र कर दिया गया तो यह आजादी बहुत महँगी पड़ेगी। कुत्ता पाला जा सकता है बाँधा नहीं। यदि कुत्ते और बाघ के साथ एक जैसा व्यवहार किया गया, दोनों को भोजन दिया गया और समान रूप से सड़क पर घूमने की स्वतन्त्रता दी गई तो फिर उसका परिणाम घातक सिद्ध होगा।

सद्प्रवृत्तियों को सुविकसित होने के लिए उन्हें फैलने और बढ़ने की, आजादी मिलनी चाहिए पर साथ ही दुष्प्रवृत्तियों का नियन्त्रण और दमन भी उतना ही आवश्यक है। सच तो यह है कि इस नियन्त्रण की आवश्यकता और भी अधिक है क्योंकि व्यक्ति और समाज में बाहुल्य दुष्प्रवृत्तियों का है, सत्प्रवृत्तियों का नहीं।

आजादी का उज्ज्वल पक्ष सबके सामने है। उससे जनता को जो राहत मिली है उस पर हर किसी को संतोष और गर्व हो सकता है। स्वतन्त्रता आन्दोलन ने एकाधिकार वाद को चुनौती दी और शासन व्यवस्था, सामाजिक उत्पीड़न तथा अर्थपाश से जिस हद तक जन साधारण को त्राण दिलाया उतने अंशों में उसे सराहा ही जायगा और जहाँ अभी भी पराधीनता विद्यमान है वहाँ उस लहर को पहुँचाया ही जायगा।

इस उत्साह के साथ-साथ और भी ध्यान रखा जाना चाहिए कि उस प्रभाव का लाभ उठाकर कहीं अवाँछनीय दुष्प्रवृत्तियाँ ही छुट्टल न हो जायँ। इस संबंध में सतर्कता न बरती गई तो वह स्वतन्त्रता आन्दोलन की सफलता उपलब्ध लाभ को उलटी हानि में बदल देगी।

विचारों की अभिव्यक्ति, लेखन भाषण की स्वतन्त्रता को स्वतंत्रता आन्दोलन का मुख्य आधार माना गया है। सो उचित भी है। पर यह छूट अवाँछनीयता को नहीं मिलनी चाहिए जैसी कि इन दिनों मिल रही है। उदाहरण के लिए - लेखन की स्वतंत्रता सामने है। उसने जनता का कितना हित साधन किया इसका लेखा जोखा लिया जाना चाहिए। इसमें से अधिकाँश ऐसा है जो मनुष्य की पशुता को उभारता है, दुष्प्रवृत्तियों को भड़काता है, धूर्तता सिखाता है, भ्रमजंजाल में फँसाता है। इसका परिणाम सामने आ रहा है। लोक चिन्तन का स्तर गिरता चला जा रहा है, सोचने की दिशा विकृत होती चली जा रही है। चारित्रिक स्तर गिर रहा है-गतिविधियों में तेजी से अवांछनीयता प्रवेश कर रही है। पाप पुण्य का जैसा विश्लेषण हमारे साहित्यकार कर रहे हैं इसके आधार पर यह समझा जाने लगा है कि उचित अनुचित का भेद करना निरर्थक है। अपनी सुविधा और रुचि स्वतन्त्रता के आधार पर जो ठीक लगे सो कर गुजरना चाहिए।

लेखन व्यवसाय में संलग्न लोगों का श्रम और चिन्तन इसी दिशा में चल रहा है क्योंकि प्रकाशन में जिनका पैसा लगता है वे तुरन्त और अच्छा लाभ चाहते हैं। यह तभी संभव है जब लोगों की माँग का शोषण किया जाय। कहना न होगा कि प्रचलित वातावरण में कुरुचि का बढ़ना स्वाभाविक है। कुरुचि को शोषण ही पसन्द किया जा सकता है। उसी की माँग और ख्याति हो सकती है। पूँजीपति के लिए यही रास्ता लाभदायक है कि वह जल्दी और अधिक कमाने के लिए कुरुचिपूर्ण उत्पादन करे। पैसे देकर वह लेखक का श्रम, दिमाग और सहयोग खरीदता है और गाड़ी आगे चल पड़ती है। बाजार में उपलब्ध आज का सारा साहित्य इकट्ठा करके उसका वर्गीकरण किया जाय और उपयोगिता अनुपयोगिता की कसौटी पर कसा जाय; तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि लेखन और प्रकाशन की स्वतन्त्रता का वैसा उपयोग नहीं हुआ जैसा कि होना चाहिए था। यह स्वतंत्रता लाभ कम और हानि अधिक कर रही है, इस निष्कर्ष पर कोई पहुँचता है तो गलत न कहा जा सकेगा। पत्र-पत्रिकाओं के पुस्तकों के माध्यम से इन दिनों जो दिशा जनसाधारण को मिल रही है उस पर संतोष ज्यादा नहीं किया जा सकता है। सुरुचिपूर्ण साहित्य की तुलना में कुरुचिपूर्ण लेखन और प्रकाशन ही बाजी मार रहा है।

