बनाने और सँभालने वाले को अपनी वस्तु से स्वभावतः प्रेम होता है। हम मकान बनाते हैं, बगीचा लगाते हैं, चित्र बनाते हैं, पुस्तक रचते हैं; उनसे स्वभावतः लगाव और प्रेम होता है। ईश्वर ने हमें बनाया है, सँभाला है-और भविष्य में भी हमारी सँभाल रखने का उत्तरदायित्व उसी के कन्धों पर है ऐसी दशा में उसका प्रेम भी हमें अनायास ही प्राप्त रहता है।
अपनी सन्तान को कौन प्यार नहीं करता है। पशु-पक्षी तक उनके लिए कष्ट सहते त्याग करते हैं, और अविकसित हृदय में भी ममता, आत्मीयता उगाते हैं। यदि ऐसा न होता तो उन जीव-जन्तुओं के शिशुओं का जीवन धारण ही कठिन हो जाता। मनुष्य तो अन्य बातों में अन्य जीवों से आगे होने के कारण सन्तान पालन के लिए और भी अधिक तत्पर रहता है। केवल उनके भरण-पोषण का ही नहीं-शिक्षा-दीक्षा, विवाह शादी, रोटी-रोजगार, सुख-दुःख में भी पूरी सहायता करता है। अपना अधिकाँश समय, प्यार और प्रयत्न उन्हीं के लिए नियोजित रखता है। यहाँ तक की मरने के उपरान्त अपनी जीवन भर की कमाई भी उसी के लिए उत्तराधिकार में छोड़ जाता है। अपने सृजन में ऐसा प्यार होना स्वाभाविक है।
हम परमेश्वर की सन्तान हैं। विकसित जीव अपनी सन्तान को अधिकतम दुलार देते हैं। ईश्वर को यदि प्राणधारी माना जाय तो यह भी मानना पड़ेगा कि वह सर्वोपरि सुविकसित प्राणी है। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य जैसा सर्वसाधन सम्पन्न सन्तान की उत्पत्ति कैसे करता। जन्म देकर ही कोई सहृदय अभिभावक अपनी सन्तान को भटकने के लिए नहीं छोड़ देता; फिर परमात्मा हम से विमुख कैसे हो सकता है। जब सन्तान के प्रति प्रेम होना सृष्टि का नियम है तो परमेश्वर का प्यार-अपनी सर्वोत्तम कृति-परम प्रिय सन्तान-मनुष्य के लिए क्यों नहीं होगा?
इस प्रेम की विशिष्टता का परिचय इसी से मिलता है कि हमें ईश्वर प्रदत्त अत्यधिक सुविधायें उपलब्ध हैं। ऐसा लगता है मानो यह सारा जगत हमारी ही सेवा सुविधा और प्रसन्नता के लिए बनाया हो। जिस और भी दृष्टि दौड़ाई जाय हर्षोल्लास प्रदान करने वाले साधनों का बाहुल्य दीखता है। छोटे-बच्चों को अभिभावक सुन्दर खिलौने लाकर देते है। जिधर भी दृष्टि दौड़ाकर देखें उधर ही एक से एक बढ़कर सुन्दर-सुसज्जित, मधुर गतिशील और भाव भरे खिलौने भरे और खड़े दीखते हैं। कैसा सुन्दर है यह विश्व। कैसी सुरम्य है इनकी शोभा कैसा महान है इसका सृजेता।
मानवीय सुविधा का क्या ठिकाना। शरीर को ही लें, एक से एक अद्भुत क्षमता वाली इन्द्रियों के उपकरण जादू के पिटारे जैसा मन, ऋद्धि-सिद्धि जैसी प्रज्ञा दर्पण में देखें तो देवता जैसा दीखता है यह अपना ‘आपा’। जीवन को जीवन में घुला देने वाली पत्नी, किलकते, फुदकते बच्चे, वात्सल्य भरे अभिवादन, भुजाओं की तरह साथी बन्धु तथा मित्रगण। कितना सुन्दर है यह सब। आजीविका के साधन, मनोरंजन की सुविधायें, प्रगति पथ के सहायक गुरुजन, क्या नहीं है यहां? प्रकृति अपना अञ्चल ताने छाया कर रही है। सूरज, चन्द्र, तारे, बादल, पवन, ऋतु परिवर्तन, क्या नहीं है यहाँ? वाहन, सहायक, पशु, वैज्ञानिक सुविधायें, इस सब सरंजाम पर दृष्टि डालते हैं कि परमेश्वर का प्रेम और अनुदान असीम मात्रा में अपने चारों ओर बिखरा पड़ा है। यह सब उसके प्रेम का प्रत्यक्ष परिचय नहीं तो और क्या है? जरा विचार करें, यदि हमारे पिता ने हाथ सकोड़ लिया होता, उपेक्षा दिखाई होती तो बन्दर, कबूतरों से भी घटिया जीवन ही जिया जा सकता था। अद्भुत और अनुपम सुविधायें जिनका हम उपभोग कर रहे हैं। अपने बलबूते उन्हें कैसे जुटाया जा सकता था।
