हृदय आरोपण या हृदय परिवर्तन

April 1972

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

चिकित्सा शास्त्र की शल्य क्रिया शाखा एक व्यक्ति के शरीर का दूसरे शरीर में आरोपण करने की विधि-व्यवस्था में एक बड़ी सीमा तक प्रगति कर चुकी है। किसी की आँख किसी के शरीर में लगाई जा सकती है। हड्डियों का आरोपण भी इसी तरह किया जाता रहा है। गुर्दे भी बदल गये हैं। एक व्यक्ति का रक्त दूसरे की नसों में चढ़ाने की प्रक्रिया तो बहुत दिनों से चल रही है। बन्दर की पौरुष ग्रन्थियाँ मनुष्य के शरीर में लगा कर बुढ़ापे को जवानी में परिवर्तन करने का प्रयत्न किया जाता रहा है।

जहाँ तक शल्य-क्रिया का संबंध है वहाँ तक इस क्रिया-कलाप की विधि-व्यवस्था संबंधी जानकारी को सराहा ही जायगा और यही कहा जायगा कि मनुष्य की तत्परता एवं प्रयत्नशीलता किसी भी क्षेत्र में कुछ भी चमत्कार दिखा सकती है।

इतना होते हुए भी प्रकृति के साथ इस दिशा में प्रबल संघर्ष करना पड़ रहा है और उसमें सफलता नहीं मिल रही है। हर व्यक्ति की मूल प्रकृति में काफी अन्तर रहता है। यों कहना चाहिए कि जितने व्यक्ति उतनी प्रकृति होती है। किसी की आकृति किसी से नहीं मिलती। हर मनुष्य की शक्ल अपने ढंग की अनोखी है। उस तरह का दूसरा व्यक्ति-कभी हुआ है और न होगा। मनुष्य ही क्यों पशु पक्षियों में भी यही भिन्नता पाई जाती है। तभी तो गड़रिया अपनी भेड़ों में से एक भी बिछुड़ कर दूसरे झुण्ड में चली जाय तो आसानी से पहचान लेता है। मोटे रूप में सब भेड़ें एक सी दीखते हुए भी वस्तुतः उनकी बनावट में अन्तर होता है। शक्ल, सूरत की तरह ही शरीर की अन्तरंग प्रक्रिया में, भारी अन्तर पाया जाता है भले ही वह मोटे विश्लेषण में समझ में न आये।

यह अन्तर अपने स्तर में भिन्न स्तर को स्वीकार नहीं करता और यदि ठूँसा जाय तो विद्रोह खड़ा कर देता है। यदि अपने रक्त से मिलते-जुलते वर्ग का रक्त नसों में प्रवेश करें तो ही शरीर उसे स्वीकार करेगा अन्यथा भिन्नता रही तो विद्रोह खड़ा हो जायगा और जिस लाभ की आशा से रक्त चढ़ाया गया था उसकी अपेक्षा दूसरी तरह की हानि खड़ी हो जायगी, अन्य अवयवों के बारे में भी यही बात है। आँख, गुर्दा, पौरुष ग्रन्थि आदि अवयव यदि अपने शरीर की प्रकृति से तालमेल खाते हैं तो ही उनका आरोपण सफल होगा, अन्यथा वह प्रयास निरर्थक हो जायगा। कई बार तो उल्टी हानि की आशंका रहेगी।

हृदय आरोपण का प्रयत्न इन दिनों बड़े उत्साह के साथ चल रहा है। पर उसमें भी यही कठिनाई है। हृदय अन्य अंगों की तुलना में और भी अधिक संवेदनशील होता है इससे दूसरे शरीर की भिन्न स्थिति को आत्म-सात करने के लिए प्रकृति तैयार नहीं होती, फलस्वरूप वे प्रयत्न अक्सर असफल हो जाते हैं।

केपटाउन (अफ्रीका) के अस्पताल में एक 25 वर्षीय युवती डेनेज डारवाल घायल अवस्था में दाखिल हुई। 2 दिसम्बर 67 को मोटर दुर्घटना में वह लड़की कुचल गई। डाक्टरों ने उसके अच्छे हो सकने की सम्भावना से इनकार कर दिया।

इसी समय एक हृदय रोगी वाशंकाँस्की के लिए हृदय बदलने की आवश्यकता अनुभव की गई थी। घायल लड़की के माँ बाप ने उसका हृदय दूसरे रोगी के लिए देना स्वीकार कर लिया।

डॉक्टर बर्नार्ड ने अपने 30 सुयोग्य साथियों की सहायता से यह कार्य अपने हाथ में लिया दोनों के हृदय निकाले गये। लड़की का हृदय-वाशंकाँस्की को लगाया गया यह प्रक्रिया बड़ी जटिल थी पर उसे कुशल सर्जनों द्वारा होशियारी से पूरा कर लिया गया।

कई दिन पश्चात् होश में आने के बाद वाशंकाँस्की ने आंखें खोली। प्रेस टेलीविजन को इण्टरव्यू दिया और आपरेशन की सफलता व्यक्त की। इससे आशा की जाने लगी कि यह हृदय आरोपण प्रक्रिया सफलता की ओर बढ़ेगी।

