प्रायश्चित द्वारा आन्तरिक मलीनता का परिशोध

April 1972

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कर्म का फल अनिवार्य है। यह सारी विश्व व्यवस्था कर्म फल की सुनिश्चितता के आधार पर खड़ी है। ईश्वर न्यायकारी कहा जाता है। अदालत का यही कर्त्तव्य है कि वह अपराधी को दण्ड दे और जिसकी क्षति हुई है उसकी पूर्ति कराये। ईश्वर भी यही करता। यदि वह पूजा प्रार्थना करने वालों को बिना दण्ड के छोड़ दिया करे तो उसे न्यायशील कैसे कहा जायगा? खुशामद करने वालों को छूट, न करने वालों का कैद-यह तो विशुद्ध पक्षपात हुआ। भाई-भतीजावाद, यार दोस्तों को विशेष लाभ, ऐसा अँधेर तो ओछे अधिकारी करते हैं। यदि ईश्वर भी वैसा ही करने लगे तो फिर न्याय का अस्तित्व ही क्या रह जायगा। फिर कर्म फल का सिद्धाँत ही कहाँ रहा?

पापों को क्षमा कराने और कर्मफल के दण्ड से बच निकलने की तरकीबें ढूंढ़ने के हेर-फेर में न पड़कर औचित्य, ईमानदारी और बहादुरी का रास्ता यही है कि प्रायश्चित के लिये तैयार हों। अगले जन्मों तक घोर कष्ट सहने और नरक की आग में बुरी तरह जलने की अपेक्षा-साहसपूर्वक प्रायश्चित करके स्वयं ही आगे बढ़ा जाय और स्वेच्छापूर्वक दण्ड भोग कर उस कर्म फल से इसी जन्म में निवृत्ति प्राप्त कर लें। ऐसी हिम्मत और ईमानदारी से अपना अन्तःकरण निर्मल होता है। चित्त पर चढ़ा हुआ भार हलका होता है। समाज में भी इस ईमानदारी की प्रशंसा होती है और खोया हुआ विश्वास तथा सम्मान फिर मिल जाता है। ईश्वर भी उसी सज्जनता का सम्मान करता है और दण्ड की कठोरता को हलकी कर देता है। न्यायालय में कोई अपराधी स्वयं उपस्थित होकर स्वेच्छापूर्वक अपनी गलतियाँ स्वीकार करे और क्षतिपूर्ति करने एवं दण्ड पाने की सहमति प्रकट करे तो निश्चय ही न्यायाधीश उसकी बदली हुई भावना की कद्र करेगा और हलका दण्ड देकर उसका फैसला कर देगा प्रायश्चित इसी प्रक्रिया का नाम है।

धर्मशास्त्रों ने पग-पग पर हर व्यक्ति को यह परामर्श दिया है कि वह अपने पाप कर्मों का फल प्राप्त करने के लिए साहस प्रदर्शित करे और भगवान से समाज के सामने अपने बदले हुए अन्तःकरण की वास्तविकता प्रमाणित करके अपना भविष्य अन्धकार में से निकाल कर उज्ज्वल बना ले। इस संदर्भ में शास्त्रों का पन्ना-पन्ना प्रमाणों से भरा पड़ा है :-

यावंतो जंतवः स्वर्गे तावंतो नरकौकसः।

पापकृद्याति नरकं प्रायश्चितपरांगमुखः॥

गुरुणि गुरुभिश्चैव लघूनि लघुभिस्तथा।

प्रायश्चित्तानि ह्यन्येच मनुः स्वायम्भुवोऽव्रवीत्।

-शिवपुराण

जो मनुष्य अपने किये हुए दुष्कर्मों का कोई भी प्रायश्चित शास्त्रानुसार नहीं किया करते हैं वे ही पापात्मा प्राणी नरक में जाया करते हैं। स्वायम्भुव मनु ने तथा अन्य महर्षियों ने भी बड़े पापों के बड़े प्रायश्चित और छोटे-छोटे पाप कर्मों के छोटे प्रायश्चित बतलाये हैं।