वह हमारी अन्तरात्मा में विराजमान है। अहर्निशि साथ रहने वाले साथी की तरह वह सहायता करने के लिए सदैव उपस्थित रहता है। पग-पग पर आने वाली कठिनाईयों का वही समाधान करता है। विपत्ति की भयावह विभीषिकाओं से बचा लेने के लिए उसी की लम्बी भुजाएं सहायता के लिए आगे आती हैं। संकट की घड़ी में धैर्य बँधाने वाला, सहारा देने वाला, रास्ता बताने वाला वही तो है। उत्ताल तरंगों वाले इस संसार सागर से हम उसी की नाव में बैठकर तो पार होते हैं। परमेश्वर के प्रेम में कमी कहाँ है? उसके अनुदानों में न्यूनता कहाँ ढूँढ़ी जा सकती है।
परमेश्वर के द्वारा अपने ऊपर अनवरत रूप से बरसते हुए प्रेम का कदाचित हम अनुभव कर सके होते तो उस अनुभूति की प्रतिक्रिया हमारे अन्तःकरण में भी प्रेम प्रवाह उत्पन्न करती। गाय के वात्सल्य को यदि बछड़े ने समझा होता तो उसे लगता कि मैं निरीह नहीं हूँ। एकाकी नहीं हूँ। मेरा कोई है और किसी का मैं हूँ।
हम किसी के नहीं और कोई हमारा नहीं। दूसरों की तो बात ही क्या-अपने आप के भी हम नहीं हैं। स्थिति की विषमता यहाँ तक पहुँची है कि न आत्मा के हम और न आत्मा हमारा। न परमेश्वर हमारा और न परमेश्वर के हम। यह विडम्बना कैसे उत्पन्न हो गयी। अपने बिराने कैसे हो गये। अनन्य और अभिन्न आत्मीयता का प्रवाह कहाँ रुक गया? कैसे रुक गया?
यह विस्मृति की मूर्छना ही है जिसने अपने को पहचानने से वंचित कर दिया। प्रेम की अमृत वर्षा का अनुभव तक कर सकने में हम असमर्थ हो गये। हाय, हमारा यह क्या हो गया। मति रूपी सीता को कौन रावण हर ले गया। अपने लिए विलाप, रुदन और पतन ही क्यों रह गया? उत्कर्ष और आनन्द की समस्त उपलब्धियाँ कौन चुरा ले गया? हम एकाकी इस भयावह श्मशान में कहाँ आ भटके? आ क्यों गये? कौन यहाँ ले आया?
यह सारी माया इस अविद्या मरीचिका की है जिसने जल में थल और थल में जल दिखाने की भ्रान्ति उत्पन्न कर दी। परमेश्वर का प्रेम यदि याद रहा होता तो उसके साथ डोरी भी बँधी रहती। तब जीवन की पतंग झोंके खाती हुई-नष्ट होने के लिए इस गर्त में क्यों गिरती?
जिस परमेश्वर ने इतना दिया है। उसी का पल्ला पकड़े रहते तो विवेक रूपी चिन्तामणि का एकमात्र उपहार जो शेष रह गया है वह भी प्राप्त कर लेते। यदि वह रत्न मिल जाता तो फिर कोई अभाव क्यों प्रतीत होता, कोई कष्ट क्यों सताता? अभाव यहाँ है कहाँ-कष्ट यहाँ आया कहाँ से? इस स्वर्ग में कुत्साओं के लिए स्थान कहाँ है? कुण्ठाओं के लिए गुंजाइश कहाँ है? परमेश्वर के राज्य में-परमेश्वर के पुत्र के लिए कष्ट अभाव-यह कैसे हो सकता है?
अज्ञान ही है जो रुलाता है? अन्धकार ही है जो गिराता है। इस अज्ञान अन्धकार में भटक इसीलिए रहे हैं कि परमेश्वर के प्रेम रूपी प्रकाश ने साथ रखने से इनकार कर दिया। यदि अपने अत्यन्त प्रिय पात्र के बरसते हुए प्रेम को अनुभव किया होता तो उससे लिपटने की, उसे साथ रखने की-अन्तःकरण में स्थान देने की चेष्टा की होती। यदि उससे लिपट जाते तो राम भरत के मिलन जैसा आनन्द आता। तब राधा कृष्ण की तरह, आत्मा और परमात्मा की एकता ने इस मधुबन में ऐसा रास रचाया होता कि यहाँ हास उल्लास के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं।