मन को रोकें नहीं-दिशा दें

April 1972

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मनोविज्ञानी फ्राइड अपनी पत्नी और बच्चे समेत एक उद्यान में सैर करने गये। बैठे गपशप कर रहे थे। इतने में एक छोटा चार वर्ष का बच्चा गायब हो गया निगाह दौड़ाई तो कहीं भी दिखाई नहीं दिया। पत्नी बहुत घबराने लगी और ढूँढ़ने के लिए आतुरता प्रकट करने लगी।

फ्राइड ने सान्त्वना देते हुए कहा-घबराने की कोई बात नहीं है। पास के उद्यान में वह झूले पर झूल रहा होगा, अभी चलते हैं उसे पा लेना।

सब लोग चले और देखा कि सचमुच बच्चा पास वाले उद्यान में झूले पर झूल रहा है।

फ्राइड की पत्नी को बहुत आश्चर्य हुआ। उसने पूछा-आपको कैसे मालूम हो गया था कि बच्चा यहाँ इस झूले पर झूल रहा है।

उन्होंने उत्तर दिया। मैं सुनता चला आ रहा था। रास्ते में जब वह पार्क पड़ा तब बच्चे ने उस पर झूलने का आग्रह किया था। तुमने मना कर दिया था। बच्चे की उत्सुकता बढ़ी होगी। उसने ज्ञान और अनुभव बढ़ाने की अन्तःप्रेरणा से वहाँ जाना और वस्तु स्थिति को देखना आवश्यक समझा होगा। मना करने से उसके रहस्य जानने की उत्सुक इच्छा ने और अधिक इसके लिए उत्साहित किया होगा और वह आँख बचाकर यहाँ चला आया होगा। इस वस्तु स्थिति को मैं समझता था। सो ही मैंने निश्चित रूप से यह कह दिया कि वह पड़ौस के बगीचे में झूले पर होगा।

फ्राइड ने पत्नी से इस संदर्भ में इतना और कहा कि-मन का बिल्कुल यही हाल है। जिसे न करने के लिए कहा जाता है-जिधर से रोका जाता है उधर ही उसकी प्रवृत्ति और अधिक होती है। रहस्य जानने, ज्ञान बढ़ाने और अनुभव इच्छा करने के लिए वह ऐसे प्रसंगों के संपर्क में अधिक आतुरता पूर्वक आने का प्रयत्न करता है, जहाँ से उसे रोका जाय।

मन को रोकना काफी नहीं। उसे ऐसी दिशा देनी चाहिए जिसमें अधिकाधिक रस मिले और रुचि जुड़े। जहाँ अधिक आकर्षण होगा मन वहीं जायगा। कुमार्ग पर से मन को रोकने का बार-बार निषेध करना एकाँगी है। उसकी दिशा परिवर्तन के लिए यह आवश्यक है कि मन के लिए कोई अधिक आकर्षक क्षेत्र काम करने और विचरण करने के लिए उपलब्ध हो।

एक साधक साधना कर रहे थे। मन काबू में न आता था, वह निर्धारित लक्ष पर न रुक कर अन्न माँगता था। इस कठिनाई का समाधान करने के लिए वे अपने गुरु के पास पहुँचे।

गुरु ने उस समय तो कुछ उत्तर न दिया पर अगले दिन एक नई साधना बताने के लिए उसे बुलाया।

साधक पहुँचा तो उन्होंने कहा-आज बहुत ही शुभ मुहूर्त है। ऐसा मन्त्र बताता हूँ जो आज ही सिद्ध हो जायगा और मनवाँछित फल देगा। साधन को बड़ी प्रसन्नता हुई और उसने वह छोटा मन्त्र भली प्रकार याद कर लिया तथा सरल सा विधि विधान भली प्रकार समझ लिया।

चलने लगा तो गुरु ने उसे रोका और कहा-एक छोटा सा प्रतिबन्ध और है जिसे इस साधना के समय पालन करना आवश्यक है।