पश्चात्तापः पापकृताँ निष्कृतिः परा।

सर्वेषाँ वर्णितं सद्भिः सर्वपापविशोधनम्॥

पश्चात्तापेनैव शुद्धिः प्रायश्चित्तं करोति सः।

यथोपदिष्टं सद्भिर्हि सर्वपापविशोधनम्॥

प्रायश्चित्तमधीकृत्य विधिवन्निर्भयः पुमान्।

स याति सुगतिं प्रायः पश्चात्तापी न संशयः॥

-शिवपुराण

पश्चात्ताप ही पापों की परम निष्कृति है। विद्वज्जनों ने पश्चात्ताप से सब प्रकार के पापों की शुद्धि होना कथन किया है। पश्चात्ताप करने से जिसके पापों को शोधन न हो, उसे प्रायश्चित करना चाहिये। विद्वानों ने इससे सब पापों का शोधन होना कहा है। विधिपूर्वक अनेक प्रकार के प्रायश्चित करने पर भी मनुष्य भय रहित नहीं हो पाता। परन्तु पश्चात्ताप करने वाले को सुगति की प्राप्ति होती है।

विकर्मणा तप्यमानः पापाद् विपरिमुच्यते।

न तत् कुर्यां पुनरिति द्वितीयात् परिमुच्यते॥

कर्मणा येन तेनेह पापाद द्विजवरोत्तम ।

एवं श्रुतिरियं ब्रह्मन् धर्मेषु प्रतिदृश्यते॥

जो मनुष्य पापकर्म बन जाने पर सच्चे हृदय से पश्चाताप करता है वह उस पाप से छूट जाता है तथा फिर कभी ऐसा कर्म नहीं करूंगा ऐसा दृढ़ निश्चय कर लेने पर वह भविष्य में होने वाले दूसरे पाप से भी बच जाता है।

विप्रवर! शास्त्रविहित (जप, तप, यज्ञ, दान आदि) किसी भी कर्म का निष्काम भाव से आचरण करने पर पाप से छुटकारा मिल सकता है। ब्रह्मन् धर्म के विषय में ऐसी श्रुति देखी जाती है।

शातातपस्मृति में प्रायश्चित्य की आवश्यकता एवं अनिवार्यता का प्रतिपादन इस प्रकार किया है :-

प्रायश्चित विहीनानाँ महापातकिनाँ नृणाम ।

नरकान्ते भवेज्जन्म चिन्हाँकितशरीरिणाम्।

प्रतिजन्म भवेतेषाँ चिन्हं तत्पापसूचितम् ।

प्रायश्चित्ते कृते याति पश्चात्तापवताँ पुनः॥

महापातकजं चिन्हं सप्तजन्मनि जायते।

उपपापोद्भवं पंच त्रीणि पापसमुद्भवम्॥

दुर्ष्कमजा नृणाँ रोगा यान्ति चोपक्रमैः शमम्।

जपैः सुरार्चनेर्होमैर्दानैस्तेषाँ शमोभवेत् ॥

पूर्वजन्मकृतं पापं नरकस्य परिक्षये।

बाधते व्याधिरुपेण तस्य जप्यादिभिः शमः॥

कुष्ठञ्च राजयक्ष्मा च प्रमेहो ग्रहणा तथा ।

मूत्र कृच्छ्राश्मरी कासा अतीसारभगन्दरौ॥

दुष्टब्रणं गण्डमाला पक्षाधातोऽक्षिनाशनम् ।

इत्येवमादयो रोगा महापापोद्भवाः स्मृताः॥

किये हुये पापों के प्रायश्चित न करने वाले, मनुष्यों का जन्म अंकित शरीर वाले महान पातक करने वाले मनुष्यों का जन्म नरकान्त में होता है। महान पातक का सूचक वह चिन्ह उनको प्रत्येक जन्म में रहता है। किये हुये पाप का पश्चात्ताप करने वालों का प्रायश्चित कर लेने पर वह चला जाता है । महापातक के कारण होने वाला चिन्ह सात जन्म तक रहता है। उप पाप से होने वाला पाँच जन्म तक तथा साधारण पाप से समुत्पन्न चिन्ह तीन जन्म तक रहता है। मनुष्यों के दुष्कर्म से होने वाले रोग उपक्रमों के द्वारा शान्त होते हैं। ऐसे उन रोगों की शान्ति जप, देवार्चन होम और दानों के द्वारा होती है पूर्व जन्म में किया हुआ पाप नरक के परिक्षय हो जाने पर मनुष्यों को किसी व्याधि के रूप में उत्पन्न होकर सताता है और उसका उपशमन जपादि द्वारा होता है। कुष्ठ, राजयक्ष्मा, प्रमेह, संग्रहणी, मूत्र कृच्छ, पथरी, कास, अतिसार, भगन्दर, दुष्टव्रण, गण्डमाला, पक्षाघात और नेत्रहीनता इत्यादि रोग महापातकों के कारण ही उत्पन्न होते हैं।

