गुरुदेव क्यों आये? क्यों चले गये?

April 1972

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गत मास गुरुदेव का आकस्मिक आगमन हुआ। वे शान्तिकुँज आये और थोड़े समय यहाँ रहकर चले गये। यों उनने हरिद्वार का आश्रम विश्व की दीप्तिमान आत्माओं से संपर्क बनाये रहने, उन्हें बल और परामर्श देते रहने, विभिन्न वर्गों और क्षेत्रों की गुत्थियाँ सुलझाने के लिए ही बनाया है। वे आरम्भ से ही घोषित करते रहे हैं कि जब-जब उन्हें आवश्यकता अनुभव हुआ करेगी, तब जितने दिन आवश्यक होगा उतने दिन वे यहाँ ठहरा करेंगे और अन्य समय अपने भावी जीवन के साधन क्षेत्र में तत्पर रहा करेंगे। पर इस बार उनका आना आकस्मिक ही हुआ।

वसन्त पर्व तक यहाँ न आने का उनका प्रतिबन्ध था सो पूर्ण हो चुका था। इस बीच उनने अपना अति महत्वपूर्ण कार्य सम्पन्न कर लिया था। बंगला देश के मुक्ति संघर्ष के दाव पर लगे हुए भारत के भविष्य के प्रति वे अति सतर्क रहे और राष्ट्र के जीवन-मरण जैसे उस प्रश्न को हल करने के लिए दिव्य शक्तियाँ जो काम कर रहीं थी उसके प्रमुख पात्र के रूप में संलग्न रहे। वस्तुस्थिति ऐसी ही थी। जिसमें वसन्त पर्व से पूर्व उनका आना हो भी नहीं सकता था। फिर वह दिन उनके जीवन लक्ष्य की मञ्जिल पर एक-एक कदम बढ़ते चलने का दिन भी रहा है। अपने संबंध में भावी कार्यक्रम निर्धारित करने से लेकर नव निर्माण के अपने क्रिया-कलाप की दिशा निश्चित करने तक का शुभ मुहूर्त था। ऐसी दशा में इससे पूर्व उनका आना कैसे हो सकता था? उस पर्व पर वे परिजनों को झकझोरने के लिए कुछ विशेष प्रयास करने और सजग आत्माओं के साथ संपर्क बनाने में संलग्न रहे। यह सभी आवश्यक और महत्वपूर्ण कार्य थे जो उन्होंने यथा समय सम्पन्न कर लिये। इस समय उनके आने का प्रत्यक्ष कारण मेरा स्वास्थ्य था। वह अकस्मात बिगड़ा। हृदय के कई अत्यन्त घातक दौरे आये। वे असामान्य थे। जहाँ तक कष्ट सहने का प्रश्न है वहाँ तक सारा जीवन तितीक्षा के अभ्यास में लगा है। गुरुदेव की छाया में रहकर अधिक नहीं तो इतना तो सीखा ही है कि आगत आपत्तियों के समय धैर्य, साहस और विवेक को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहना चाहिए। व्यथा को इस तरह दबाये रहना चाहिए कि समीपवर्ती किसी अन्य को उसका आभास न होने पाये। मल-मूत्र त्याग की क्रिया दूसरों को जुगुप्सा उत्पन्न करती है, इसलिए उसे छिपाकर किया जाता है। प्रजनन प्रकरण भी गुप्त रखा जाता है। कारण यही है कि उसे देखकर दूसरों के मन में कुरुचि उत्पन्न होती है। कष्टों की प्रक्रिया भी ऐसी है। मानव जीवन में सुखों के साथ दुःखों का भी युग्म है। सम्पत्ति ही नहीं विपत्ति भी भगवान मानव कल्याण के लिए भेजते हैं। माता दुलार भी करती है और चपत भी लगाती है। उसकी दोनों ही क्रियायें बालक के-मनुष्य के हित में होती हैं, यह तथ्य असंख्य बार समझा और हृदयंगम किया गया है। गुरुदेव के संपर्क में ऐसे ही पाठ पढ़ती रही हूँ कि रुदन को मुस्कान में कैसे बदला जाना चाहिए। इस बार हृदय रोग के दौरे हुए उन्हें चिकित्सकों ने एक स्वर से प्राणघातक ठहराया और उनसे बच निकलने पर आश्चर्य प्रकट किया।

