कर्मफल और स्वर्ग नरक की स्वसंचालित प्रक्रिया

April 1972

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स्वर्ग और नरक नाम के कोई नगर-ग्राम, देश या स्थान कहीं भी नहीं है। सौर मण्डल के ग्रह उपग्रहों को खोज लिया गया है। इस निखिल ब्रह्माण्ड के तारकों महासूर्यों और आकाश गंगाओं की अद्यावधि जानकारियों में अब तक ऐसे किसी लोक के अस्तित्व की सम्भावना नहीं दीखती जैसी कि विविध धर्म सम्प्रदायों में उनका अपने-अपने ढंग से उल्लेख किया है।

तब क्या स्वर्ग नरक, मात्र कल्पना भर हैं। कर्मों के फल प्राप्त करने के लिए कोई माध्यम नहीं है क्या? जिन कर्मों का फल इस जन्म में नहीं मिल सका उनके लिए ईश्वर के दरबार में कोई व्यवस्था नहीं है क्या? सद्गति और दुर्गति का कोई माध्यम न हो तो फिर शुभ कर्म और अशुभ कर्म करने वालों का तदनुरूप प्रतिफल कैसे मिलेगा? आदि अनेक प्रश्न उभर कर आते हैं और यह असमञ्जस उत्पन्न करते हैं कि यदि स्वर्ग-नरक का अस्तित्व था ही नहीं तो धर्म संस्थापकों ने इतना बड़ा उनका कलेवर रचकर खड़ा क्यों कर दिया?

हमें जानना चाहिए कि स्वर्ग नरक दोनों का अस्तित्व है और उनके माध्यम से शुभ-अशुभ कार्यों के फल मिलने की समुचित व्यवस्था मौजूद है। अन्तर केवल स्थान विशेष का है सन्देहास्पद बात केवल इतनी भर है कि उनके लिए कहीं कोई नियत ग्राम या स्थान है या नहीं।

इहलोक हमारा प्रत्यक्ष क्रिया-कलाप और परलोक हमारा भावनात्मक दृष्टिकोण है। इन दोनों ही लोकों में कर्म फल मिलने की समुचित व्यवस्था मौजूद है। उसका निर्माण स्वसञ्चालित प्रक्रिया के आधार पर हुआ है। किसी बाहरी शक्ति के हस्तक्षेप की उसमें आवश्यकता नहीं है। यही व्यावहारिक भी था और तर्कसंगत भी। एक छोटे से मुकदमे का फैसला कराने में कितने वकील, गवाह, जज, पुलिस आदि कार्यकर्त्ता लगते हैं। कितने कागज, सबूत इकट्ठे करने पड़ते है। मनुष्य जीवन में क्षण-क्षण पर भले-बुरे कर्म बनते हैं। एक दिन में ही उनके दण्ड पुरस्कार की सैंकड़ों मिसल फाइलें बन सकती है। जीवन भर में तो वे असंख्यों हो जायेंगी। फिर तीन सौ करोड़ से अधिक मनुष्य इस धरती पर मौजूद हैं। उन सबका लेखा-जोखा रखना-और दण्ड पुरस्कार का विधान बनना इतना बड़ा हो जायगा कि उसके लिए मनुष्य लोक से अधिक कर्मचारी लग जायेंगे। अस्तु अन्य सत्ता के माध्यम से दण्ड पुरस्कार की व्यवस्था होना एक प्रकार से कठिन ही नहीं असम्भव भी है।

मनुष्य को जहाँ इच्छा पूर्वक भले-बुरे कर्म करने की स्वतन्त्रता मिली है वहाँ उसकी प्रतिक्रिया उत्पन्न करने और परिणाम प्रस्तुत करने की स्वसञ्चालित प्रक्रिया भी साथ ही जोड़ दी गई है। समस्त सृष्टि में यही हो रहा है, बीज जमीन में बोया जाता है, खाद, पानी मिलते ही वह अंकुरित होता है और पौधा वृक्ष बनने लगता है। ईश्वर सर्वत्र समाया हुआ है इसलिये यह कार्य ईश्वर करता है यों कहने में भी हर्ज नहीं है। पर ईश्वर भी इतना झंझट कहाँ तक सिर पर लादता उसने स्वसञ्चालित प्रक्रिया बनाकर अपना कर्म फल संबंधी प्रयोजन सरल कर लिया है।