साधक ने उत्सुकता पूर्वक उसे भी पूछा-उसने कहा जप के समय बन्दर का ध्यान नहीं आना चाहिए। प्रतिबंध जरा सा था उसे पालन करने में क्या कठिनाई हो सकती थी। साधक प्रसन्न होता हुआ चला गया।

जब वह जप करने बैठा तो प्रतिबंधित बन्दर का ध्यान ही मस्तिष्क पर हावी होने लगा उसने जितना ही मन को रोका उतना ही अधिक तीव्रता के साथ बन्दर का ध्यान आया पूरा दिन इसी खींचतान में चला गया। साधन न हो सका। पूरे समय बन्दर ही मन पर सवार रहा।

संध्या होने पर साधक दुखी होता हुआ गुरु के पास आया और अपनी असफलता बताई।

गुरु मुसकराये और उनने कहा-पिछले दिन की तुम्हारी शंका का यही उत्तर है। मन के निरोध में यही कठिनाई है कि जिस काम से उसे रोका जाता है उसी के लिए वह आतुर होता है। ज्ञान और अनुभव बढ़ाने की उसकी स्वाभाविक प्रवृत्ति इसके लिए उसे विवश करती है। इसलिए मन को साधने में प्रतिबन्ध कड़े करने की अपेक्षा यह अधिक उपयुक्त रहता है कि सम्मुख प्रस्तुत कार्य में अधिक आकर्षण उत्पन्न किया जाय। बंधन ढीले रखे जायं और यदि बहुत अनुचित न हो तो तथाकथित बन्धनों को कभी कुछ ढीला करके मन को यह देख समझ लेने दिया जाय कि जिसके लिए वह आतुर था वह कितना निस्सार और निरर्थक क्षेत्र है। अनुभव के बाद निकाला हुआ निष्कर्ष अधिक स्वस्थ और परिपक्व होता है।

वस्तु प्राप्त न होने पर अभाव की स्थिति में किया हुआ त्याग कच्चा है। उपयोग और उपभोग के बाद जो वस्तु छोड़ी जाती है उसकी निरर्थकता के बारे में मन निश्चिन्त रहता है। जहर खाने, आग छूने जैसे अनुभव करना तो बहुत महँगा पड़ता है पर जहाँ तक इन्द्रियों की अनुभूति का संबंध है उन्हें उचित सीमा में छूट देकर यह अनुभव कर लेने देना चाहिए कि वह रस लिप्सा निरर्थक भी है और हानिकारक भी।

एक साधु ने एक दिन एक विचित्र आचरण किया इसके कौतुक को देखने के लिए बहुत लोग इकट्ठे हो गये।

उनने एक बड़ा बर्तन भर के कढ़ी पकाई। खाने पर ऐसे जुटे कि हटे ही नहीं। अधिक मात्रा खा जाने पर उलटी हुई। कुल्ला किया और फिर खाने पर जुट गये। इस प्रकार वे सारे दिन कढ़ी खाने, और उलटी करने में लगे रहे। अन्त में उन्होंने बची हुई कढ़ी को कुत्तों के आगे फेंक दिया।

इस अद्भुत प्रसंग का कारण उपस्थित लोगों ने पूछा तो उनने यही कहा कि-बहुत दिन से मन कढ़ी के लिए मचल रहा था। उसे कितनी ही बार समझाया कि मेरी वात प्रकृति-शारीरिक स्थिति में वह हानिकारक है और मानसिक स्थिति में इस प्रकार की लिप्सा अशोभनीय। पर यह ज्ञान चर्चा उसके गले उतरती ही न थी। जब भी कढ़ी देखता मचलने लगता। एकान्त में भी उसी की इच्छा और कल्पना करता। समझाने-बुझाने के प्रयत्न सफल न हुए तो फिर यह निश्चय किया कि मन को वस्तु स्थिति समझ लेने और उसका अनुभव कर लेने का अवसर दिया जाये। आज मैंने वही किया। मनमर्जी जितनी कढ़ी खाने की ही छूट नहीं दी वरन् इस बात के लिए विवश किया कि वह कढ़ी खाने की अति करे। उलटी होने पर भी कढ़ी खाते रहने की प्रक्रिया इसीलिए अपनाई। शाम तक मन को कढ़ी से घोर अरुचि हो गई। उसे बार-बार कहा-अभी और खा-अभी और खा-जब उसने बिलकुल इनकार कर दिया तो फिर बची खुची कुत्ते को डाल दी। अब मन ने वस्तु स्थिति समझ ली। तृप्ति कर ली और घृणा की स्थिति तक कदम बढ़ा लिये। अब उसके ललचाने और मचलने का अवसर न आवेगा।