उस विपत्ति काल में धैर्य, विवेक और साहस को दृढ़तापूर्वक अपनाये रहने का शक्ति भर प्रयत्न करने पर भी यही विदित हो रहा था कि अब शरीर और प्राण अपना संबंध विच्छेद करने जा रहे हैं। यों गुरुदेव की प्रत्यक्ष निकटता का अभाव भी कम कष्टकारक नहीं रहा है। वे जिस स्थिति में रहते हैं और मुझे जिस स्थिति में रहना पड़ता है उसे राम वन गमन के पश्चात् भरत की मनोवेदना से तौला जा सकता है। उनकी अप्रत्यक्ष समीपता को छीन सकना तो किसी की भी-स्वयं उनकी सामर्थ्य में नहीं है-पर प्रत्यक्ष समीपता निरर्थक हो सो बात भी नहीं। उसकी भी अपनी आवश्यकता और उपयोगिता है। वह छिन जाने से भीतर ही भीतर सूनेपन की धुन्ध छा गई है। वे किस कष्ट में रहते हैं और मैं किस सुविधा साधनों के बीच रहती हूँ, यह असमानता कई बार रुला देती है, लगता है कि अपना बहुत बड़ा वैभव कहीं चला गया है और उसका स्थान शून्य की स्तब्धता ने ले लिया है, पर हृदय रोग के दौरे के समय यह बात भाव चिन्तन तक सीमित न रह कर और आगे बढ़ गया। लगा कि शरीर और प्राण ही अब विलग होने जा रहे हैं।

ऐसे समय में एक ही इच्छा थी कि उनके प्रत्यक्ष दर्शन करते हुए ही नेत्र बन्द हों। समर्पित काया और आत्मा का उन्हीं के हाथों समापन हो और उसके बाद जो कुछ बच जाय सो उन्हीं में लीन हो जाय। उस विपत्ति की घड़ी में यह अनुरोध उन तक पहुँचाना पड़ा। यों अपनी इच्छाओं और आवश्यकताओं के लिए जीवन भर कभी उन पर रत्ती भर भी दबाव नहीं पड़ने दिया है। उनकी इच्छा और व्यवस्था में सहायक न सही कम से कम बाधक कभी भी नहीं बनी हूँ। ऐसी दशा में उनकी तप साधना में व्यतिरेक उत्पन्न करने जैसा रुचा जरा भी नहीं पर विवशता ने यह करा लिया। लाचार होकर ही मैंने उन्हें पुकारा कि यदि सम्भव हो तो इस घड़ी में वे कितनी प्रकार उपस्थित होने की कृपा करें। पत्नी के नाते नहीं-उनकी साधिका के नाते, अनन्य साधनारत-अकिंचन आराधिका की तरह ही यह इच्छा व्यक्त करने का साहस कर सकी।

जैसे ही पुकार उन तक पहुँची, वे अविलम्ब शान्तिकुँज उपस्थित हो गये। शारीरिक कष्ट तो उनके आगमन के समय भी बहुत था पर मानसिक कष्ट उनके सामने आते ही भाव भरे आँसुओं के साथ बह गया। कुछ समय वे यहाँ ठहरे। उनकी करुणा और ममता के साथ बरसते हुए अमृत कण कितनों की आत्माओं को जीवनदान देते हैं। मुझे तो उस काय कष्ट से भी त्राण मिल गया। उनके आगमन के उपरान्त भी कुछ समय कष्ट रहा। पर वह क्रमशः हलका होता चला गया और वह दिन आ गया कि वे प्रयोजन पूरा करने के लिए पुनः वापिस लौट गये।

आहार-विहार का सन्तुलन रखने से आमतौर पर रोग नहीं होते। हम लोगों को भी उस तरह के काय कष्टों में फँसने का अवसर नहीं आता। इस बार तो कुछ कारण ही दूसरा था। स्वामी रामकृष्ण परमहंस का अन्त गले के कैन्सर से हुआ। वह न तो उनके आहार विहार का व्यतिक्रम था और न प्रारब्ध भोग अथवा देवी प्रकोप। वे अपनी उपलब्ध तप पूँजी की सीमा से अधिक खर्च भावावेश में करते रहे। भले ही वह जन कल्याण के लिए किया गया हो पर प्रकृति की मर्यादा का व्यतिक्रम तो हुआ ही। आमदनी से अधिक खर्च करने वाले की जो दुर्दशा होती है वह उनकी भी हुई।