चक्की में ऊपर से अनाज डालते हैं नीचे आटा निकलता जाता है। कोल्हू में ऊपर से सरसों डालते ही तेल टपकता रहता है। मोटर में मीटर लगा रहता है और वह बताता रहता है कि कितने मील चल दिये। यह स्वसञ्चालित मशीनों का जमाना है। बड़े-बड़े प्रिंटिंग प्रेस घण्टे में हजारों कागज इसी आधार पर छापते हैं। एक बार मशीन चला दी फिर सारा काम अपने आप वे मशीनें करती रहती हैं। इधर कच्चा माल डाला जाता रहता है उधर से तैयार बनकर निकलता रहता है।

कर्मफल की प्रक्रिया भी इसी तरह की है। बुरे कर्म के दुखद परिणाम जिन्हें नरक कहते हैं, निश्चित रूप से मिलते हैं और भले कर्मों का सत्परिणाम जिन्हें स्वर्ग कहा जाता है मिलना भी उतना ही सुनिश्चित है। यह स्वसंचालित ढंग से होता रहता है। शरीर अपने कर्म-फल की व्यवस्था स्वयं कर लेता है। बैठे रहिए तोंद बढ़ जायगी और चलना फिरना कठिन-अपच, दिल की धड़कन आदि कितने ही कष्टकर रोग घेर लेंगे। श्रम करना धर्म है और हरामखोरी पसीना न बहाना अधर्म। शारीरिक पाप किया बैठे रहने का उसका फल मोटापे के साथ जुड़े हुए कष्टों के रूप में सामने आ गया। अधिक खाया-पेट में दर्द-रात भर जगे-सिर में दर्द, नशा पिया बदहोशी, जहर खाया-मौत, स्नान करने में आलस-बदबू, जुँऐ, खाज। नियमित व्यायाम पहलवान, पथ्य परहेज-निरोगता, यह दण्ड पुरस्कार की व्यवस्था शरीर अपने आप ही किसी बाहरी हस्तक्षेप के बिना स्वतः ही कर लेता है। कर्म करने की अपनी इच्छा-फल देने की उस स्वसंचालित-ईश्वरीय सत्ता की इच्छा। दोनों का अन्योन्याश्रय संबंध है। कर्म कर लें उसके फल से बचे रहें यह नहीं हो सकता।

आलसी दरिद्री रहते हैं, प्रमादी के लिए प्रगति के द्वार बन्द हो जाते हैं, क्रोधी शत्रुओं से घिर जाता है, धूर्त मित्रों से वंचित हो जाता है, बेईमान के सहयोगी बिछुड़ जाते हैं, उद्दण्ड को घृणा मिलती है, अपव्ययी ऋणी बनता है। यह दण्ड व्यवस्था हर किसी को पग-पग पर अनुभव होती है। श्रेष्ठ गुण, श्रेष्ठ स्वभाव और श्रेष्ठ कर्म करते हुए मनुष्य सम्मानित, यशस्वी, सहयोग सम्पन्न, समृद्ध सफल बनता है और उन्नति के उच्च शिखर पर जा पहुँचता है। स्वयं सुखी रहता है और दूसरों को सुखी बनाता है। यह कर्म फल की-स्वर्ग नरक प्रक्रिया निरन्तर सामने रहती है। पापी, दुष्ट, दुरात्मा राजदण्ड भुगतते हैं, घृणास्पद बनते हैं और स्नेह सहयोग से वंचित होकर मरघट के प्रेत पिशाच बने एकाकी घूमते हैं। यह घृणित जीवन नरक नहीं है तो और क्या है? सेवा भावी, सद्गुणी, सन्त-सज्जन धरती के देवता समझे जाते हैं और मरने के बाद भी वन्दनीय, श्रद्धास्पद ही बने रहते हैं, उनकी यश गाथायें अनेकों को प्रेरणा भरा प्रकाश देती रहती हैं। इसे स्वर्ग प्राप्ति न कहें तो और क्या कहें? सम्मानास्पद, श्रद्धा पात्र सज्जन और प्रामाणिक किसी व्यक्ति को माना जाय इससे बढ़कर सौभाग्य और सन्तोष की बात और क्या हो सकती है। इस प्रकार के कर्म फल प्राप्त करते रहने की-स्वर्ग नरक जैसी प्रक्रिया हम निरन्तर फलित होती देखते रहते हैं।