विचारों की अभिव्यक्ति का दूसरा माध्यम वाणी है। धार्मिक मंच पर कथा प्रवचनों वाले पंडित बाबाजी जो बकवाद करते रहते हैं उसमें कितना विवेक, कितना सौंदर्य, कितना प्रकाश और कितना तथ्य रहता है उसका विश्लेषण करने पर किसी उत्साहवर्धक नतीजे पर नहीं पहुँचा जा सकता। राजनैतिक मंच से अपनी पार्टी के हित को प्रधान रखने वाले धुँआधार भाषण सुनने को मिलते हैं। पिछड़े देश की जनता को जिस राष्ट्रीय कर्तव्य निष्ठा के आरम्भिक शिक्षण की जरूरत है, उसे कौन सिखाता है? भड़काने वाली, विग्रह उत्पन्न करने वाली गरम-गरम स्पीचें कहीं भी सुन लीजिए। सृजनात्मक प्रशिक्षण के अभाव में वक्ताओं की वाणी जनता का कितना हित कर सकती है इस पर गम्भीरतापूर्वक विचार करने की जरूरत है।

वाणी का दूसरा क्षेत्र है- रंग मंच। संगीत अभिनय को मनोरंजन की दृष्टि से प्रयोग में लाया जाता है पर उसमें छिपी हुई ऐसी क्षमता भी है जो मस्तिष्क और चरित्र को आश्चर्यजनक रीति से प्रभावित करती है। इसलिए उस अभिव्यक्ति को मात्र मनोरंजन करके महत्वहीन नहीं ठहराया जा सकता। यंत्रीकरण के इस युग में संगीत और अभिनय का केन्द्र ‘सिनेमा’ हो गया है। आठ हजार से अधिक सिनेमा घरों में लगभग डेढ़ करोड़ व्यक्ति हर दिन सिनेमा देखते हैं। उसमें क्या दिखाया सिखाया जाता है - और मनोरंजन के साथ वे दर्शक क्या प्रभाव लेकर लौटते हैं इसकी ओर गंभीरता से ध्यान किया जाना चाहिए। उसमें कितना सुरुचिपूर्ण अंश है और कितना कुरुचिपूर्ण उसका विश्लेषण किया जाना चाहिए। मनोरंजन की उपयोगिता आवश्यकता को समझा जा सकता है पर उसे विषाक्त करने की स्वतंत्रता क्यों मिलनी चाहिए?

जनता यदि इतनी प्रबुद्ध होती कि विष और अमृत का भेद कर सके और हंस की तरह दूध पीने और पानी छोड़ने में प्रवीण रह सके तब तो कहना ही क्या था। तब तो धर्मशास्त्र से लेकर राज्य शासन तक की भी आवश्यकता न पड़ती। जन-मानस की बालक जैसी सुरक्षा करना प्रबुद्ध नेतृत्व का कर्तव्य इसीलिए माना है कि दुष्प्रवृत्तियों के उभरने की परिस्थितियाँ उत्पन्न न होने पावें। रंग मंच में जो कुरुचि घुस पड़ी है उसे प्रस्तुत कर्ताओं की नागरिक स्वतन्त्रता के नाम पर समर्थन किया जाता है। अगले दिनों अश्लीलता का विष और अधिक मात्रा में घुलाने की छूट मिलने जा रही है। इसका प्रभाव मनुष्य की पशु प्रवृत्तियों को और भी अधिक चमकायेगा और उसका फल शारीरिक, और मानसिक विकृतियों के उभार में बेतरह भुगतना पड़ेगा। अभिव्यक्तियों की स्वतन्त्रता यदि इस प्रकार के अनर्थ संजोने लगे तो उससे वह नियन्त्रण बन्धन क्या बुरा है जो पराधीनता की स्थिति पैदा करके अवाँछनीय अभिव्यक्तियों को कड़ाई के साथ रोक दे।

