जीवन की रिक्तता प्रेम प्रवृत्ति से ही भरेगी

April 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

देखते हैं दुनिया प्रगति कर रही है। धन बढ़ रहा है। विद्या और बुद्धि का चमत्कार चारों ओर बिखरा पड़ा है। विज्ञान ने देव लोक जैसी सुविधायें इस धरती पर प्रस्तुत कर दी हैं। मनोरंजन के माध्यम तेजी से बढ़ते चले जा रहे हैं। चिकित्सा ने मौत को चुनौती दी है। और भी न जाने क्या-क्या बढ़ता चला जा रहा है।

इस प्रगति के युग में न जाने कौन सी विकृति मनुष्य के भीतर घुसती बढ़ती चली जा रही है जिससे वह सूना-खोखला-एकाकी-डरावना और खोया-लुटा सा बन रहा है। न किसी के जीवन में आनन्द, न उल्लास, न संतोष, न शान्ति। मदिरा पीकर उन्मत्त फिरने वाले की तरह तुच्छ सी उपलब्धियों पर आदमी इठा तो फिरता है-दूसरों पर धाक जमाने की कुचालों में तो उलझा है पर उस उमंग से दिन-दिन वंचित ही होता चला जा रहा है जो आँतरिक शान्ति और समस्वरता के आधार पर उत्पन्न होती है। और जिसके बिना जलन, खीज और अतृप्ति ही जीवन में शेष रह जाती है।

क्या खो गया आदमी से? किस अभाव में ग्रस्त है मनुष्य? यह विचारना होगा स्वल्प साधनों में जब करोड़ों वर्षों से शान्ति और सन्तोषपूर्वक जिया जाता रहा है तो इतने प्रचुर साधनों के रहते, इतना उद्वेग क्यों? इतने असन्तोष और नैराश्य का कारण क्या? जिससे विक्षिप्त बैताल की तरह आदमी को सन्तोष की प्यास में हर दरवाजे से टकराना पड़े और हर जगह से खाली हाथ लौटना पड़े?

सचमुच किसी बड़े अभाव ने मनुष्य पर आक्रमण किया है? सचमुच कोई बड़ी भूल हो गई है। वस्तुतः कुछ बड़ी चीज गुम गई है। यह है-प्रेम भावना का अभाव, जिसने सब कुछ होते हुए भी, मनुष्य को कुछ भी नहीं जैसी स्थिति में ला पटका है।

प्रेम-जिसकी सत्ता, महत्ता और उपयोगिता का इन दिनों लगभग विस्मरण जैसा ही कर दिया गया है-मानव जीवन की सबसे बड़ी विभूति है। शरीर से ऊपर उठकर जो कुछ आदमी के पास ‘दिव्य’ है। उसकी तृप्ति प्रेम के अतिरिक्त और किसी से हो ही नहीं सकती। शरीर में 95 प्रतिशत पानी का अंश है। उसे जीवित रखने के लिए पानी चाहिए। प्यास को सहन कर सकना कठिन है। उसके बिना काया सूखती-मुरझाती-कुम्हलाती चली जायगी और क्रमशः अपने अस्तित्व को ही गँवा देगी।

शरीर से ऊपर जो ‘दिव्य’ है। उसकी संरचना में ‘प्रेम’ का बाहुल्य है। उसे सजीव रखने के लिए प्रेम सिंचन अनिवार्य है। यदि वह न मिल सके तो भीतर मरघट ही जलेगा। तब आन्तरिक उद्वेग, अन्तरंग के सारे ढाँचे को लड़खड़ा देगा। इसी लड़खड़ाहट के साथ आज की दुनिया जी रही है। बढ़ती हुई नशेबाजी के पीछे एक बड़ा कारण यही है कि प्रेम के अभाव से उत्पन्न अन्तरंग की रिक्तता का सहन कर सकना सम्भव नहीं हो पा रहा है, और इस अभाव से आन्तरिक चीत्कार को दबाने के लिए नशे पिये जा रहे है। गम गलत करना ही आज की नशेबाजी का प्रमुख कारण है। नींद की गोलियाँ खाये बिना रात नहीं कटती। नशा पिये बिना दिन नहीं बीतता। तथाकथित बुद्धिजीवी वर्ग का यही हाल है। पिछड़े हुए लोग भी इसी तरह जिन्दगी की लाश ढो रहे हैं।

प्रेम-व्यसन नहीं है। भावुकता का उभार भी नहीं है इसे सम्वेदनात्मक दुर्बलता नहीं समझा जाना चाहिए। यह आत्मा की प्यास है। वह एकाकी-बन्दी की तरह काया में कैद रह कर गुजारा नहीं कर सकता। उसका कोई अपना होना चाहिए। वह किसी का होकर रहना चाहता है। मिलन ने इस दुनिया को सृजा है। ब्रह्म ने माया को साथ लिया-शिव ने शक्ति का अञ्चल पकड़ा। इसके बिना यह विश्व उपवन अस्तित्व में ही न आता। सृजन का आधार ‘मिलन’ है। रसायन शास्त्र, मिलन से उत्पन्न अद्भुत सम्भावनाओं का रहस्योद्घाटन करता है।