जलोदरं यकृत प्लीहा शूलरोगव्रणानि च ।

श्वासजीर्णज्वरच्छर्द्दिभ्रममोहगलग्रहाः ।

रक्तार्वुद विसर्पाद्या उपपापोद्भवा गदाः ॥

दण्डापतानकश्चित्रपुः कम्पविचर्चिकाः ।

वल्मीकपुण्डरीकाद्या रोगाः पापसमुद्भवा।

अर्शआद्या नृणाँ रोगा अतिपापाद्भवन्ति हि।

अन्ये च बहवो रोगा जायन्ते वर्णसंकराः ॥

उच्यन्ते च निदानानि प्रायश्चित्तानि वै क्रमात ।

शातातपस्मृति 1 से 10

पापों का प्रायश्चित न करने वाले मनुष्य नरक को तो जाते ही हैं अगले जन्मों में उनके शरीरों में उन पापों के चिन्ह भी प्रकट होते हैं।

प्रायश्चित न किया जाय तो अनेकों जन्मों तक वे पाप चिन्ह प्रकट होते हैं। उसका निवारण प्रायश्चित करने पर ही होता है।

महापापों के चिन्ह सात जन्मों तक मध्यम पापों के चिन्ह पाँच जन्मों तक और छोटे पापों के चिन्ह तीन जन्मों तक रहते हैं।

दुष्कर्मों से उत्पन्न प्रारब्ध जन्म रोग प्रायश्चित, जप, पूजन, होम, दान आदि से शान्त हो जाते हैं।

कुष्ठ, राजक्षया, प्रमेह, संग्रहणी, मूत्र कृच्छ, पथरी, श्वांस, भगंदर ,नासूर, गण्ड माला, पक्षाघात, अन्धता जैसे भयंकर रोग महापातकों के फलस्वरूप होते हैं।

जलोदर, तिल्ली, यकृत, शूल, व्रण, श्वास, अजीर्ण, ज्वर, जुकाम, भ्रम, मोह, जलग्रह रक्तार्वुर, विसर्य, आदि रोग उप पातकों के कारण होते हैं।

दण्ड पतानक, चित्रबपु, कम्प विशूचिका, पुण्डरीक आदि रोग सामान्य पापों के कारण होते हैं। इनके अतिरिक्त सम्मिश्रित रोग भी होते हैं।

इन सब प्रायश्चित विधान करना चाहिये।

अकृत्वा विहितं कर्म्म कृत्वा निन्दितमेव च दोषमाप्नोति पुरुषः प्रायश्चतं विशोधनम् ॥ प्रायश्चितमकृत्वा तु न तिष्ठेद् ब्राह्मणः क्वचित् यद्ब्रू युर्ब्राह्मणाः शान्ताः विद्वाँसस्तत्समाचरेत्।

कूर्म पुराण

निन्दित हेय कुकर्म करने पर मनुष्य को पाप लगता है। उसका शोधन प्रायश्चित द्वारा करना चाहिए।

श्रेष्ठ विद्वान और तपस्वी ब्रह्म वेत्ताओं से प्रायश्चित पूछना चाहिए और तदनुसार व्यवस्था करनी चाहिए ।

कर्म फल तो भोगना ही पड़ेगा चाहे अच्छा से भोगो चाहे अनिच्छा से। दंड के भागी बन कर कर्म फल भोगने की अपेक्षा वैसी स्थिति आने पूर्व स्वयं ही प्रायश्चित द्वारा उसे भोग लेना, अधिक सरल, सुखद और श्रेयस्कर है। मात्र धर्म या ज्ञान के पठन - श्रवणों से दुष्कर्मों से निवृत्ति नहीं हो सकती ।