मनुष्य को भौतिक अधिकारों के नाम पर न जाने क्या-क्या करने की छूट मिल चुकी और भविष्य में न जाने आगे वह और क्या-क्या करके रहेगा। हिप्पी संस्कृति इसी उच्छृंखल स्वाधीनता की परिणति है जहाँ तहाँ नवयुवक भोंड़े वेशभूषा बनाये नशे में धुत्त, शील और मर्यादाओं के घोर विरोधी बने हुए जहाँ तहाँ निरुद्देश्य घूमते दिखाई पड़ते हैं। इन्हें कुछ सिरफिरे लोग नहीं मान लेना चाहिए। यह एक संस्कृति है जो नई पीढ़ी के मस्तिष्कों पर ग्रहण की तरह आच्छादित होती चली जा रही है। स्वतन्त्रता तो पूरी स्वतन्त्रता। समाज नीति, धर्म, कर्तव्य, कानून, लोक-परलोक सभी से स्वतन्त्रता। बन्धन तोड़ने तो फिर पूरे तोड़ने। आजादी तो फिर पूरी आजादी। दाम्पत्य जीवन, परिवार व्यवस्था, योनि सदाचार जैसी परम्पराओं को पाश्चात्य देशों ने तिलांजलि दे दी है। गम गलत करने के लिए नशे के देवता की आराधना शुरू की है। अपराधों की स्वतंत्रता के लिए कदम बढ़ाये हैं। आरम्भ सभ्य लोगों ने किया है तो उसका अनुकरण कुछ दिन में असभ्य भी करने ही लगेंगे। प्रभाव डालने के सारे साधन जब ‘सभ्य’ लोगों के हाथों में चले गये तो ‘असभ्य’ लोगों को बौद्धिक पराधीनता की जंजीरों में जकड़े हुए उनके पीछे-पीछे चलना ही पड़ेगा।

अभिव्यक्तियों के प्रकटीकरण की स्वाधीनता उचित है। लेखनी वाणी का स्वेच्छापूर्वक उपयोग किया जाय सो ठीक है। पर अभिव्यक्तियों को असामाजिक उच्छृंखल नहीं होने देना चाहिए।

व्यक्तिगत जीवन में स्वेच्छापूर्वक गति विधियाँ अपनाने की छूट का समर्थन किया जाना चाहिए पर वह एक सीमा तक। व्यक्ति एकाकी नहीं है। उसका व्यक्तिगत जीवन भी समाज को प्रभावित किये बिना नहीं रह सकता। व्यसन, व्यभिचार, नशे बाजी, उद्धत रहन सहन जैसी कुरुचिपूर्ण की छूट आज व्यक्तिगत स्वतंत्रता के नाम पर मिली हुई है, सो लोग उसका पूरा-पूरा उपयोग कर रहे हैं क्या इसका प्रभाव उनके परिवार पर नहीं पड़ता? समाज की यह गतिविधियाँ बिना प्रभावित किये रहती हैं क्या? यह लक्ष्य समझा ही जाना चाहिए और इस समस्या पर पुनर्विचार किया जाना चाहिए कि स्वतंत्रता के दूध में उच्छृंखलता का, असामाजिकता का विष कहीं इतना तो नहीं मिल रहा है कि वह खाद्य ही अखाद्य बन जाय?

आजादी के आन्दोलन चलने चाहिए पर साथ ही उन पर नियन्त्रण का अंकुश भी कठोरता के साथ प्रयुक्त होना चाहिए। यह भूलने की बात नहीं है कि पिछले दिनों जो वातावरण रहा है - इन दिनों जो परिस्थितियाँ हैं उनने मनुष्य की दुष्प्रवृत्तियों को बहुत आगे तक परिपुष्ट कर दिया है। सत्प्रवृत्तियाँ अभी एक प्रकार से अविकसित स्थिति में पड़ी हैं। स्वतंत्रता सत्प्रवृत्तियों को मिले-दुष्प्रवृत्तियों को नहीं। इस तथ्य को यदि ध्यान में रखा गया तो इन शताब्दियों की बढ़ती हुई आजादी की लहर वह प्रयोजन पूरा कर सकेगी जो उसका उद्देश्य है। अवाँछनीयता को निरंकुश छोड़ने से आजादी की उपलब्धियाँ निराशाजनक बनकर ही सामने आयेंगी।


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