कई व्यक्ति दूसरों को धोखा देकर अपनी वस्तु स्थिति छिपा लेने में प्रवीण बन जाते हैं और इस प्रकार पाप कर्म करते हुए दूसरों द्वारा मिलने वाले दण्ड से बच निकलने की तरकीब निकालते हैं। यह चतुरता आज कल बहुत चल पड़ी है। इससे कुछ लाभ तो है पर हानि उससे कहीं अधिक है। लाभ यह है कि सरकार की पकड़ में आने पर राजदण्ड से बच जाते हैं। पाप प्रकट न हो तो दूसरों के द्वारा घृणा निन्दा एवं विलगता से होने वाली हानि बच जाती है। पर इसमें जो छिपाव का ताना-बाना बुनना पड़ता है वह अंतर्मन में एक विचित्र प्रकार की घुटन पैदा करता है। दुष्कर्म के साथ दुराव मिल जाने से भाँग में भी अफीम मिली बन जाती है। अंतर्मन की बनावट ऐसी है कि वह इस घुटन को पचा नहीं सकती।

नीला थोथा खा लेने पर उलटी हुए बिना रहती नहीं। जमालगोटा खा लेने पर दस्त जाना ही पड़ेगा। कच्चा पारा खालें तो शरीर में से फोड़े बनकर फूटेगा। यह विष ऐसे हैं जो पच नहीं सकते। पच जायें तो और भी भयंकर प्रकार के रोग उत्पन्न करते हैं और जीवन दुर्लभ कर देते हैं। ठीक उसी प्रकार दुष्कर्म और दुराव मिलकर एक ऐसा विष बनाते हैं जिसे चतुर मनुष्य देर तक छिपाये तो रह सकते हैं पर अंतर्मन को पचा लेने के लिए रजामन्द नहीं कर सकते। सिगरेट का धुआँ पेट में भर लेना तो सम्भव हैं पर वहाँ रुक नहीं सकता। मुँह बन्द कर लें तो नाक में से होकर बाहर आयेगा। भीतर किसी भी हालत में रुकेगा नहीं।

हवा भरे गुब्बारे को पानी में जितने जोर से डुबाते हैं अवसर मिलते ही वह उसी वेग से उछलकर ऊपर आ जाता है। छिपे हुए पाप शारीरिक व्याधि और मानसिक ‘आधि’ बनकर समय-कुसमय ऐसी बुरी तरह फूटते हैं कि कारण प्रतीत नहीं होता। चिकित्सा उपचार काम नहीं करते। यह पाप शरीर और मन को कष्ट देने तक ही सीमित नहीं रहते वरन् अन्तरिक्ष में अनेक अदृश्य विपत्तियों का सृजन करते रहते हैं। पत्थर के कोयले की अँगीठी कितने ही व्यक्ति ठण्ड से बचने के लिए कमरे में बन्द करके रख लेते हैं। तत्काल ठण्ड से तो बचत दीखती है पर आकाश में ऐसा विष भर जाता है जिससे सोते-सोते ही उनकी मौत हो जाती है। शरीर में चोट नहीं लगी, बुखार आया नहीं, मस्तिष्क की नस फटी नहीं, सब कुछ ज्यों का त्यों; मौत का कुछ कारण मोटी आँख से दिखाई नहीं पड़ता। पर जानकार जानते हैं कि अँगीठी ने वायु में विष घोल दिया और वही मौत का कारण बना। ऐसे कितने ही अज्ञात अप्रत्यक्ष कारण अनायास ही विपत्ति बनकर सामने आ जाते हैं, जिनका अपने तात्कालिक क्रिया कलाप से कोई सीधा सम्बन्ध नहीं दीखता। इसी प्रकार कई बार सुविधा सफलतायें भी मिल जाती हैं जिनके लिए उचित श्रम और प्रयत्न नहीं किया गया होता। यह असंगत अवरोध और अनुदान-दैव इच्छा एवं भाग्य का खेल बनकर सामने आते हैं। उनका प्रत्यक्ष कारण नहीं दीखता पर परोक्ष कारण वह स्वसंचालित प्रक्रिया ही होती है जिसने अपने कर्मों का फल अन्तरिक्ष में धीरे-धीरे तदनुरूप वातावरण बनाया और वह भले बुरे अप्रत्याशित अवसर सामने आकर खड़े हो गये।