मैले कुचैले गन्दे कपड़े जिन्हें किसी का मन देखने छूने पहनने को नहीं करता उसे शुद्ध आकर्षक और पहनने योग्य स्थिति में बदल देना धोबी का काम है। हेय स्थिति को श्रेय में बदल देने का चमत्कार धोबी का हाथ ही कर दिखाता है। यह कार्य प्रायश्चित प्रक्रिया का है वह मनुष्यों की गिरी गन्दी जीवन स्थिति का काया कल्प जैसा परिवर्तन करती है और देखते-देखते उच्च भूमिका में पहुँचा देती है ।

धोबी कपड़े को गरम पानी में डालता है, उसका मैल फुताता है, साबुन से गंदगी को काटता है। पीटता है। इसके बाद कलप लगा कर स्त्री कर देता है। इतने क्रिया-कलाप में होकर गुजर जाने पर गंदा पुराना मैला कपड़ा-नये से भी अधिक आकर्षक बन जाता है। प्रायश्चित में ठीक यह सब करना होता है ।

अपनी गुण कर्म स्वभाव की मलीनताओं को समझना, इस जीवन में किये हुए पापों को स्मरण करना, उनके लिए दुखी होना और यह सब छोड़ने के लिए प्रबल तड़पन का उत्पन्न होना यह गरम पानी में कपड़े को मन में डालना है।

दबे हुए छिपे हुए मैल को फुलाकर स्पष्ट कर देना। अपनी जो बुराइयाँ-भूले, पाप कृतियाँ छिपाकर रखी थी उन्हें प्रकट कर देना । मन में दुराव की कोई गाँठ न रखना, भीतर बाहर से एक सा हो जाना यह मैल का फुलाना है। आज की स्थिति में सर्वसाधारण के सम्मुख अपने दुश्चरित्र प्रकट कर सकने का साहस न होता हो तो कम से कम एक शोधक मार्गदर्शक के सम्मुख तो सब कुछ कह ही देना चाहिए। पाप का प्रकटीकरण पाप को हलका करता है और चित पर से भारीपन का बोझा साबुन लगाना भावी जीवन की रीति-नीति निर्धारित करना है। प्रायश्चित की सार्थकता तभी है जब पिछली गतिविधियों को बदलकर श्रेयता के पथ पर चलने का निश्चय हो। यह निश्चय ही साबुन है। स्थूल साबुन ऐसा व्यक्ति हो सकता है, जिसे इस योग्य समझा जाय, जिसके सामने पाप प्रकट किये जायें और जिसके परामर्श से प्रायश्चित विधान का निश्चय किया जाय ।

लकड़ी से पिटाई पानी में धुलाई प्रायश्चित की तपश्चर्या जिसे पिछली भूलों के दंड स्वरूप स्वेच्छापूर्वक किया जाता है। शारीरिक और मानसिक सुविधाओं से कुछ समय के लिए अपने को वंचित कर देना, यही तप कहलाता है किस कर्म के लिए किस स्थिति के व्यक्ति को क्या तपश्चर्या करनी चाहिए, यह विषय बहुत ही सूक्ष्म है। इसका निर्णय किसी तत्व ज्ञानी से ही कराना चाहिए अलग स्थिति के व्यक्तियों के लिए न एक ही दुष्कर्म की गरिमा भारी हलकी होती है, दंड के लिए भी शारीरिक, मानसिक स्थिति का ध्यान रखना पड़ता है। यह निर्णय स्वयं नहीं करना चाहिए वरन् किसी तत्व ज्ञानी से ही कराना चाहिए ।

कलप लगाना, स्त्री करना यह है कि जो क्षति समाज को पहुँचाई है उसकी पूर्ति के लिए दान, त्याग, ऐसा कार्य या अपनी जैसी स्थिति हो उसके अनुसार पुण्य परमार्थ के कार्य करने चाहिए। इससे उस ऋण से मुक्ति मिलती है जो अनीति द्वारा अपहरण करके अपने सिर पर एकत्रित किया था। जो कभी न कभी ब्याज समेत चुकाना ही पड़ता। अच्छा यही है कि उसे ईमानदारी और स्वेच्छा पूर्वक इसी जन्म में चुका दिया जाये, कलप लगाना यही है।