अपने सामने भी एकमात्र कारण वही था। पिछले दिनों परिवार के लिए जितना अनुदान आवश्यक था वह दिया तो पूरा गया पर उसका उपार्जन उतना न हो सका। अखण्ड दीपक पर कुमारी कन्याओं के माध्यम से शान्तिकुँज में जो अखण्ड गायत्री जप-24 लक्ष के 24 महापुरश्चरणों के निमित्त चल रहा है, उसके अतिरिक्त अपनी उपासना थोड़ी सी ही हो पाती है। अधिकाँश समय तो पत्रिकाओं के सम्पादन, पत्रों के उत्तर तथा आगन्तुकों के स्वागत सत्कार में ही निकल जाता है। गुरुदेव ने अपनी सारी शक्ति विश्व महत्व के कार्यों में पूरी तरह लगा रखी थी। विशाल परिवार की विविध आवश्यकतायें पूरी करने का भार मेरे ऊपर आ पड़ा। शक्ति कम और बोझ अधिक पड़ने से अपना ढाँचा चरमराने लगा तो उसमें कुछ आश्चर्य भी नहीं था। यही है अपने इन दिनों के रोग-प्रकोप का कारण।

अब स्थिति बहुत कुछ काबू में आ गयी है। गुरुदेव के अनुदान की मात्रा बढ़ जाने से परिजनों की आत्मिक और भौतिक सहायता के लिए जो किया जाना चाहिए उसे अपेक्षाकृत अधिक अच्छी तरह निभाया जा सकेगा।

गुरुदेव केवल मेरे लिए ही आये हों और परिवार के लिए कुछ सन्देश निर्देश न दिये हों सो बात नहीं। संयोगवश जिन लोगों से भेंट हो गयी उन्हें वे व्यक्तिगत रूप से भी कुछ बता गये हैं। शेष सभी लोगों के लिए कुछ सन्देश दे गये हैं उनका उल्लेख इन पंक्तियों में किया जा रहा है। यों अखण्ड-ज्योति का-मेरा अस्तित्व अब केवल उनकी सन्देश वाहिका के रूप में ही है। प्रेरणा स्रोत वे ही हैं। जो कुछ किया जा रहा है-पत्रिकाओं में जो छपता है उसे प्रकारान्तर से गुरुदेव का ही प्राण प्रवाह मानना चाहिए। अपना कार्य तो उनके संकेत सन्देशों को कार्यान्वित करना ही है।

परिवार को लोक मंगल के लिए अधिक सक्रिय होना चाहिए यह इच्छा उन्होंने बार-बार व्यक्त की। यों जो कुछ किया जा रहा है उसे भी नगण्य नहीं कहा जा सकता, पर जीवन निर्वाह के अतिरिक्त बची हुई शक्तियों की जमाखोरी और फिजूल खर्ची बन्द करके उसे युग प्रयोजन के लिए नियोजित कर दिया जाय तो बाहर के लोगों की बात छोड़िए, अपना छोटा सा परिवार ही-राष्ट्र निर्माण ही नहीं, विश्व निर्माण भी असंदिग्ध रूप से कर सकने में भली प्रकार समर्थ हो सकता है।

हम में से अधिकाँश भगवान पर-संसार पर अहसान करने के लिए-यश और महत्व प्राप्त करने के लिए यत्किंचित् सेवा कार्य बड़ी कठिनाई अनुभव करते हुए-अन्यमनस्क भाव से करते हैं। कारण यह कि सारा ध्यान व्यक्तिगत महत्वाकाँक्षाओं की पूर्ति में लगा रहता है। भौतिक साधनों की अधिकाधिक मात्रा-विलासिता और अहंता की तृप्ति ही जीवन लक्ष्य बन कर रह जाती है उसी में सारा मनोयोग नियोजित रहता है। स्त्री पुत्र तक ही समस्त संसार सीमित दिखाई पड़ता है। सुखी और समृद्ध बनने के लिए इस संसार में दो ही साधन दिखाई पड़ते हैं-एक स्त्री दूसरे बच्चे-कर्त्तव्य पालन तो उनके लिए भी किया जाना चाहिए, पर जीवन की समस्त विभूतियाँ इन्हीं दो पर न्यौछावर कर दी जायें यह सर्वथा अवाँछनीय है। मनुष्य के कर्त्तव्य इससे बाहर भी हैं और उन्हें पूरा भी किया जाना चाहिए।

गुरुदेव परिजनों से अपेक्षा करते रहे हैं और इस बार मेरे माध्यम से विशेष अनुरोध किया है कि लोक मंगल के कर्त्तव्यों को भी अपने नित्यकर्म में ही जोड़ लें और उसकी पूर्ति भी उसी तरह करें जैसे अपनी शारीरिक आर्थिक और पारिवारिक समस्यायें हल करने के लिए की जाती है। स्वार्थपरता की संकीर्णता में ही डूबे रहना आपा-धापी की कीचड़ में ही कुलबुलाते रहना मानवीय गरिमा को देखते हुए किसी भी प्रकार शोभनीय नहीं। हमें परमार्थ प्रयोजन को जीवन लक्ष्य के साथ अविच्छिन्न रूप से जुड़ा हुआ रखना चाहिए। मनुष्य की सुख-शान्ति सामाजिक परिस्थितियों पर निर्भर है, अतएव हर व्यक्ति को सामाजिक उत्कर्ष के लिए व्यक्तिगत सुख-सुविधाओं से भी अधिक प्रयत्नशील रहना चाहिए। कहना न होगा कि युग निर्माण योजना की विचारणा और प्रक्रिया व्यक्ति एवं समाज को समग्र रूप से समुन्नत करने में असंदिग्ध रूप से सर्वांगपूर्ण है। इसमें भाग लेना इस युग की सबसे बड़ी-सबसे महत्वपूर्ण और सबसे आवश्यक साधना है। परिवार के प्रत्येक परिजन को पूरे उत्साह के साथ इसमें भाग लेना चाहिए।

आत्म साधना में ईश्वर उपासना, आत्म चिन्तन, आत्मा और परमात्मा का मिलन प्रधान रूप से सम्मिलित रहना चाहिए। जप, ध्यान, पूजन वन्दन की क्रिया नियमित रूप से चलनी चाहिए, पर उसमें भावनाओं का गहरा पुट रहना चाहिए। लकीर पीटने की चिह्न पूजा अभीष्ट प्रतिफल उत्पन्न नहीं कर सकती। भौतिक महत्वाकाँक्षाओं से जितनी विरक्ति होगी उतनी ही आत्मिक विभूतियों के सम्पादन में अभिरुचि एवं तत्परता बढ़ेगी। इस तथ्य को भली-भाँति समझ लिया जाना चाहिए। अस्तु उपासना का कर्मकाण्ड ही सब कुछ नहीं मान लिया जाना चाहिए, वरन् उसके प्रयोजन की उत्कृष्टता बनाये रहनी चाहिए। यदि ईश्वर को रिश्वत और खुशामद के बल पर फुसला कर अपने भौतिक स्वार्थ साधनों का जाल बिछाया जा रहा है तो समझना चाहिए कि वह भक्ति, साधना, उपासना से हजारों कोसों दूर भौतिक मायाजाल है, जिससे आत्म प्रवञ्चना के अतिरिक्त और कुछ प्रयोजन सिद्ध नहीं होता।

आत्म चिन्तन, आत्म सुधार, आत्म निर्माण, आत्म विकास के लिए अन्तरंग जीवन को समर्थ, सशक्त बनाने के लिए, अन्तर्मुखी होना अत्यन्त आवश्यक है। अपने स्वरूप, लक्ष्य, कर्त्तव्य और उपलब्ध जीवन विभूतियों के श्रेष्ठतम सदुपयोग की बात निरन्तर सोचते रहना चाहिए। अधिक मिले के प्रयास के साथ साथ जो मिला है उसके उत्कृष्ट उपयोग की बात पर अधिक ध्यान देना चाहिए। यही हैं वे उपदेश जो परिजनों के प्रति सन्देश रूप में देकर गुरुदेव चले गये हैं। इन्हें श्रद्धा और तत्परता के साथ पालन करना अब हमारा कार्य और कर्त्तव्य है। यों वे प्रकारान्तर से इन्हीं बातों को सदा ही लिखते रहे हैं, पर इस बार उनने विशेष रूप से जोर दिया है कि कहने और सुनने-लिखने और पढ़ने तक ही अध्यात्म सीमित नहीं कर लिया जाना चाहिए वरन् उसे व्यावहारिक जीवन क्रम में समाविष्ट और ओत-प्रोत करने का प्रयत्न करना चाहिए। उनके व्यक्तित्व के प्रति जितनी श्रद्धा रखी जाती है उतनी ही यदि उनके परामर्श और निर्देश को हृदयंगम किया जाय तो निस्सन्देह हम उनके पथ पर-उनके साथ-साथ कदम मिलाते हुए उस लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं जो मानवीय जीवन की महान उपलब्धि का वास्तविक प्रयोजन और लाभ है।

