सूक्ष्म जगत का प्रत्यक्षीकरण अतीन्द्रिय ज्ञान से

April 1972

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जो कुछ हम आँखों से देखते हैं क्या वह सब सत्य है? जो इन्द्रियों से अनुभव किया जाता है क्या वह यथार्थ है? इस प्रश्न पर तात्विक दृष्टि से विवेचन करने पर पता चलता है कि इन्द्रियाँ बहुत हद तक स्वयं धोखे में रहती हैं और हमारी अन्तः चेतना को धोखे में डालती हैं। इस धोखेबाजी से भरे हुए कुहरे को ही माया कहा गया है।

सत्य का निरूपण करने के लिये-वस्तु स्थिति को जानने के लिये एक दूसरा माध्यम अपने पास है उसे छठवीं इन्द्रिय कहना चाहिए। विवेक, दूरदर्शिता, तत्व बोध है वह आधार है जो हमें वास्तविकता के निकट पहुँचा सकता है और उस यथार्थता से अवगत होकर हम सही जीवन नीति अपनाने में समर्थ हो सकते हैं।

प्रत्यक्षवाद की इन दिनों बहुत धूम है। जो सामने है जो देखा समझा जा सकता है उसी को स्वीकार किया जाय, यह आज की माँग है। पर देखना यह भी है कि जो कुछ सामने है-प्रत्यक्ष है, दीखता है, वह सही भी है या नहीं, यदि आंखें ही धोखा दे रही हैं, अनुभूति कराने वाले यंत्र ही गड़बड़ी पैदा कर रहे हों, तो फिर जिस प्रत्यक्ष पर विश्वास करने के लिये कहा जा रहा है, उसकी यथार्थता की बात कैसे बनेगी? और जबकि परिस्थितियों ने अपनी जानकारी को ही भ्रमित कर रखा है तब उस आधार पर मिले हुये ज्ञान को यथार्थ कैसे माना जायगा?

सत्य को कसौटी पर कसा जाना चाहिये। अन्ध विश्वास का अनुगामी नहीं होना चाहिए। यह कहना ठीक है। बुद्धि रहते हुए अबुद्धिमत्तापूर्ण मान्यताओं को क्यों अपनाया जाये जब यथार्थता जानने के कितने ही साधन अपने पास मौजूद हैं तो बिना जाँच पड़ताल किये किसी बात को क्यों माना जाय? यह कथन उचित है। सत्य और असत्य को विलग करने के लिये परीक्षात्मक विश्लेषण से ही काम लेना पड़ेगा। बिना जाने परखे दन्त कथाओं पर क्यों विश्वास किया जाय। किम्वदन्तियों को सत्य क्यों माना जाय? बुद्धिवादी क्षेत्र का यह कथन उचित है। सत्य की समीक्षा होनी ही चाहिए। यथार्थता की परखने में कोई हर्ज नहीं।

किन्तु यहाँ इस तथ्य का भी ध्यान रखना पड़ेगा कि जिस थर्मामीटर से बुखार नापा जाता है कहीं वही तो खराब नहीं पड़ा हुआ है। खराब थर्मामीटर उग्र बुखार को न्यून अथवा न्यून तापमान को उग्र बता सकता है। उस भ्रान्त उपकरण को सही मानकर यदि उपचार आरम्भ कर दिया जाय तो रोगी के लिए प्राण संकट ही खड़ा हो जायगा। चिकित्सक के लिए उचित है रोगी का निदान करने से पूर्व यह देखें कि उसके थर्मामीटर स्टेथिस्कोप, आदि यंत्र सही हैं या नहीं, यदि वे सही न हों तो फिर उनका आश्रय लेकर ऐसे माध्यम अपनाने चाहिए जो रोगी की वस्तुस्थिति प्रकट कर सकने में समर्थ हों।

परोक्ष जीवन, सूक्ष्म जगत, आत्मा, ईश्वर, आत्म-बल आदि अध्यात्म क्षेत्र की अति प्रचण्ड सत्ताएं यदि आँखों से नहीं देखी जा सकती और इन्द्रियों से अनुभव नहीं की सकतीं, तो इसका अर्थ यह नहीं है कि उन दिव्य तत्वों का अस्तित्व ही नहीं है। उन्हें जानने समझने के लिए हमारे पास दूरदर्शी विवेक, आन्तरिक अनुभूति और सूक्ष्म दर्शन के अन्य माध्यम मौजूद हैं। उनके द्वारा सारा अतीन्द्रिय जगत प्रत्यक्ष हो सकता है और उस शक्तिशाली सत्ता की यथार्थता को समझा जा सकता है जो आँखों से भले ही न देख जा सके पर दृश्य जगत की भाँति ही जिसका अस्तित्व मौजूद है।

स्थूल जगत का स्वरूप समझने के लिए मोटे तौर पर इन्द्रिय ज्ञान का सहारा लिया जाता है। सूक्ष्मदर्शी यंत्रों का उपयोग भी इन्द्रियाँ ही करती हैं। इस दृश्यमान की जानकारी मस्तिष्क को इन्द्रियों द्वारा मिलती है। वह उसका स्वरूप निर्माण करता है। मोटे तौर पर यथार्थता की परख यही है। पर यह प्रणाली सही नहीं है। दृश्य जगत की यथार्थता जानने में ही आंखें बराबर धोखा खाती रहती हैं, और मस्तिष्क पग-पग पर भ्रम में पड़ता है।

यदि इसी आधार पर हम सत्य का निरूपण करने चलें तो प्रत्यक्ष जगत के बारे में भी सही निष्कर्ष निकाल सकना संभव नहीं, फिर अदृश्य जगत की तो बात ही क्या है। वह अतीन्द्रिय है। इन्द्रियों की पहुँच, उसका विश्लेषण, निरूपण कर सकने में समर्थ नहीं। उसके लिए तत्व दृष्टि को विकसित करने की आवश्यकता है। वह अपने भीतर प्रचुर मात्रा में विद्यमान है। यदि उस दिव्य दर्शन की विवेक सम्मत क्षमता को विकसित कर लिया जाय तो परोक्ष जीवन एवं सूक्ष्म जगत को भी प्रत्यक्ष की तरह ही देखा, समझा और अनुभव किया जा सकता है।

इन्द्रियों से आँखों के आधार पर जो निष्कर्ष निकाले जाते हैं वे बहुत ही भोंड़े और अधूरे होते हैं, उनको सच मानकर चला जाय तो हमारी दुर्गति ही हो सकती है मृग मरीचिका का उदाहरण पुराना है। ऊसर क्षेत्र में जमीन का नमक उभर कर ऊपर आ जाता है। रात की चाँदनी में वह पानी से भरे तालाब जैसा लगता है। प्यासा मृग अपनी तृषा बुझाने के लिये वहाँ पहुँचता है और अपनी आँखों के भ्रम पर पछताता हुआ निराश वापिस लौटता है। इन्द्र धनुष दीखता तो है पर उसे पकड़ने के लिये लाख प्रयत्न करने पर भी कुछ हाथ लगने वाला नहीं है। जल बिन्दुओं पर सूर्य की किरणों की चमक ही आँखों पर एक विशेष प्रकार का प्रभाव डालती है और हमें इन्द्रधनुष दिखाई पड़ता है, उसका भौतिक अस्तित्व कहीं नहीं होता।

सिनेमा को ही लीजिये। पर्दे पर तस्वीर चलती-फिरती, बोलती, रोती-हँसती दीखती है। असंभव जैसे जादुई दृश्य सामने आते हैं। क्या वह सारा दृश्यमान सत्य है। प्रति सेकेंड सोलह की गति से घूमने वाली अलग-अलग तस्वीरें हमारी आँखों की पकड़ परिधि से आगे निकल जाती हैं फलतः दृष्टि भ्रम उत्पन्न हो जाता है। स्थिर तस्वीरें चलती हुई मालूम पड़ती हैं। लाउडस्पीकर से शब्द अलग जगह निकलते हैं और तस्वीरें अलग जगह चलती हैं पर आँख कान इसी धोखे में रहते हैं कि तस्वीरों के मुँह से ही यह उच्चारण या गायन निकल रहे हैं।

प्रातः कालीन ऊषा और सायंकालीन सूर्यास्त के समय आकाश में जो रंग-बिरंगा वातावरण छाया रहता है क्या वह यथार्थ है? वस्तुतः वहाँ कोई रंग नहीं होता यह प्रकाश किरणों के उतार चढ़ाव की दृष्टि संस्थान के साथ आँख मिचौनी ही है। आसमान नीला दिखता है पर वस्तुतः उसका कोई रंग नहीं है पोल का रंग हो भी कैसे सकता है? आसमान को नीला बताकर हमारी आँखें धोखा खाती हैं और मस्तिष्क को भ्रमित करती हैं।

आँखों का काम मुख्य तया प्रकाश के आधार पर वस्तुओं का स्वरूप समझना है। पर देखा जाता है कि उनकी आधी से ज्यादा जानकारी अवास्तविक होती है। कुछ उदाहरण देखिए। कारखानों की चिमनियों से धुआँ निकलता रहता है। गौर करके उसका रंग देखिए वह अन्तर कई तरह का दिखाई देता रहता है। जब चिमनी की जड़ में पेड़, मकान आदि अप्रकाशित वस्तुएं हों तो धुआँ काला दिखाई देगा पर यदि नीचे सूर्य का प्रकाश चमक रहा होगा तो वही धुआँ भूरे रंग का दीखने लगेगा। लकड़ी, कोयला अथवा तेल जलने पर प्रकाश के प्रभाव से यह धुआँ पीलापन लिये हुए दीखता है। वस्तुतः धुँए का कोई रंग नहीं होता। वह कार्बन की सूक्ष्म कणिकाओं अथवा तारकोल सदृश्य द्रव पदार्थों की बूँदों से बना होता है। इनसे टकरा कर प्रकाश लौट जाता है और वे अँधेरी काले रंग की प्रतीत होती हैं।

