मरण सृजन का अभिनव पर्व

April 1972

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मृत्यु हमारा सबसे अधिक प्रिय पात्र और शुभ चिन्तक अतिथि है। उसके आगमन पर डरने घबराने जैसी कोई बात है नहीं। शरीर जब आयु की अधिकता से जीर्ण-शीर्ण हो जाता है, अवयव अपना कर्त्तव्य निबाहने में असमर्थ बन जाते हैं, मरम्मत की चिन्दियाँ भी जब काम नहीं करती तब नया यन्त्र लगाने की जरूरत पड़ती है। इसी परिवर्तन का नाम मृत्यु है।

कारखानेदार पुरानी मशीनें हटाते रहते है, पुरानी मोटरें बेचते रहते हैं और उनके स्थान पर नई मशीन, नई मोटर लगाते हैं। इससे कुछ असुविधा नहीं होती, सुविधा ही बढ़ती है। पुरानी मशीन आये दिन गड़बड़ी फैलाती थी, पुरानी मोटर धीमे-धीमे और रुक-रुक कर चलती थी नई लग जाने से वह पुरानी अड़चनें दूर हो गईं; नई के द्वारा बढ़िया काम होने लगा। जीर्णता के साथ कुरूपता बढ़ती है और नवीनता में सौंदर्य रहता है। पुराने पत्ते रूखे, शुष्क और कठोर हो जाते हैं जब कि नई कोपलें कोमल और सुन्दर लगती हैं। पुराने पत्ते झड़ने पर, पुरानी मशीन उखड़ने पर-पुरानी मोटर बिकने पर कोई इसलिए रञ्ज नहीं मानता कि अगले ही दिन नवीन की स्थापना सुनिश्चित है।

आत्मा अनादि और अनन्त है। वह, ईश्वर जितना ही पुरातन है और कभी नष्ट न होने वाला सनातन है। उसकी मृत्यु सम्भव नहीं। शरीर का परिवर्तन स्वाभाविक ही नहीं, आवश्यक भी है। हर पदार्थ का एक क्रम है जन्मना-बढ़ना और नष्ट होना। नष्ट होना एक स्वरूप का दूसरे स्वरूप में बदलना भर है। यदि यह परिवर्तन रुक जाय तो मरण तो बन्द हो सकता है पर जन्म की भी फिर कोई सम्भावना न रहेगी। यदि जन्म का उल्लास मनाने की उत्कण्ठा है तो मरण का वियोग भी सहना ही होगा। वधू अपने माँ-बाप से बिछुड़ कर सास श्वसुर पाती है, सहेलियों को छोड़कर पति को सहचर बनाती है। यदि मैका छोड़ने की इच्छा न हो तो फिर ससुराल की नवीनता कैसे मिलेगी?

पीतल के पुराने बर्तन टूट जाते हैं तब उस धातु को भट्ठी में गलाकर नया बर्तन ढाल देते हैं। वह सुन्दर भी लगता है और सुदृढ़ भी होता है। पुराने टूटे, चूते-रिसते, छेद, गड्ढे और दरारों वाले शरीर बर्तन को चिता की भट्ठी में गलाया जाना तो हमें दिखता है पर उसकी ढलाई की फैक्टरी कुछ दूर होने से दीख नहीं पड़ती है। सोचते हैं पुराना बर्तन चला गया। खोज करने से विदित हो जायगा कि वह गया कहीं भी नहीं-जहाँ का तहाँ है सिर्फ शकल बदली है।

पुराने मकान टूट-फूट जाते हैं उन्हें गिरा कर नया बनाना सुरक्षा और सुविधा की दृष्टि से आवश्यक है। नया बनाने के लिए जब पुराना गिराया जा रहा होता है तो कोई रोता कलपता नहीं। शरीर के मरने पर फिर दुःखी होने का क्या कारण है?

बहुत दिन साथ रहने पर बिछुड़ने का कष्ट उन्हें होता है जिनकी ममता छोटी है। कुछ ही चीजें जिन्हें अपनी लगती हैं-कुछ ही व्यक्ति जिन्हें अपने लगते हैं वे प्रियजनों के विछोह की बात सोचकर अपनी संकीर्णता का ही रोना रोते हैं। वस्तुतः कोई किसी से कभी बिछुड़ने वाला नहीं है, समुद्र में उठने वाली लहरें जन्मती और मरती भर दीखती हैं पर यथार्थ में समुद्र जहाँ का तहाँ है। कोई लहर कहीं जाती नहीं-सागर का समग्र जल जहाँ का तहाँ परिपूर्ण रहता है। कुछ समय के लिए बादल बन कर उड़ भी जायं तो नदियों के माध्यम से फिर अगले क्षण उसी महा जलाशय में आकर किल्लोल करता है। मरने के बाद भी कोई किसी से नहीं बिछुड़ता। सूर्य की किरणों की तरह हम सब एक ही केन्द्र में बँधे हुए हैं। कुछेक प्राणी ही हमारे अन्य सब बिराने इस सीमा बद्धता से ही शोक है।

मृत्यु का अर्थ है कुरूपता का सौंदर्य में परिवर्तन। अनुपयोगिता के स्थान पर उपयोगिता का आरोपण। इससे डरने का न कोई कारण है और न रुदन करने का।


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