हमारा जीवन असीम पर निर्भर है।

April 1972

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छोटी परिधि में जीवन यापन की कल्पना अवास्तविक है। कोई सोचता भर रहे कि हम छोटे से घर परिवार में रहकर-दो चार रोटी खाकर जरा सी आवश्यकताएं पूरी करते हुए सरल-सा छोटा-सा स्वावलम्बी जीवन जीते हैं। पर यह मान्यता थोड़ी सी अधिक गहराई में उतर कर विचार करने से गलत सिद्ध होती है। हम अत्यधिक विशाल परिवार के सदस्य हैं। और हमारी आवश्यकताएं इतनी अधिक और इतनी मूल्यवान हैं कि उनके साधन जुटाने के लिए अति दूरवर्ती ग्रह-नक्षत्रों को अपनी क्षमता का एक महत्वपूर्ण अंश भेजना पड़ता है। यदि वह अनुदान न मिलें तो हमें उतना अभाव-ग्रस्त रहना पड़े कि जीवन को धारण किये रहना भी न बन पड़े।

अन्न, जल और वायु पर हमारा त्रिविधि आहार निर्भर है। मोटे-तौर पर अन्न खेत में, जल कुँए में और हवा, आकाश में विद्यमान दीखती है। हवा अनायास ही मिलती रहती है, जल थोड़े पैसा खर्च करने या कृषि क्रिया करने से मिल जाता है। पर इन तीनों की उत्पत्ति का मूल कारण जो परमाणु हैं उनकी गतिशीलता अदृश्य रेडियो तरंगों पर निर्भर रहती है। यदि वे तरंगें पृथ्वी पर उचित मात्रा में उपलब्ध न हों तो परमाणुओं की जीवन निर्मात्री गतिशीलता समाप्त हो जाय और अन्न, जल, वायु तीनों ही इस रूप में न रह सकें, जिस रूप में इस समय मिलते हैं। तब आधार-विहीन जीवन की स्थिरता भी न रहेगी। मनुष्य तो क्या पशु-पक्षियों और जीव-जन्तुओं का भी जीवन सम्भव न हो और वृक्ष वनस्पतियों का स्वरूप यदि बन भी गया तो वह वर्तमान स्वरूप से सर्वथा भिन्न अत्यन्त भोंडे और विकृत रूप में ही शेष रहेगा। उस स्थिति में पृथ्वी धीरे-धीरे अन्य ग्रहों की तरह निर्जीव होती चली जायगी।

धरती पर जीवनोपयोगी परिस्थितियों का आधार जिन रासायनिक हलचलों और आणविक गतिविधियों पर निर्भर है; वे अन्तरिक्ष से आने वाली रेडियो तरंगों पर अवलम्बित हैं। शक्ति के स्रोत उन्हीं में हैं। विविध विधि हलचलों की अधिष्ठात्री इन्हीं को कहना चाहिए। हमारा परिवार-हमारा शरीर हमारा अस्तित्व सब कुछ प्रकारान्तर से इन रेडियो तरंगों पर निर्भर है जिन्हें हम आत्मा की तरह जानते भले ही नहीं पर निश्चित रूप से अवलम्बित उन्हीं पर है। जीवन लगता भर अपना है पर उसमें समाविष्ट प्राण इसी अदृश्य सत्ता पर निर्भर हैं जिन्हें विज्ञान की भाषा में रेडियो तरंग पुञ्ज कहते हैं।

चेतन जगत में जिस तरह ब्रह्म की सत्ता व्याप्त है उसी तरह पदार्थों के अस्तित्व और क्रिया-कलाप में इन रेडियो तरंगों की सत्ता प्राण की तरह समाई हुई है।

यह तरंगें कहाँ से आती हैं? क्या यह धरती की अपनी सम्पत्ति या उपज है? इस प्रश्न का उत्तर विज्ञान इस रूप में देता है कि धरती के पास जो जीवन सम्पदा है वह पूरी की पूरी उधार ली हुई है। सूर्य की ऊर्जा धरती पर एक संतुलित मात्रा में बिखरती है। रोशनी और गर्मी के रूप में उसे हम अनुभव करते हैं, अप्रत्यक्ष रूप से उसमें जीवन तत्व भी सम्मिलित हैं। सूर्य यदि न हो अधिक दूर या अधिक पास हो तो फिर पृथ्वी भी अन्य ग्रहों की तरह किसी प्राणधारी के निवास के लिए सर्वथा अनुपयुक्त बन जायगी। सूर्य की ऊर्जा को बहुत बड़ा श्रेय इस धरती को जीवन प्रदान करने का है।

सूर्य से उपलब्ध होने वाली ऊर्जा जिस रूप में पृथ्वी पर आती है वह भी अकेले सूर्य की सम्पत्ति नहीं है उसे साथ में अन्य ग्रह तारकों का अनुदान भी मिला जुला होता है। रेडियो तरंगों का अति महत्वपूर्ण भाग-तो सूर्य की अपेक्षा अन्य ग्रहों से ही अधिक आता है। पृथ्वी पर विद्यमान रेडियो शक्ति का स्रोत तलाश करने पर उसका उद्गम अति दूरवर्ती क्वासर तारकों में और अति निकटवर्ती ‘पल्सर’ पिण्डों से आता है। यदि उनका अनुदान बन्द हो जाय तो फिर यहाँ सब कुछ सुनसान ही दिखाई पड़ने लगे और वह अन्न, जल, वायु भी उपलब्ध न हो जिसे हम तुच्छ और स्वल्प श्रम साध्य समझते हैं। यह वस्तुयें सस्ती कितनी ही हों पर उनकी उत्पादक क्षमता उन दूरवर्ती अति कृपालु पिण्डों की उदारता पर निर्भर है जिनके बारे में हम कुछ भी नहीं जानते।