समय लग सकता है। आज का फल आज मिलने से व्यक्ति श्रम में पड़ सकता है और यह सोच सकता है कि बुरे कर्म के दण्ड से बच गये या भला कर्म निष्फल चला गया, पर वस्तुतः ऐसा होता कभी नहीं। तुरन्त या कालान्तर में इसका रहस्य अज्ञात होने के कारण प्रत्यक्ष वादी, उतावले, अनास्थावान हो उठते हैं पर यदि धैर्य रखा जाय तो प्रतीत होगा कि इसी जन्म में अथवा अगले जन्म में प्रत्येक कर्म का भला बुरा परिणाम मिलना सुनिश्चित है। उसी व्यवस्था क्रम पर तो यह विश्व टिका हुआ है, यदि यह असंदिग्ध हो जाय तो फिर ऐसा अन्धेर फैले-ऐसी अराजकता उपजे कि कहीं कुछ सँभलना-सँभालना सम्भव न हो सके। फिर न कोई पाप से डरे और न पुण्य का झंझट और नुकसान उठाये।

दृष्टिकोण अपने आप में चित्त की प्रसन्नता अप्रसन्नता-सन्तोष, असन्तोष, शान्ति-अशान्ति बनकर पग-पग पर फलित होता रहता है। सत्कर्म करने पर मन में अनायास ही सन्तोष और उल्लास उठता रहता है। किसी कष्ट पीड़ित की सहायता अपना काम हर्ज करके यदि कर दी जाय तो भीतर ही भीतर एक परम सात्विक हलका और शीतल मलयज पवन जैसा आनन्द उठता अनुभव होगा। इसके विपरीत यदि चोरी, ठगी, अनीति बरत कर किसी को क्षति पहुँचाई होगी तो भीतर ही भीतर कोई खटमल, पिस्सू की तरह काट रहा होगा और आत्म ग्लानि से अन्तःकरण में उद्वेग बढ़ रहा होगा। वस्तुतः यही आत्म सन्तोष और आत्म धिक्कार अन्तःकरण को बलिष्ठ और दुर्बल बनाते हैं और इसी आधार पर प्रगति के अगणित मार्ग खुलते और अवरुद्ध होते हैं। पापी का अन्तरात्मा दिन-दिन दुर्बल होता जाता है दूसरों पर से ही नहीं अपने पर से भी उसका विश्वास उठ जाता है। आत्मबल खोकर मनुष्य चैन नहीं पा सकता भले ही उसके पास पैसे कौड़ियों के टीले क्यों न जमा हो जायें। आत्म ग्लानि से भरी मनोभूमि को नरक कहा जा सकता है क्योंकि प्रकारान्तर से अनेक दुश्चिन्तायें, आशंकायें, विभीषिकायें इतना सताती हैं कि उसकी तुलना में नरक वर्णित कष्टों की तुलना सहज ही की जा सके।

जो हर युवती को अपनी पुत्री की तरह देख सके-पराये पैसे को ठीकरी जैसा समझे, अपने स्वल्प उपार्जन से सादगी का जीवन जीते हुए सन्तुष्ट रहे, चरित्र उज्ज्वल रखे और दूसरों के प्रति स्नेह सहयोग भरा दृष्टिकोण रखे-उसे निरन्तर अपने भीतर एक अमृत जैसी निर्झरणी कल-कल ध्वनि से प्रवाहित होती हुई अनुभव होगी और लगेगा कि भावना क्षेत्र में स्वर्गीय सुषमा ही प्रादुर्भूत हो रही है।

मरने के बाद भी भले-बुरे कर्मों के दण्ड कितने ही प्रकार से मिलते होंगे। दो जन्मों के बीच सुखद और कष्ट कर स्थिति रहती होगी, अगले जन्म उत्कृष्ट या निकृष्ट मिलते होंगे। स्वर्ग नरक का स्थान भाव नगर ही सही-प्रतिफल की व्यवस्था मरणोत्तर जीवन में भी रहती होगी। पर इस जन्म में तत्काल भी भले-बुरे परिणाम मिलते रहते हैं और स्वर्ग नरक की स्वसंचालित प्रक्रिया भी हमें नियन्त्रण में रहने और विवेक पूर्ण रीति-नीति अपनाने के लिए बाध्य करती रहती है।


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