भविष्य में वे कब वापिस लौटेंगे इसका कुछ ठीक निश्चय नहीं। यह उन्होंने पूर्णतया अपने या अपने मार्गदर्शक के हाथ में रखा है कि जब कभी आवश्यकता समझे तब आयें और जब प्रयोजन पूरा हो जाय तब चले जायें। प्रतिबन्ध का काल समाप्त हो गया। आवागमन पर रोक की अवधि वसन्त पर्व पर समाप्त हो गयी। तो भी वे बिना प्रयोजन और अभीष्ट शक्ति सञ्चय किए बिना जल्दी ही आने वाले नहीं हैं, फिर भविष्य में गायत्री तपोभूमि में या अन्यत्र पिछले दिनों जिस प्रकार उनके दर्शनों के लिए भीड़ लगा करती थी उसकी पुनरावृत्ति अब कभी भी नहीं होने वाली है। जब वे शान्तिकुँज कुछ समय के लिए आवें तभी दर्शनों के लिए भीड़ उमड़ पड़े ऐसा भविष्य में कभी भी सम्भव न होगा।

जो थोड़ा बहुत समय वे शान्तिकुँज आने के लिए निकाल पाया करेंगे उसके एक-एक क्षण का सदुपयोग होगा। उनके निवास के लिए एक नितान्त एकाँत कक्ष बना दिया गया जिसमें वे एकाकी रहेंगे। लगभग 20 घण्टे उनकी व्यक्तिगत उपासना-साधना के लिए निश्चित रहा करेंगे केवल कुछ घण्टे ही नितान्त आवश्यक परामर्श के लिए निकल सका करेंगे। यह बहुमूल्य समय दर्शन, शंका समाधान-भौतिक प्रयोजनों के लिए आशीर्वाद जैसे तुच्छ कार्यों में बर्बाद नहीं किया जायगा। प्रेरणा प्राप्ति के आत्मिक प्रयोजनों के संदर्भ में ही वह घड़ियाँ नियोजित रहेंगी। उसके लिए पहले से ही पत्र व्यवहार कर लेना चाहिए कि किसी की उत्कण्ठा यदि मिलने की है तो उसका प्रयोजन क्या है और उसे न्यूनतम कितने समय में पूरा किया जा सकता है। घण्टों स्वच्छन्द दर्शन, सत्संग, हास-परिहास-संपर्क सान्निध्य के लिए बैठे रहने की बात अब बहुत पीछे रह गई है। यों पहले ही उनका समय मूल्यवान था, पर अब तो इतना अधिक बहुमूल्य है और उसके साथ समस्त विश्व के इतने महत्वपूर्ण पहलू जुड़े हुए हैं कि उनमें तनिक भी व्यतिरेक उत्पन्न करना अनुचित ही कहा जायगा। अगली बार जब कभी वे आवें तब किसे, क्यों, कितने समय तक मिलना आवश्यक है यह पहले से ही हम लोगों से पत्र व्यवहार कर लेना चाहिए। यदि मिलना नितान्त आवश्यक समझा जायगा तो ही उसके लिए व्यवस्था बनाई जायगी।

इस प्रतिबन्ध में न तो अहंता है और न स्वार्थपरता। जैसे बड़े आदमी छोटों से नहीं मिलते और घर बैठे गपशप करते रहते हैं, या अपने स्वार्थ साधन में तत्पर रहकर दूसरों की आवश्यकता की उपेक्षा किया करते हैं, वैसी बात स्वप्न में भी नहीं है। जो गुरुदेव को जानते हैं उन्हें यह समझने में तनिक भी कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि वे तप साधना द्वारा ऊँचे उठ रहे हैं नीचे नहीं गिर रहे हैं। उनका प्रेम और ममत्व परिजनों के लिए ही नहीं-मानव मात्र के लिए-प्राणि मात्र के लिए जिस वेग-आवेग के साथ उमड़ता रहता है उसमें कमी नहीं आई वरन् इन दिनों वृद्धि ही हुई है। पर उस प्रेम का उपहार अनुदान प्रस्तुत करने के लिए उन्हें कुछ उपार्जन और सञ्चय भी करना चाहिए। तपश्चर्या में निरत समय इसी प्रयोजन के लिए है। यदि वह अनिवार्य जनसंपर्क को छोड़कर ऐसे ही दर्शन सत्संग के लिए लग जायें तो वे उसी स्थिति में बने रहेंगे जिसमें अपने को असहाय, अभावग्रस्त अनुभव करते हुए भी वे उग्र साधना के लिए दौड़ पड़े थे। वे हमें प्यार करते हैं-हमें उनसे प्यार करना चाहिए। हमारे प्यार का एक सच्चा स्वरूप यह हो सकता है कि उच्च स्तरीय प्रयोजनों में इन दिनों लगे हुए उनके समय में अपने मोहवश अनावश्यक व्यवधान उत्पन्न नहीं करें। वे इन दिनों जिस कार्य में लगे हुए हैं उस पर विश्व मानव के भविष्य की अति महत्वपूर्ण सम्भावनायें टिकी हुई हैं। यदि हम उसे अपने मोह के लिए प्रयुक्त करते हैं तो उसकी हानि विश्व मानव को ही भुगतनी पड़ेगी। इतनी बड़ी क्षति पहुँचाकर हम अपनी भावुकता तृप्त करें यह किसी प्रकार भी उचित न होगा।

शाखाओं का संगठन-युग-निर्माण प्रक्रिया का सञ्चालन, परिजनों की व्यक्तिगत समस्याओं का समाधान परामर्श जैसे कार्य उन्होंने मेरे जिम्मे छोड़े हैं। उन्हें यथाशक्ति कर भी रही हूँ। उन्हीं कार्यों के लिए उन्हें भी खटखटाया जाय तो यह पुनरावृत्ति मात्र ही हुई। टिकट बाबू जब टिकट बाँट ही रहा है तो उसी को खरीदने के लिए स्टेशन मास्टर को क्यों तंग किया जाय। उनका सा व्यक्तित्व तो कहाँ से लाऊँ, पर उपरोक्त काम मैं उसी तरह निभा रही हूँ जितना कि उनके द्वारा सम्भव था। ऐसी दशा में वे ही बातें उनके सामने रखने की कुछ आवश्यकता नहीं रह जाती। जो इतना समझ सकेंगे वे सहज ही अपनी भावुकता पर नियन्त्रण कर लेंगे।

उपयुक्त परिजनों की आत्मिक प्रगति में अतिरिक्त सहायता करने की उनकी आकाँक्षा अभी भी यथावत है। वह घटी नहीं वरन् बढ़ी ही है। प्रशिक्षण का समय चला गया। अब वे किसी को विस्तारपूर्वक सिखा, समझा न सकेंगे। इसके लिए जितना लम्बा समय चाहिए वह रह नहीं गया है। अब वे केवल प्रत्यावर्तन करेंगे। अपनी उपार्जित शक्ति का वितरण भर करेंगे। इसके लिए पूरे तीन दिन शान्तिकुँज में रहना पर्याप्त होगा। आचार्य यम के द्वार पर बालक नचिकेता तीन दिन पड़ा रहा था और आग्रह पूर्वक पञ्चाग्नि विद्या का अति महत्वपूर्ण अनुदान लेकर वापस लौटा था। वैसा ही कुछ यहाँ भी होगा। जब वे सुविधा की स्थिति में होंगे तब यही किया करेंगे।

साधक तीन दिन तक पूर्ण एकान्त सेवन करेंगे-मौन रहेंगे और मस्तिष्क को सब प्रकार के विचारों से खाली रखेंगे। शौच, स्नान जैसे नित्य कर्मों के अतिरिक्त यथा सम्भव अधिक से अधिक निःचेष्ट रहेंगे। शरीर से ही नहीं मन से भी। गंगाजल पियेंगे। मेरे द्वारा बना और परोसा भोजन ही करेंगे।

इस अवधि में गुरुदेव अपनी अन्तःस्थिति को उनके अन्तरंग में उतारते रहेंगे। बछड़ा जिस तरह दूध पीता, भूमि जैसे वर्षा का जल सोखती, लकड़ी जैसे आग पकड़ती, बैटरी जैसे चार्ज होती है ठीक उसी मनःस्थिति में साधक अपनी मनोभूमि बनाये रहेंगे और जहाँ तक सम्भव होगा मनःक्षेत्र को पूर्णतया खाली रखेंगे। साधक को इतना भर करना है। निवास, भोजन आदि की व्यवस्था शान्तिकुँज में ही रहेगी। इस अवधि में हर साधक अपने ऊपर एक दिव्य शक्ति अवतरित होते हुए अनुभव करेगा और इससे लाभान्वित होकर इतनी शक्ति प्राप्त कर लेगा जिसके आधार पर प्रगति का पथ-प्रशस्त हुआ स्पष्ट दिखाई देने लगे।


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