प्रकाश के रंग बिरंगे दृश्य का तमाशा प्रयोगशाला में देखा जा सकता है। धूल कणों से मुक्त ‘वेंजनी’ द्रव को काँच के बरतन में रखिये। आतिशी शीशे से सूर्य की किरणें इस पर केन्द्रित कीजिए। आपालो किरणों को लम्बवत दिशा में इसे देखिए। द्रव के भीतर हलके नीले रंग का प्रकाश दृष्टिगोचर होगा।

काँच के बर्तन में हाइपोसल्फाइट आफ सोडा का पतला घोल डालिए। उसमें गंधक के तेजाब की कुछ बूंदें टपका दीजिए ऊपर वाली प्रक्रिया की तरह देखिए। गहरे नीले रंग का प्रकाश दृष्टिगोचर होगा।

थोड़ा सा एलाइल आयोडाइड काँच की नली में डालिए उस पर प्रकाश केन्द्रित कीजिये। गैस बनेगी। पहले वह नीली सी होगी पीछे प्रकाश का प्रभाव बढ़ने से वह श्वेत दिखाई देगी।

रेल के इंजन में बाइलर की निकास नली से निकलती हुई भाप निकलते समय तो नीली होती है पर थोड़ा ऊपर उठते ही संघतित हो जाने पर भाप के कणों का आकार बढ़ जाता है और वह श्वेत दिखाई देने लगती है।

जिन फैक्ट्रियों में घटिया कोयला जलता है उनका धुआँ गहरा काला होता है और यदि उसमें से आर-पार सूर्य को देखा जाय तो सूर्य गहरे लाल रंग का दिखाई देगा।

पानी के भीतर अगणित जीव-जन्तु विद्यमान रहते हैं पर खुली आँखों से उन्हें देख सकना संभव नहीं, माइक्रोस्कोप की सहायता से ही उन्हें देखा जा सकता है। आकाश में जितने तारे खुली आँखों से दिखाई पड़ते है उतने ही नहीं हैं। देखने की क्षमता से आगे भी अगणित तारे हैं जो विद्यमान रहते हुए भी आँखों के लिए अदृश्य ही हैं बढ़िया दूरबीनों से उन्हें देखा जाय तो दृश्य तारागणों की अपेक्षा लगभग दस गुने अदृश्य तारे दृष्टिगोचर होंगे।

परमाणु अणु की सत्ता को दूर सूक्ष्मदर्शी यंत्रों से भी उसके यथार्थ रूप में देख सकना अभी भी संभव नहीं है। उसके अधिक स्थूल कलेवर की गणित के अध्यात्म पर विवेचना करके परमाणु और उसके अंग प्रत्यंगों का स्वरूप निर्धारण किया गया है। अणु संरचना के स्पष्टीकरण में जितनी सहायता उपकरणों ने की है उससे कहीं अधिक निष्कर्ष अनुमान पर निर्धारित गणित परक आधार पर निकाला जाना संभव हुआ है।

यथार्थता की तह तक पहुँचने के लिए सत्य को प्रत्यक्ष करने के लिए हमें परख के आधार को अधिक विस्तृत करना पड़ेगा। इन्द्रिय जन्य ज्ञान को ही सब कुछ मान बैठना भूल है। जो भौतिक प्रयोगशाला से प्रत्यक्ष हो सके वह सही है ऐसी बात भी तो नहीं है। ऊपर प्रकाश की आँख मिचौनी से रंगों की गलत अनुभूति होने की चर्चा की गई है। सत्य तक पहुँचने के लिए इन्हीं भोंडे उपकरणों को परिपूर्ण मानकर चलेंगे तो अन्धकार में ही भटकते रहना पड़ेगा। किम्वदन्तियों और दन्तकथाओं के प्रतिपादनों से मुक्ति पाने के प्रयास में यदि इन्द्रिय ज्ञान की भोंड़ी भूल-भुलैयों में भटक पड़े तो केवल पिंजड़ा बदला भर हुआ। स्थिति ज्यों की त्यों बनी रही।

भौतिक जगत में भी हमें यथार्थ की तह तक पहुँचने के लिए विवेक का सहारा लेना पड़ता है और सूक्ष्म विवेचना को प्रमाण मानना होता है। अध्यात्म जगत यदि आँखों से दिखाई नहीं पड़ता, ईश्वर और आत्मा की, परोक्ष जीवन की अनुभूति इन्द्रियों से नहीं होती तो यह नहीं मान बैठना चाहिए कि उनका अस्तित्व ही नहीं है। प्रत्यक्ष की परिधि हमें चौड़ी करनी चाहिए। इसमें अतीन्द्रिय ज्ञान को भी सम्मिलित करना चाहिए। विवेक शीलता, ऋतम्भरा प्रत्यक्ष तत्व दृष्टि, योग भूमिका जैसे आधार ही अदृश्य जगत की प्रामाणिकता सिद्ध कर सकते हैं। अध्यात्म प्रयोगों से उत्पन्न चमत्कारी निष्कर्षों को परख कर भी उसके अस्तित्व को समझने में सहायता मिल सकती है।


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