सत्य रूपी नारायण की साधना और उपलब्धि

April 1972

Read Scan Version
<<   |   <  | |   >   |   >>

सत्य को नारायण कहा गया है। सत्यनिष्ठा में परमेश्वर की झाँकी देखी जा सकती है। हम उसे स्वीकार करें जो यथार्थ है। उसी को अपनायें जो यथार्थ है। यथार्थता को ढूंढ़ते हुए ही जीवन का परम लक्ष्य प्राप्त कर सकना सम्भव हो सकता है।

शक्ति का स्रोत सत्य में सन्निहित है। जिसने सत्य को पकड़ लिया मानो उसकी पकड़ में परमेश्वर आ गया और जिसे पाना था उसे पा लिया।

वाणी का सत्य, विराट सत्य का एक अंश है। पालनीय वह भी है पर यह मानकर न चले कि जो जानकारी थी उसे प्रकट कर देने से ही बात पूरी हो गई। अवाँछनीय व्यक्तियों से वह सत्य छिपाया भी जा सकता है जिसे पचाने की क्षमता उनमें नहीं है। गो घृत को अमृतोपम कहा है, पर जिस ज्वर-ग्रस्त को लंघन हो रहे हैं उसे उतने समय तक उसे न देना ही ठीक रहता है। इस प्रकार यदाकदा वाणी में नग्न सत्य का सीमित प्रयोग भी अभीष्ट हो सकता है, पर जीवन को सत्य का अनुयायी रखना तो ऐसा आदर्श है जिसे कभी भी-किसी स्थिति में भी शिथिल नहीं किया जाना चाहिए। सत्य वह प्रकाश है जिससे आत्म तेज प्रकाशवान होता है और जो कुछ अपने भीतर दिव्य है वह अंकुरित, पल्लवित, पुष्पित और फलित होता है। इस विश्व में सूर्य की ऊष्मा और आभा से जीवन का आविर्भाव हुआ। प्राणियों में प्राण का स्पन्दन उसी के कारण है। जीवन रूपी विराट् का प्रत्येक दिव्य स्पन्दन सत्य के द्वारा ही गतिशील और फलित होता है। देवत्व का विकास सत्य का अवलम्बन लिये बिना हो ही नहीं सकता। मानवीय वर्चस्व केवल उन्हें उपलब्ध होता है जिनकी अन्तरात्मा में सत्य के प्रति प्रगाढ़ आस्था है। जिसने जीवन और सत्य को परस्पर ओत-प्रोत कर लिया, समझना चाहिए उसे तत्व की प्राप्ति हो गई।


<<   |   <  | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles