ब्रह्माण्ड के प्रतिनिधि इस पिण्ड में यों सभी अवयव और सभी क्रिया-कलाप अनोखे हैं पर ध्रुव केन्द्रों की सत्ता और महत्ता का जितना बखान किया जाय उतना ही कम है। पृथ्वी को जो भी सामर्थ्य मिलती है उसका आधार सूर्य है। सूर्य का शक्ति प्रवाह धरती के जिस मर्म केन्द्र में होकर प्रवेश करता है उस स्थान का नाम उत्तरी ध्रुव है। जिस तरह भोजन मुँह में होकर किया जाता है उसी तरह धरती का मुँह उत्तरी ध्रुव है। चिड़िया अपने छोटे बच्चे को मुँह में पिसा हुआ चारा उगल कर खिलाती रहती है उसी तरह सूर्य रूपी चिड़िया अपने छोटे बच्चे इस भू-पिण्ड को यह सब वैभव प्रदान करती रहती है जिससे उसका जड़ चेतन परिवार इतना सुरम्य बना हुआ है।
वह मुँह-जहाँ होकर यह भूलोक सामर्थ्य ग्रहण करता है उस मुख गह्वर को उत्तरी ध्रुव ही कहना चाहिये। मनुष्य काया रूपी धरती का मुँह ब्रह्म रन्ध्र है। इसके चुम्बकीय केन्द्र बिन्दु को सहस्रारचक्र कहते हैं। धरती पर अनायास ही प्रकृति क्रम से सूर्य की सामर्थ्य बरसती और प्रविष्ट होती है उसी प्रकार हमारा ब्रह्म-रन्ध्र रूप सूर्य अपनी सामान्य क्षमता धरती के प्रतिनिधि मूलाधार चक्र को प्रदान करता रहता है। मानव जीवन की अगणित प्रकट और अप्रकट क्षमतायें इसी कारण प्रकाश में आती हैं और मनुष्य को विभूतिमयी प्रतिभा अपनी गरिमा प्रदर्शित करती हैं। कुण्डलिनी शक्ति को दीप्तिमान अग्नि कहा गया है पर उसका मूल स्रोत सहस्रार चक्र ही है। उसे भी कालाग्नि कहा गया है।
कायगत यह दो अग्नियाँ ही शरीर और मन के माध्यम से विविध विधि क्रिया-कलाप उत्पन्न करती हैं। यह अग्नि सन्तुलन यदि अस्त-व्यस्त, असन्तुलित, असम्बद्ध या शिथिल हो जाय तो मनुष्य हारा हुआ, टूटा हुआ, निराश, हताश और हतवीर्य दिखाई पड़ेगा। वह जीवित भले ही रहे पर उसमें से आशा और स्फूर्ति की चमक एक प्रकार से पलायन ही कर चुकी होगी। ओजस, तेजस, मनोबल, आत्मबल, ब्रह्मवर्चस् की जो दीप्तिमान चिनगारियाँ मनुष्य के भावना क्षेत्र और क्रिया क्षेत्र में उड़ती हुई दिखाई पड़ती है उन्हें इन्हीं दो दिव्य अग्नियों का प्रकाश परिचय कहा जायगा। आध्यात्मिक भाषा में इसे कुण्डलिनी शक्ति की प्रस्फुटित आभा कहकर सम्बोधित किया जाता है।
ध्रुवीय चुम्बकत्व पृथ्वी की मौलिक सम्पदा नहीं है। कुछ दिन पूर्व तक वैज्ञानिक यह समझते थे कि अपनी कक्षा में घूमने से तथा सूर्यताप सम्मिश्रण से यह चुम्बकत्व उत्पन्न होता है। पर अब कैलीफोर्निया विश्व विद्यालय (सैत्रदिगो) के खगोल विज्ञानी डॉ0 डब्ल्यू एक्सफोर्ड ने अपनी दीर्घकालीन शोध के उपरान्त उसे सूर्य से प्रवाहित हो रहे एक निर्झर के रूप में प्रतिपादित किया है। उन्होंने वाशिंगटन की ‘इंटरनेशनल मैनमेटो स्फियर कान्फ्रैन्स में अपना शोध निबन्ध पढ़ते हुए कहा कि सूर्य का शक्ति प्रवाह समस्त धरती पर नहीं वरन् उत्तरी ध्रुव के एक विशेष स्थल पर बरसता है जो ध्रुव प्रभा के रूप में खुली आँखों से भी देखा जा सकता है। वहाँ से वह प्रकाश फिर पृथ्वी के वायुमण्डल तथा अंतर्गर्भ में प्रवेश करके धरती में जीवन उत्पन्न करता है। यह शक्ति प्रवाह इतना तीव्र होता है कि यदि धरती उसे अपने व्यापक क्षेत्र में तत्काल वितरित कर दे तो वह क्षण भर में जल-वल कर भस्म हो जाय।