स्त्री करने का अर्थ है भावी जीवन की रीति-नीति का व्यवस्था पूर्वक निर्धारण। इसमें सोचने का ढंग दृष्टिकोण बदलना और कार्य पद्धति का हेर-फेर, यह दोनों ही बात सम्मिलित हैं। शरीर की क्रियायें बदलें मन न बदले तो भी काम नहीं चलेगा और मन बदल जाय शरीर वही है कर्म करता रहे तो भी वह विडम्बना ही है। दोनों की परिवर्तित स्थिति को भावी जीवन की रीति-नीति निर्धारित करती है और जिस पर चलने के लिए सुदृढ़ निश्चित किया जाता है उसी की सार्थकता है। प्रायश्चित का आरम्भ जीवन शोधन की तड़प से आरम्भ होता है मध्य में शोधनात्मक क्रिया कृत्य करना पड़ता है और अन्त में भावी जीवन की रीति-नीति निर्धारित करने के रूप में उसकी पूर्णाहुति करनी पड़ती है। सर्वांगीण प्रायश्चित की यही समग्र प्रक्रिया है।

प्रायश्चित के लिए क्या करना होता है। इसकी तीन प्रक्रिया हैं। एक तो अपने मन से ही जो दुष्कर्म छिपा कर रखे हैं दूसरों के बताये नहीं है, उसे उचित तो यही है कि सर्वसाधारण पर प्रकट कर दिया जाय। इससे अपने मन में पड़ी हुई दुराव की ग्रंथियां खुल जाती हैं समाज को धोखे में रखने की कुचेष्टा का अन्त हो जाता है। यदि पाप के कारण अपयश या अविश्वास मिलना चाहिए तो वह सामाजिक दण्ड मिल जाता है। इस प्रकार मन का आधा बोझ हलका हो जाता है। यदि इतना साहस न हो, समाज उतना उदार नहीं दीखता कि प्रायश्चितकर्ता की वर्तमान मनः स्थिति की श्रेष्ठता को समझकर उसे पिछली भूलों के लिए क्षमा कर दे। शत्रु उस प्रयत्न का अनुचित लाभ उठायेंगे ऐसे आशंका हो तो इन पापों का प्रकटीकरण किन्हीं श्रेष्ठ महापुरुषों के सामने अवश्य ही कर देना चाहिए और उनके परामर्शानुसार बताये हुए पाप दण्ड भुगतने के लिए साहस करना चाहिए।

प्रायश्चित का दूसरा कदम है तपश्चर्या एवं तितीक्षा द्वारा अपने आप को शारीरिक एवं मानसिक कष्ट देना। चांद्रायण व्रत, कृच्छ चांद्रायण व्रत, संतापन व्रत, पंचगव्य, प्राशन, केश मुँडन, तीर्थ पद यात्रा, मौन, ब्रह्मचर्य, भूमि शयन, शीत सहन, ग्रीष्म सहन, भूमि शयन आदि तपश्चर्या के कितने ही साधन विद्यमान हैं, उन्हें अपनी सामर्थ्य एवं स्थिति के अनुसार करना चाहिए।

तीसरा कदम है ऋण विमोचन। अर्थात् समाज को जितनी हानि उस पाप कर्म द्वारा पहुँचाई है उसकी अन्य प्रकार से क्षति प्रयोजन के लिए उसे लगा देना चाहिए इस प्रकार वह हेय उपार्जन जो अपने पास ऋण रूप जमा था उसे पुण्य परमार्थ द्वारा समाज को वापिस लौटाकर ऋण मोचन हो सकता है। शास्त्रों में यही तीन प्रायश्चित की प्रक्रियाएं बताई गई हैं-

योऽन्यथा संतमात्मानमन्यथा सत्सु भाषते।

स पापकृत्तमो लोके स्तेन आत्मापहारकः।

-मनुस्मृति

जो अपनी वस्तुस्थिति को छिपाता है। जैसा कुछ है उससे भिन्न प्रकार का प्रकट करता है वह चोर, आत्म हत्यारा और पापी कहलाता है।

कृत्वा पापं न गूहेत गुह्यमानं विवर्द्धते।

स्वल्पं वाथ प्रभूतं वा धर्मविद्धयो निवेदयेत॥

ते हि पापे कृते वेद्या हन्तारश्चैव पाप्मनाम्।

व्याधितस्य यथा वैद्य बुद्धिमन्तो रुजापहाः

-पारासर स्मृति

पाप कर्म वन पड़ने पर उसे छिपाना नहीं चाहिए छिपाने से वह बहुत बढ़ता है। पाप छोटा हो या बड़ा उसे किसी धर्मज्ञ से प्रकट अवश्य कर देना चाहिए इस प्रकार उसे प्रकट कर देने से पाप उसी तरह नष्ट हो जाते हैं जैसे चिकित्सा करा लेने पर रोग नष्ट हो जाते हैं।

