जो जिएं, वह जीने की कला भी सीखें

April 1972

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मोटर प्राप्त कर लेना बड़ी बात नहीं। बड़ी बात है उसे चलाने, सँभालने और बनाने की कुशलता प्राप्त करना। चलाना न जानने वाला व्यक्ति यदि उसका उपयोग करेगा तो उस मशीन को ही नहीं अपने हाथ पैरों को भी तोड़ लेगा। इसके विपरित यदि चलाना, बनाना आता है तो अपनी मोटर न होते हुए भी ड्राइवर का-मिस्त्री का-धन्धा करके गुजारा किया जा सकता है।

जीवन एक बहुमूल्य मोटर की तरह है। इसकी एक विचित्रता यह है कि ड्राइवर रखने से काम नहीं बनता। इसे स्वयं ही चलाना पड़ता है। चलाने की विधि जानना-इस मोटर मालिक के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है। इस ओर से बरती गई उपेक्षा-लाभ के स्थान पर उलटी हानिकारक ही सिद्ध होगी।

मनुष्य जीवन का कैसे-किस प्रयोजन के लिए-उपयोग किया जाय? इस तथ्य को समझना और उसकी प्रयोग प्रक्रिया को जानना नितान्त आवश्यक है। यह न किया जा सका तो उससे भारी हानि उठाने की आशंका रहेगी। बिजली की अँगीठी खरीद लेना ठीक है पर उसका प्रयोग भी तो जानना चाहिए। अनाड़ीपन से उसे काम में लाये तो दूध गरम करने का लाभ उठाने के स्थान पर प्राण गँवाने की विपत्ति का सामना करना पड़ेगा।

मनुष्य जीवन पा लेना भी एक बड़ा सुअवसर है। पर उसका समुचित लाभ तभी मिल सकता है जब जीवन जीने की कला भी आती हो। लोग यही सबसे बड़ी भूल करते हैं। सीखने के लिए काफी दौड़-धूप करते हैं। शिक्षा के अनेक क्षेत्रों में प्रवेश करके निष्ठावान बनते हैं। साहित्य कला, शिल्प, विज्ञान, दर्शन आदि में पारंगत होकर आजीविका और पद प्रतिष्ठा भी प्राप्त करते हैं। पर यह तथ्य विस्मृत ही बना रहता है कि जीवन जीने की कला भी सीखनी चाहिए। यदि यह शिक्षा प्राप्त न की गई तो जो कुछ सीखा गया है वह भारभूत बना रहेगा। बाहर का वैभव कितना ही बढ़ जाय, अन्तःक्षेत्र में अभाव, असन्तोष ही छाया रहेगा।

नाव में बैठकर एक पण्डित जी नदी पार कर रहे थे। रास्ते में मल्लाह से पूछते जाते थे कि तुमने ज्योतिष, गणित, आयुर्वेद, साहित्य, दर्शन आदि पढ़े हैं। एक-एक करके वह सब प्रश्नों के उत्तर नहीं में देता चला जाता था। पण्डित जी बहुत खिन्न हुए और उसके अनाड़ीपन की भर्त्सना करने लगे। इतने में नाव भँवर में पड़ी। मल्लाह बहुत प्रयत्न करने पर भी उसे न बचा सका और वह डूबने लगी। जो यात्री तैरना जानते थे कूद पड़े और पार निकल गये। पण्डित जी डुबकी लेने लगे। मल्लाह ने उनसे पूछा-आपको तैरना आता है। पण्डित के नहीं कहने पर उसने अपना माथा ठोका और कहा-तैरना न जानने की हानि आपके विद्वान होने की अपेक्षा आज अधिक उपयोगी सिद्ध हो सकती थी।

जीवन कैसे जिया जाय? इसे न जानना सबसे बड़ा अनाड़ीपन है। इन्द्रियाँ अति महत्वपूर्ण उपकरण हैं-उनका सदुपयोग करके अपनी सर्वतोमुखी प्रगति का पथ प्रशस्त किया जा सकता है। मन की सामर्थ्य का तो कहना ही क्या, उसे जिस कार्य में तत्परतापूर्वक लगा दिया जाय उसी में चमत्कार उत्पन्न करता है। समय की सम्पदा-श्रम की महत्ता इतनी बड़ी है कि उसके बदले कुछ भी अभीष्ट वस्तु खरीदी जा सकती है; पर हम अपनी इन आन्तरिक विभूतियों का न तो स्वरूप समझते हैं और न उपयोग। जीवन के प्रति हमारा क्या दृष्टिकोण हो। और दूसरों से किस प्रकार व्यवहार करें इतनी मोटी सी बातें न समझने के कारण हम पग-पग पर असफल होते और ठोकर खाते हैं। जीवन जीने की कला का यदि ज्ञान रहा होता तो जो कुछ उपलब्ध है उसका समुचित लाभ उठा सकना सम्भव हुआ होता और हम आनन्द एवं उल्लास भरा जीवन जीते।


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