मानवी काया की ठीक यही स्थिति है चेतना के प्राण सूर्य ‘सविता’ से उसकी दिव्य किरणें ब्रह्मरन्ध्र में प्रवेश करती हैं। वहाँ से वह प्रपात दक्षिण ध्रुव तक बहता चला आता है और वहाँ नियंत्रित, परिष्कृत होकर विभिन्न दिव्य नाड़ियों द्वारा शरीर और मन के विभिन्न क्रिया कलापों का संचालन करने के लिए वितरित हो जाता है। कुण्डलिनी का यही क्रम है। शक्ति वितरण का वही प्रत्यक्ष केन्द्र जननेन्द्रिय मूल में अवस्थित ‘अग्नि गह्वर’ काम बीज ही है। इसी को संग्रह भण्डार कहना चाहिए। जिस प्रकार बड़ी नदियों पर बाँध बनाकर उनका पानी एक विशाल जलाशय में रोक लिया जाता है और फिर वहाँ से नहरें निकाल कर सुविस्तृत भूमि खण्ड की सिंचाई होती है उसी प्रकार सूर्य रूपी हिमालय से निकलने वाली प्राण प्रवाह की सरिता का जल ब्रह्मरन्ध्र से अवतरित होता है। उसे उद्गम स्थल कह सकते हैं। यहाँ से वह प्रवाह मेरुदण्ड में होकर बहता हुआ काम बीज के बाँध में जमा होता है। इस विशाल जलाशय पर नियन्त्रण करने वाले अधिकारी जितना जल जहाँ जिस नहर में भेजकर जिस भूखण्ड को सींचना चाहते हैं उसकी व्यवस्था बना देते हैं। मूलाधार के शक्ति गह्वर में अनन्त भण्डार भरा पड़ा है। यही समय पर कामोत्तेजना के रूप में उछलता, उफनता, लहराता, गरजता दिखाई पड़ता है। यदि उस जल का कुछ उपयोग न किया जाय और ऐसे ही जमा रहने दिया जाय तो वह तोड़-फोड़ कर अपना रास्ता बनाता है। नहरों में काट देने से सिंचाई होने लगती है और बाँध टूटने का खतरा भी चला जाता है। कुण्डलिनी विद्या को इस बाँध जलाशय के उपयोग का उपयुक्त मार्ग ही कहना चाहिए। जो उसे जानते हैं वे सिद्ध पुरुषों जैसा लाभ उठाता है जो अपरिचित रहते हैं उन्हें ऐसे खतरों का सामना करना पड़ता है जिसके लिये पीछे पश्चाताप ही हाथ रह जाय।
दक्षिण ध्रुव को वितरक संस्थान माना गया है। उत्तर ध्रुव से लेकर दक्षिण ध्रुव तक एक ऐसी विद्युत पट्टी है जिसमें असह्य ऊष्मा भरी रहती है। सूर्य से आने वाला शक्ति प्रवाह ध्रुव पर अवतरित होता है। वहाँ टकरा कर उसमें उछाल आता है। जैसे रबड़ की गेंद पूरे वेग से वहाँ टकराने पर उछल जाती है उसी प्रकार यह शक्ति प्रवाह भी उछल कर उस स्थान पर गिरता है जिसे दक्षिण ध्रुव कहते हैं। उछाल के आकाश मार्ग को हम चाहें तो अपने काय-विश्व में मेरुदण्ड कह सकते हैं। ब्रह्मरन्ध्र से टकराकर सविता के दिव्य प्राण उछल कर जिस मार्ग से सञ्चय भण्डार में स्थिर होता है उसे मेरुदण्ड कह सकते हैं। मस्तिष्कगत ऊष्मा को योनि गह्वर तक पहुँचाना मेरुदण्ड का काम है। इस मार्ग की प्रवाह धारा को इड़ा कह सकते हैं। कुण्डलिनी समस्त शरीर को पोषण भेजती है। मस्तिष्क को विशेष रूप से। इस विशेष संचार मार्ग को पिंगला कहा गया है।
उत्तरी ध्रुव में एक विशेष प्रभा मण्डल संव्याप्त रहता है। सूर्य न रहने पर भी वहाँ दीप्तिमान प्रकाश बना रहता है। सूर्य, चन्द्र आदि न होने पर भी यह प्रकाश अस्तित्व बहुत अचम्भे जैसा लगता है। यह चुम्बकीय विद्युत कणों की प्रकीर्णता ही है। यह प्रकाश जैसा दीखने वाला विद्युतीय परिमण्डल एक लम्बी रज्जु माला जैसा होता है। उसकी कई रंग की ज्योतियाँ झिलमिलाती सी दीखती हैं। यह रंग तेजी से परिवर्तित-उद्भूत और तिरोहित होते रहते हैं। अलास्का विश्वविद्यालय के ध्रुव शोध केन्द्र संस्थान ने इस रंग भरी झिलमिल के जो चित्र खींचे वे अपरिचित लोगों के लिए बहुत ही कौतूहल वर्धक थे।
कुण्डलिनी साधना के संदर्भ में जब नादबिन्दु साधना के शिक्षण का समय आवेगा तब बतायेंगे कि इस दिव्य साधना के क्रम विस्तार में जब आज्ञा चक्र में ध्यान एकत्रित किया जाता है तो किस प्रकार रंग-बिरंगी झिलमिल उपजती, उड़ती और विलीन होती दिखती है। यह दिव्य शक्ति संस्थान के पुनर्जागरण का चिह्न माना जाता है। यह झिलमिल उत्तरी ध्रुव की तरह साधक के ब्रह्मरन्ध्र में चुम्बकीय प्रवाह की हलचल को ही प्रमाणित करती है।
सूर्य इन दोनों ध्रुवों को अपनी अत्यधिक शक्ति प्रदान करता है। फिर भी वे इसलिए ठण्डे हैं कि वहाँ सूर्य की रोशनी तथा गर्मी फैलकर नष्ट हो जाती है। लगभग 5000000 वर्ग मील क्षेत्र उत्तरी ध्रुव और 3000000 वर्ग मील क्षेत्र दक्षिणी ध्रुव एक प्रकार का दर्पण क्षेत्र है जहाँ से सूर्य किरणें परावर्तित होकर लौट आती हैं सूर्य की 80 प्रतिशत शक्ति इन ध्रुव प्रदेशों में नष्ट हो जाती है या यों कहना चाहिये कि वहाँ की बर्फ और नम वायु मण्डल में ऊर्जा जज्ब हो जाती है इसलिए यह क्षेत्र जहाँ अत्यधिक शीत वाला है वहाँ अन्दर शक्ति की मात्रा भी बहुत अधिक है।
भगवान मनुष्य को जो भी अनुदान वरदान और अनुग्रह प्रदान करते हैं उनका 80 प्रतिशत भाग इन दोनों ध्रुवों को सूर्यचक्र और अग्निचक्र को ही प्राप्त होते हैं। पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिये कि हमारी ठण्डक, उपेक्षा, अकर्मण्यता, मोह ग्रस्तता में वह सारे दिव्य अनुदान-वरदान निरर्थक चले जाते हैं। उस अनुदान का सदुपयोग कैसे किया जा सकता है और उस माध्यम से सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर कैसे आगे बढ़ा जा सकता है यह विज्ञान कुण्डलिनी योग में भरा पड़ा है।
जब पहली बार वह अन्वेषक लकड़ी के जहाज इन प्रदेशों में पहुँचे तो वे यह देखकर आश्चर्यचकित रह गये कि यहाँ एक मील दूर बैठे आदमी से भी उसी तरह बातचीत की जा सकती है मानो वह बिलकुल पास ही बैठा हो। ट्रैक्टर और विद्युत जनरेटर की आवाजें दसियों मील दूर से सुनी जा सकती है। चलते समय बर्फ में चरमराते जूतों तक की चरमराहट की आवाज एक मील दूर तक सुनाई पड़ती है। लेकिन यह सब होता तभी है जब तापमान शून्य से नीचा होता है। कभी-कभी हवा की परत आकाश में इतनी सघन हो जाती है कि आकाश में उड़ते वायुयान की आवाज भी नीचे नहीं आ पाती। खामोशी और आवाज की परस्पर विरोधी परिस्थितियाँ इन ध्रुवों में देखकर प्रकृति का यह निरालापन देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है।