तस्मात् प्रकाशयेत् पापं स्वधम सतत चरेत्।

क्लीवों दुःखी च कुष्ठी च सप्त जन्मानि वै नरः॥

परासर स्मृति

पाप को छिपाने से मनुष्य, सात जन्मों तक कोढ़ी, दुःखी, नपुंसक होता है। इसलिए पाप को प्रकट कर देना ही उत्तम है।

आचक्षाणेनत्पापमेतत्कर्म्मास्मिशाधिमाम्।

वह अपने किये हुए पाप को भी मुँह से कहता हुआ दौड़े कि मैं ऐसे कर्म के करने वाला हूँ मुझे दण्डाज्ञा प्रदान कीजिए।

चान्द्रायणन्तु सर्वेषाँ पापनाँ पावनं परम्।

कृत्वा शुद्धिमवाप्नोति परमं स्थानमेव च॥

सम्वर्त स्मृति

एक चांद्रायण व्रत ही ऐसा है जो पापों की अपवित्रता से मनुष्य को पवित्रता की ओर ले जा सकता है। इस तपस्या के द्वारा आत्मा शुद्धि करने वाला परम पद पाता है।

उपवासपराकादिकृच्छृचान्द्रायणादिभिः।

शरीरशोषणम्प्राहस्तापसास्तप उत्तमम्॥ कू.पु.

उपवास पराक आदि तथा कृच्छ चान्द्रायण आदि के द्वारा जो शरीर का शोषण किया जाता है उसी को तापसा लोग उत्तम तप कहते हैं।

प्राजापत्येन कृच्छ्रेण ततः पापात्प्रमुच्यते।

वतिक्रमाश्च ये केचिद्वाँमनः कायसंभवाः॥

सद्भिः सह विनिश्चित्य यद्ब्रूयुस्तत्समाचरेत्॥

धर्म अतिक्रमों के होने पर प्राजापत्य कृच्छ व्रत करना चाहिए। इसके करने से वह पाप से मुक्त हो जाता है। ये व्यतिक्रम जो कोई भी हों मन-वाणी और कर्म के द्वारा उत्पन्न होने वाले समझे जाते हैं सत्पुरुषों के साथ इनके प्रायश्चितों के विषय में विशेष निश्चय करके जो भी कुछ वे कहें उसे ही करना चाहिए।

ग्रहीता हि गृहीतस्य दानाद्वै तपसा तथा।

पापसंशोधनं कुर्यादन्यथा रौरवं व्रजेत् ॥

जो धन अनीति पूर्वक लिया है उसे दान द्वारा लौटा देना चाहिए और तपश्चर्या द्वारा उस कुकर्म का प्रायश्चित करना चाहिए। ऐसा न करने पर वह संचित पाप रौरव नरक में धकेलता है।

अग्निहोत्रं तपः सत्यंवेदानाँचैवसाधनम्

आतिथ्यंवैश्यवदेवंचइष्टमित्यभिधीयते॥

वापीकूपतडागनिदेवत यतनानिच।

अन्नप्रदानमर्थिभ्यः पूर्तभित्यभिधीयते॥

मार्कण्डेय पुराण

अग्निहोत्र, तप, सत्य, वेदाध्ययन तथा अतिथि सत्कार यज्ञ कर्म इष्ट कर्म कहे जाते हैं। कुआँ, बावड़ी, मन्दिर, अन्न, वस्त्र आदि का दान यह पूर्ति कर्म है। इष्ट और पूर्ति कर्म सदा करते रहने चाहिए।

पाप कर्म आध्यात्मिक प्रगति में प्रधानतया बाधक रहते हैं। इनके कारण जप तप आदि से सफलता नहीं होती। ईश्वर की ओर मन एकाग्र नहीं होता पर यदि चित को प्रायश्चित विधान द्वारा निर्मल बना लिया जाय तो आत्मशान्ति और साधनात्मक सफलता का द्वारा खुल जाता है।


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