जहाँ तक इन्द्रिय संयम का प्रश्न है वहाँ तक को मन थोड़ी छूट देकर रसानुभूति का अनुभव प्राप्त कर लेने देना चाहिए। अपने यहाँ गृहस्थ उपयोग के बाद शम, दम, तितीक्षा का विधान बताया गया है। युवावस्था में उपभोग का अवसर मिल जाता है और उस ओर का आकर्षण समाप्त हो जाता है। इसके बाद वानप्रस्थ और संन्यास में संयम साधना ठीक स्वाभाविक और बिना व्यवधान के चलने लगती है। किन्तु यदि बिना उपभोग के बालकपन से ही इन्द्रिय भोग का निषेध रहे तो मन की स्वाभाविक प्रकृति दूसरे को उस मार्ग पर चलते हुए देखकर तीव्र हो उठती है और उस संयम साधना के कभी भी भाव प्रवाह के दबाव से खंडित होने की आशंका बनी रहती है।

जहाँ तक इन्द्रिय संयम का प्रश्न है मन में उपभोग की हानियों को समझना चाहिए और ऐसे अवसरों से बचना चाहिए जिनमें उस प्रकार के उभार उत्पन्न होते हों। पर कड़े प्रतिबन्ध नहीं लगाने चाहिए। युवावस्था में तो विशेष रूप में ढील करनी चाहिए और मर्यादित एवं वैध इन्द्रिय तृप्ति पर कठोर प्रतिबन्ध नहीं लगाने चाहिए। न बहुत आकर्षण न अति का निषेध, इस बीच की मनोभूमि में संयम साधना बहुत ही सरलता के साथ सधती हुई चली जाती है।

निर्धारित लक्ष के महत्व और महात्म्य पर पूरा चिन्तन करना चाहिए। उसके मधुर कल्पना चित्र बनाने चाहिए और इस मार्ग पर चलते हुए लक्ष्य तक पहुँचने पर जो उपलब्धियाँ मिल सकती हैं उनका लाभ कल्पना क्षेत्र में भली प्रकार जमाना चाहिए। सामान्य जीवन क्रम और उस असामान्य आदर्शवादी लक्ष्य की पूर्ति के परिणामों को अलग-अलग देखना-समझना और फिर उनकी तुलनात्मक समीक्षा करना यह सिद्ध कर देता है कि नर-पशु जैसे लोभ-मोहग्रस्त जीवन और आदर्शवादी मार्ग पर चलने पर प्राप्त स्थिति में कितना अधिक अन्तर है। यह कल्पना क्षेत्र जितने प्रखर होंगे-यह तुलनात्मक निष्कर्ष जितना प्रखर होगा, उतना ही महानता का लक्ष्य अपनाने की गरिमा स्पष्ट होती जायगी। तब मन पूरी उत्सुकता और उत्कण्ठा के साथ उस दिशा में लगेगा यह निर्णयात्मक निष्कर्ष जिस आकर्षण को उत्पन्न करता है वही स्थायी होता है और फिर उस दिशा में चलता हुआ मन भागने या भटकने के लिए रस्सी नहीं तुड़ाता। मन के विग्रह का सीधा और सरल मार्ग यही है।


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