अपना मनः क्षेत्र यदि साँसारिक विषय विकारों की ज्वलनशील आग से विरत करके शून्य तापमान तक ले जाया जा सके तो इस संसार में कहाँ क्या हो रहा है-कौन क्या कर या सोच रहा है, इसकी सूक्ष्म ध्वनि बहुत स्पष्ट से सुनाई पड़ सकती है और भूतकाल एवं वर्तमान की घटनाओं परिस्थितियों को ही नहीं भविष्य की सम्भावनाओं को भी जाना जा सकता है। यदि अपना मन तपश्चर्या की, योगाग्नि की गरम पट्टी को आकाश से आच्छादित कर ले तो फिर संसार के आकर्षण, प्रलोभन, कौतूहल, भय, मनोविकार के ढोल ही क्यों न बजते रहें उनका एक भी शब्द कान में नहीं आता और घोर कोलाहल भरे वातावरण में रहते हुए भी चित को समाधिस्थ जैसा बनाकर रखा जा सकता है। यह ध्रुवों जैसी परिस्थितियाँ कुण्डलिनी साधना द्वारा उपलब्ध की जा सकती है क्योंकि वस्तुतः शरीरगत ध्रुवों का ज्यों का त्यों लेखा-जोखा ही कुण्डलिनी विज्ञान में सन्निहित है।
कुण्डलिनी उस सार्वभौमिक जीवन तत्व (ठ्ठद्बक्द्गह्ह्यड्डद्य द्यद्बद्धद्ग श्चद्बठ्ठद्गद्बश्चद्यद्गह्य) को कहते हैं जो इस विश्व के कण-कण में चेतना रूप में संव्याप्त हैं। इसके भीतर आकर्षण अट्रैक्शन (्नह्लह्लह्ड्डष्ह्लद्बशठ्ठ)एवं विकर्षण (क्रद्गश्चह्वद्यह्यद्बशठ्ठ) की दोनों ही धारायें विद्यमान हैं। इन्हें स्थूल रूप से विद्युत इलेक्ट्रिसिटी (श्वद्यद्गष्ह्लह्द्बष्द्यब्) और चुम्बक मैगनेटिज्म (रुड्डद्दठ्ठद्गह्लह्यद्व) के रूप में प्रत्यक्ष किया जा सकता है। हर्बर्ट स्पेन्सर के अनुसार इसे जीवन का सार (ऐसेन्स आफ लाइफ) कहा जाना चाहिए। इसका ईसाई धर्म पुस्तक बाइबल में “महान सर्प” के रूप में उल्लेख किया गया है।
साधना शास्त्रों में पवित्र जीवन अग्नि के रूप में कुण्डलिनी शक्ति वर्णन किया गया है। प्रदीप्त अग्नि जिस प्रकार अपने क्षेत्र को ऊष्ण एवं प्रकाशवान बना देती है वैसा ही प्रकाश कुण्डलिनी जागरण का भी होता है।
ब्रह्मज्योतिर्वसुधा मा ब्रह्मस्थानीय उच्चयते।
ततो यः पावको नाम्ना यः सद्भिर्योग उच्चयते।
-मत्स्य पुराण
ब्रह्मज्योति अग्नि ब्रह्म रन्ध्र स्थान में निवास करती है। यह साधकों को पवित्र करने वाली है। यही योगाग्नि है।
चन्द्राग्निरविसंयुक्तो आद्या कुण्डलिनी माता।
हृत्प्रदेशे तु सा ज्ञया अंकुराकारसंस्थिता॥ 27॥
-अग्नि पुराण
चन्द्र और सूर्य की शक्ति से भरी हुई कुण्डलिनी शक्ति हृदय में रहती है उनकी ज्योति अंकुर के आकार की है।
मूलाधारादा ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्त सुषुम्ना सूर्याभा।
तन्मध्ये तटित्कोटिसमा मृणालतन्तु सूक्ष्मा कुण्डलिनी।
तत्र तमोनिवृतिः तदर्शनार्त्सवपापनिवृतिः॥
-मण्डल ब्राह्मणोपनिषद् 1। 2
मूलाधार से लेकर ब्रह्मरन्ध्र तक सूर्य के प्रकाश जैसी सुषुम्ना नाडी फैली हुई है। उसी के साथ कमल तन्तु से सूक्ष्म कुण्डलिनी शक्ति बँधी हुई है। उसी के प्रकाश से अन्धकार दूर होता है और पापों से निवृत्ति होती है।