चित्त को क्षुद्र वासनाओं से विरत करने का एक बहुत बड़ा साधन कला है, काव्य, चित्र, संगीत आदि का जिस समय रस मिला करता है उस समय भी शरीर और इन्द्रियों के बन्धन ढीले पड़ गए होते हैं और चित्त आध्यात्मिक जगत में खिंच जाता है।
-सम्पूर्णानन्द
इस घटना में ठेकेदार की आत्मा का प्रकोप सिद्ध नहीं होता। क्योंकि एक व्यक्ति के दुर्व्यवहार का क्षोभ प्रायः एक तक ही सीमित रहता है। दूसरी बात यह है कि अन्याय पीड़ित व्यक्ति की अन्तरात्मा कलुषित नहीं होती इसलिए वह उग्र स्तर के ऐसे विग्रह नहीं करती जो अन्य निर्दोष लोगों को कष्ट पहुँचाए।
जिसका जीवन स्वयं में कलुषित रहा हो, जिसने अनेकों को कष्ट पहुँचाने में रस लिया हो, स्वार्थ सिद्धि के लिए कितनों के साथ ही अनाचार विश्वासघात किया हो। ऐसे ही लोगों की आत्माएं इतनी हिंस्र हो सकती हैं जो अनायास लोगों को कष्ट पहुँचाकर अपनी पूर्व आकाँक्षाओं की तृप्ति करे। इस दृष्टि से क्लाइव की आत्मा के द्वारा यह उपद्रव होता हो तो आश्चर्य की बात नहीं है।
घटना इस तथ्य पर प्रकाश डालती है कि एक शरीर छोड़ने और दूसरा प्राप्त करने के मध्यान्तर में आत्मा को सूक्ष्म शरीर धारण करके अन्तरिक्ष में विचरण करना पड़ता है। यह इसलिए भी होता होगा कि शरीर रहते किये हुए दुष्कृत्यों के परिणामों को वह अधिक विस्तारपूर्वक देख समझ सके और भविष्य के लिए उस अवाँछनीय नीति की अनुपयुक्तता को स्वीकार कर सके।
दूसरा तथ्य यह प्रकट होता है कि सूक्ष्म शरीर बिल्कुल असमर्थ नहीं हो जाता, उसमें न केवल भावनात्मक क्षमता रहती है वरन् भौतिक वस्तुओं को प्रभावित करने जैसे सामर्थ्य भी रहती है। यदि ऐसा न होता तो मोटर के शीशों में ठीक गोल छेद करना कैसे बन पड़ता? उस क्षमता को प्रेम जीवन में भी भले और बुरे प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त करके पुण्य और पाप की मात्रा बढ़ाई जा सकती है।
मरणोत्तर जीवन में संस्कार क्षेत्र प्रौढ़ रहता है, विचार तंत्र सो जाता है। जिस प्रकार के विचारों और कार्यों में मनुष्य जीवन भर रहता है वहीं अन्तः चेतना मरणोत्तर स्थिति में प्रबल रहती है और अनायास ही उसी स्तर की गतिविधियों का क्रम चलता रहता है।
मरणोत्तर जीवन, शान्त, सुखी, परोपकारी स्थिति का रहे, इसके लिए इसी जन्म में तैयारी करनी पड़ती है। उच्च विचार और शुद्ध जीवन रखकर जहाँ इह लौकिक जीवन सराहनीय और सम्मानित स्तर का रखा जा सकता है वहाँ उसका परिणाम मरणोत्तर काल में देवोपम हो सकता है। दुष्ट और दुरात्म जीवन क्रम न इस लोक में सराहा जाता है न परलोक में शान्ति मिलने देता है।