विद्युत तरंगें ऋण और धन प्रवाहों के मिले बिना गतिशील ही नहीं होती। प्राणियों का जन्म रयि और प्राण का योग हुए बिना कैसे सम्भव हो सकता है।

इसमें जो कुछ ‘दिव्य’ है, वह भी जड़ की भाँति ही ‘मिलन’ की अपेक्षा करता है। यह ‘अन्तःमिलन’ आत्माओं की पारस्परिक सच्ची और निकटतम घनिष्ठता पर आधारित है। इसी को प्रेम कहते हैं। जड़ जगत में एक और एक मिलकर दो होते हैं। चेतन जगत में एक और एक मिलकर ग्यारह की उक्ति ही प्रचलित है। वस्तुतः वे असीम और अनन्त बनते हैं। मिलन का सृजन है। उसी में से उल्लास फूटता है और प्रगति में सहस्रमुखी सम्भावनायें सामने प्रस्तुत होती हैं। इसके विपरीत वियोग-सूनापन, एकाकीपन-इतना भयावह है कि उसे सहन करना कठिन पड़ता है।

अणु को अपने परिवार से विलग किया जाता है तो उससे भयानक विस्फोट होता है। अणु विखण्डन की प्रक्रिया आज विश्व को ग्रसित कर सकने की विभीषिका बनी बैठी है। सती के वियोग में शिव विक्षिप्त हो गये। मृत काया को कन्धे पर रखकर वे ताण्डव नृत्य करने लगे और संसार के लिए संकट उत्पन्न हो गया। प्रेम विहीन-एकाकी-सूना-व्यक्ति कितना कर्कश हो सकता है-कितना अतृप्त और उद्विग्न रह सकता है इसका प्रत्यक्ष उदाहरण आज के जन समाज में से प्रत्येक को देखा जा सकता है।

वैभव बढ़ा तो बुद्धि का चमत्कार और साधनों का बाहुल्य भी। पर अन्तरंग को भुला दिया गया। शरीर से ऊपर भी कुछ है क्या उसे समझने की उपेक्षा की गई। सो शरीर को सब कुछ मिलने पर भी बना कुछ नहीं। भीतर की प्यास ने भौतिक उपलब्धियों को निरर्थक सिद्ध कर दिया। निरर्थक ही नहीं वे अनर्थ मूलक भी बनती चली गईं। ‘दिव्य’ का नियन्त्रण न रहने पर ‘जड़’ उच्छृंखल सिद्ध हुआ। घातक-विनाशकारी-भयावह और सत्यानाशी। क्रम यही चलता रहा। वापिस लौटने के लिए-भूल सुधारने के लिए-कुछ किया, सोचा न जा सका, तो वह दिन दूर नहीं जब यह तथाकथित प्रगति मनुष्य के भीतर का ‘मनुष्य’ खा जायगी और आदमी नर-पशु बन कर प्रेत पिशाचों की तरह दुनिया के मरघट के क्रन्दन भरा कोलाहल करता हुआ दिखाई देगा।

प्रेम कितना सरस, मधुर, सुखद और सृजनात्मक है इसकी एक झाँकी सच्चे हृदय से सम्बद्ध हुए दाम्पत्य-जीवन में देखी जा सकती है। यों यह छाया मात्र है। क्योंकि इसमें ‘अर्थ’ और ‘काम’ के दूसरे मौलिक तत्व भी मिले रहते हैं। प्रेम इससे ऊँचा है उसमें अपेक्षा नहीं रहती-केवल अपना अनुदान ही इतना प्रबल होता है जिसके आधार पर साथी के सहयोग के बिना भी परिपूर्ण आनन्द प्राप्त किया जा सके। मीरा, सूर, तुलसी आदि सन्तों ने भगवान से प्रेम किया और प्रतिदान की अपेक्षा न करते हुए अपने उत्पादन से अपना घर भर लिया, मनुष्य माता की कुछ उपेक्षा हो भी सकती है पर अन्य जीवों में जो मातृ भावना पाई जाती है उस उदार वात्सल्य को ‘प्रेम’ ही कहना चाहिए यह कितना मधुर और सरस है इसे किसी माता का हृदय पढ़कर ही देखा समझा जा सकता है। पति-पत्नी-प्रेमी प्रेयसी में ‘प्रेम’ की छाया देखी जा सकती है। छाया इसलिए कि उसके आकर्षणों में भौतिक कारण जुड़े रहते हैं और उन आकर्षणों में न्यूनता आने पर आधार डगमगाता देखा जाता है। फिर भी छाया को देखकर मूल वस्तु का अनुमान लगाया जा सकता है कि वह कितना अधिक दिव्य और कितना उल्लासपूर्ण होगा।

प्रेम आत्मा की प्रकृति और प्रवृत्ति है। आन्तरिक विकास का एक क्रम है। ‘स्व’ की सीमा बद्धता का उल्लंघन किये बिना-भव बन्धनों से मुक्ति नहीं। जो अपनेपन में जितना खोया, जकड़ा हुआ है वह उतना ही एकाकीपन अनुभव करेगा। “न कोई हमारा, न हम किसी के” यह स्थिति अत्यधिक भयावह है। ऐसा मनुष्य स्वार्थ के लिए किसी के साथ भी-कुछ भी कर सकता है। उसकी अनैतिकता सभी सीमाओं का उल्लंघन कर सकती है। नैतिक मर्यादायें केवल सहृदयता पर अवलम्बित करती हैं। कानून और समाज के दण्ड से बच निकलना वर्तमान चतुरता के लिए बाँये हाथ का खेल है। सज्जनता का ढोंग भरा प्रदर्शन रच लेना कुशल लोगों के लिए तनिक भी कठिन नहीं है। नीति और सदाचार की वास्तविकता सहृदयता पर ही निर्भर है। दूसरों के कष्ट को अपना कष्ट समझने की-दूसरों की सुख-सुविधा को अपनी जैसी समझने की कोमल सम्वेदनायें जब तक अन्तःकरण में प्रस्फुटित न होगी तब तक कोई मनुष्य सच्चे अर्थों में न सच्चरित्र हो सकता है और न उदार। दूसरों के प्रति ममता भरी कोमल संवेदनाओं के इस उभार को ही ‘प्रेम’ कहते हैं।

आरम्भिक अभ्यास के लिए-वह स्त्री, पुत्रों के, साथी सहयोगियों के, संत सज्जनों के माध्यम से भी विकसित किया जा सकता है। पर उतनी ही परिधि में उसे सीमित नहीं रखा जा सकता। प्रेम-ईश्वर की तरह व्यापक तत्व है, उसे संकीर्ण सीमा बद्धता से अवरुद्ध नहीं किया जा सकता है। व्यायामशाला में श्रम करके पहलवान बना जाता है पर उसका कार्यक्षेत्र यहीं तक सीमित नहीं हो सकता। पति पत्नी-परस्पर भरपूर प्रेम करें यह उचित भी है और आवश्यक भी। क्योंकि प्रसुप्त प्रेम भावनाओं का विकास करने के लिए-गमले में बोये हुए पौधे की तरह आरम्भ में वही उचित है पर विशाल वृक्ष का वह पौधा सदा गमले तक सीमित नहीं रखा जा सकता। थोड़ा बढ़ने पर उसे ऐसे स्थान पर आरोपित करना पड़ता है जहाँ उसे विशाल वृक्ष के रूप में विकसित होने पर अवसर मिले। प्रणय बन्धन के समय गृहस्थ जमाने की चिन्ता करना उचित है, पर बाल-बच्चों के माध्यम से प्रेम का क्षेत्र विस्तार करने के उपरान्त उसे वानप्रस्थ के माध्यम से विश्वव्यापी बनाने का कदम उठाया ही जाना चाहिए। जो प्रेम दो व्यक्तियों तक सीमित होकर रह जाय उसे ‘अन्धा’ और ‘अपंग‘ की श्रेणी में रखा जायगा। यह बात पुत्र, मित्र आदि के संबंध में लागू होती है। इनसे स्नेह सद्भाव बढ़ा कर शुष्क प्रेम अंकुरों को हरित और पल्लवित किया जा सकता है पर उसकी सार्थकता और पूर्णता तो ‘विश्व प्रेम’ के रूप में परिणत होने पर ही सम्भव है।

आज की आन्तरिक रिक्तता प्रेम भावनाओं के कुण्ठित हो जाने पर कारण उत्पन्न हुई है। साधन रहते हुए भी घोर दरिद्र जैसी दयनीय स्थिति में पड़े रहने का एक ही कारण है किसी को अपना और अपने को किसी का न समझना अपनी ही संकीर्ण स्वार्थपरता में उलझे रहना। इन्द्रिय सुखों, तृष्णाओं, वैयक्तिक सम्पन्नता की महत्वाकाँक्षाओं में उलझा मनुष्य-जाल में जकड़े हुए हिरन की तरह तड़पता ही रहेगा। ‘पर’ को ‘स्व’ में और ‘स्व’ को ‘पर’ में घुलाने की प्रवृत्ति ही मानवीय सन्तोष और उत्कर्ष का आधार बन सकती है। इस प्रेम प्रवृत्ति को विकसित करके ही जीवन की रिक्तता और शून्यता को भरा जा सकता है। व्यक्ति और समाज में उल्लास, चरित्र एवं उत्कर्ष का उद्भव ‘प्रेम’ प्रवृत्ति को विकसित किये बिना और किसी तरह सम्भव न हो सकेगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118