इस संसार में प्रचुर मात्रा में रेडियो तरंगें बरसाते ‘क्वासर’ तारक हमारी पृथ्वी से सबसे अधिक दूरी पर हैं इनकी खोज डच खगोल विज्ञानी मार्टिन स्मिड में नामक व्यक्ति ने की कैलीफोर्निया के पालोयर शिखर पर लगी 200 इंच व्यास वाली विशालकाय दूरबीन के आधार पर लम्बे समय तक अनुसन्धान करते रहने पर वह इन तारकों का पता लगाने में समर्थ हुआ।

क्वासर का प्रकाश पृथ्वी तक आने में 10 करोड़ प्रकाश वर्ष लगते हैं। दूरबीनों ने जो कुछ इन तारों के बारे में दिखाया है वह 10 करोड़ वर्ष पुराना दृश्य है हो, सकता है कि इस बीच वे नष्ट भी हो गये हों और प्रकाश किरणें, उस समय से चलती रहकर अब कहीं धरती तक आ पहुँची हों।

सन् 60 में अत्यन्त तीव्र रेडियो तरंगें प्रसारित करने वाले चार तारे देखे गये। यों इनका प्रकाश क्षीण था पर रेडियो तरंगों का प्रसारण अत्यधिक था। पहचानने के बाद उनका नाम क्वासी स्टेलर सोर्सेज (क्वासर) रखा गया।

रेडियो टेलिस्कोप-एक्सरे टेलिस्कोप प्रभृति शक्तिशाली यन्त्रों से क्वासर नक्षत्रों के द्वारा पृथ्वी पर आने वाले प्रभावों को जाना गया है और इस निष्कर्ष पर पहुँचा गया है कि ईथर में संव्याप्त रेडियो तरंगों की प्रस्तुत क्षमता को बहुत बड़ा अनुदान इन क्वासर तारकों से मिलता है।

क्वासर हमसे बहुत दूर हैं और इतनी अधिक तेजी के साथ हमसे दूर हट रहे हैं जिसे अकल्पनीय ही कहना चाहिए। क्वासर तारकों में से एक तो 28000 मील प्रति सैकिण्ड के हिसाब से हमारी आकाश, गंगा को छोड़कर शून्य आकाश में दौड़ता चला जा रहा है। इन दूरवर्ती क्वासरों के अतिरिक्त इसी प्रयोजन में सहायक निकटवर्ती पल्सर पिण्ड भी हैं। रेडियो किरणें उनसे भी हमें प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होती हैं।

आकाश में छोटे-छोटे कितने ही पिण्ड छितरे पड़े हैं। इन्हें ‘पल्सर’ नाम से जाना जाता है। इनका व्यास प्रायः 10 मील का पाया गया है। अब तक इनकी संख्या 37 खोजी जा चुकी है। और भी रेडियो दूरबीनों की पकड़ में आने वाले हैं। यह सर्वथा सुनिश्चित अवधि के अन्तर से अति तीव्र रेडियो तरंगें छोड़ते हैं। इस अन्तर को एक सैकिण्ड के तीसवें भाग से लेकर 3 सैकिण्ड तक का पाया गया है। इस अन्तर को ‘बीच-बीच’ की ध्वनि के साथ सुना जाता है। पहले अनुमान था कि किसी अन्य ग्रह के प्राणी एक निर्धारित क्रम प्रक्रिया के साथ टेलीग्राम की डैमी से निकलने वाले ‘गरगट्ट’ प्रवाह की तरह कुछ संदेश संकेत भेज रहे हैं। इस संदर्भ में भी बहुत खोज हुई, पीछे यह निष्कर्ष निकला कि पल्सर जितने छोटे हैं उतने ही तीव्र रेडियो तरंगों के संचारक भी। पृथ्वी पर फैली हुई रेडियो क्षमता की समर्थता में इनका भी बड़ा हाथ है।

सन् 1054 में एक अति भयंकर तारा विस्फोट हुआ। क्रैव नीहारिका के मध्य में हुए इस विस्फोट का जिसका प्रकाश आकाश के सुदूर क्षेत्र में भारी चमक के रूप में देखा गया। उसका अवशेष-सुपर नोवा के रूप में अभी भी मौजूद है। पल्सर उसी के मलबे से बने हैं और वे प्रकाश ही नहीं गामा किरणें और एक्स किरणें भी बड़ी मात्रा में धरती पर भेज रहे हैं। देवज्ञ किप थार्न ने इन्हें भीमकाय आकाशी लट्टू बताया है।

एकाकी जीवन की कल्पना व्यर्थ है। वस्तुतः हम अत्यन्त विशालकाय ब्रह्माण्ड के एक तुच्छ से घटक हैं। जीवन के उद्भव से लेकर उसे गतिशील रखने वाले साधनों के लिए न केवल पृथ्वी पर फैले मनुष्य जानवरों और वनस्पतियों पर निर्भर रहना पड़ता है वरन् अन्तरिक्ष के सुदूर निवासी ग्रह पिण्ड भी हमारी जीवन यात्रा के आधार हैं।

न हम क्षुद्र हैं न हमारा जीवन छोटा है। यह छोटा कुछ नहीं जो कुछ है सो विराट् और विशाल ही है। हमें अपने को विराट मानना चाहिए और विशाल दृष्टिकोण रखते हुए विश्व नागरिक का कर्त्तव्य, उत्तरदायित्व को समझना चाहिए। क्षुद्रता नहीं विशालता ही हमारी वास्तविकता है।


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