दिन ढलने लगा। व्यक्ति की परछाई लम्बी और लम्बी होने लगी। वह मन ही मन प्रसन्नता का अनुभव कर रही थी। उसे लगा मानो आज बाजी मार ली हो। अभिमान के स्वर में परछाई ने व्यक्ति से कहा-’आज वह दिन भी आ गया जब तुम्हें पराजय का मुँह देखना पड़ा। तुम जैसे थे वैसे ही बने रहे और मैं तुम्हारी होकर भी तुमसे कितनी बड़ी हो गई।
व्यक्ति ने हँसते हुए कहा-’पगली! सत्य और असत्य में यही तो अन्तर होता है। मूल सत्य में कभी कोई परिवर्तन नहीं होता। अपने मिथ्या स्वरूप को देख लो जो सदैव घटता बढ़ता रहता है।