किन्तु भवितव्यता को कुछ और ही मंजूर था रोगी की स्थिति बिगड़ने लगी। एक सप्ताह बाद उसके शरीर में श्वेत रक्त कणों ने विरोधी प्रतिक्रिया आरम्भ कर दी। दवाओं की बेहोशी से शरीर जैसे ही सम्भला कि प्रतिक्रिया तेज होती चली गई। उसे निमोनिया हुआ और 18 दिन उपरान्त उसकी मृत्यु हो गई।

हृदय आरोपण की सफलता अभी पूर्णतया संदिग्ध है। जो प्रयोग परीक्षण किये गये हैं उन पर अध्ययन करना शेष है कि यह जादुई कौतुक के स्तर पर नहीं-व्यापक सम्भावनाओं को देखते हुए सम्भव भी है या नहीं, फ्रांसिस्को में सम्पन्न हुए डाक्टरों के एक सम्मेलन ने राष्ट्र संघ से माँग की है कि फिलहाल समस्त विश्व में हृदय आरोपण के प्रयोग बन्द करा दिये जायें क्योंकि अब तक जितने आपरेशन इस तरह के हुए हैं उनके साथ जुड़ी हुई समस्या इतनी अधिक और इतनी गम्भीर है कि उनके अध्ययन करने और निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए अभी काफी काम करना शेष है।

एक व्यक्ति का हृदय दूसरे व्यक्ति को लगाने के संबंध में अनेक नैतिक प्रश्न उत्पन्न होते हैं। वर्तमान कानून के अनुसार आत्महत्या को अपराध माना गया है। जिस प्रयत्न में मरण निश्चित हो उसे आत्म-हत्या माना जाता है। यदि कोई व्यक्ति स्वेच्छा से किसी को अपना हृदय देता है तो फिर वह स्वेच्छा मृत्यु आत्महत्या की श्रेणी में क्यों न गिनी जायगी? फिर जो व्यक्ति दूसरे का हृदय अपने में लगवायेगा क्या वह नर-बलि वाले कानून की पकड़ में न आयेगा? क्या उसे स्वार्थ प्रयोजन के लिए दूसरे का प्राण लेने वाला हत्यारा न कहा जायगा?

स्वेच्छा हृदय दान के उपरान्त दूसरी स्थिति वह आती है जिसमें किसी दुर्घटना-ग्रस्त या रोग-ग्रस्त व्यक्ति के अन्य अंग तो मृतक घोषित कर दिये जायें किन्तु हृदय ठीक हो। ऐसे अचेतन व्यक्ति का हृदय यदि उसके घर वाले निकालने की स्वीकृति देते हैं तो देखना यह होगा कि क्या उन्हें उस तरह से स्वीकृति देने का अधिकार भी है? डॉक्टर यदि किसी को पूर्ण मृत घोषित कर देते हैं तब तो उसका हृदय भी बेकार हो जायगा। यदि जीवित रहते हृदय निकाला जाता है तो यह कैसे कहा जा सकेगा कि उस तथा-कथित सम्भावित मृतक को अच्छा न किया जा सकेगा। अनेक घटनायें ऐसी होती रहती हैं जब उनमें एक बार मान लिया गया कि व्यक्ति लगभग मर गया। उसके मृतक कृत्य की तैयारी पूरी कर ली गई, फिर प्राण लौट आया और वह जीवित हो सका। ऐसी दशा में किसी डॉक्टर को पूर्ण मृत होने से पूर्व यह भविष्य वाणी करने का अधिकार कैसे मिल सकता है कि यह व्यक्ति अवश्य ही मर जायगा?

जीवित व्यक्ति का हृदय लिया जाना-नैतिक और कानूनी प्रश्न है। पूर्ण मरने पर हृदय बेकार। जीवित स्थिति में लेने से हत्या या आत्महत्या का अपराध। जब तक न्याय और औचित्य की दृष्टि से यह निश्चित न हो जाय कि इस प्रकार का हृदय दान उचित है-उसका आदान-प्रदान, आरोपण एक उलझन भरा गम्भीर प्रश्न ही बना रहेगा। फिर जितने हृदय रोगी आज हैं, उनके लिए इतने हृदय दान मिल भी कहाँ सकेंगे? प्रयोग परीक्षण की बात दूसरी है पर इससे हृदय रोगों का उपचार का सर्व सुलभ मार्ग तब भी नहीं निकलेगा जब हृदय आरोपण को कानूनी सहमति भी मिल जाय। फिर उसके पीछे वह आशंका भी विद्यमान है कि सम्पन्न लोग प्रलोभन अथवा अनाचार के बल पर स्वार्थ साधन के लिए अनैतिक तरीकों से ‘हृदय’ प्राप्त करने की दुरभि संधियाँ करने-कराने लगेंगे और संसार में एक नये अनाचार का द्वार खोलेंगे।

तात्विक दृष्टि से यह तथ्य अंगों के आरोपण में ही नहीं-हर क्षेत्र में सदा प्रखर रहेगा कि समान स्थिति ही आत्मसात की जा सकती है। प्रकृति में बहुत अधिक भिन्नता होने पर तालमेल बैठता नहीं इसलिए समूह रचना, संगठन, मैत्री, परिवार, विवाह आदि प्रयोजनों में समान विचार, समान उद्देश्य, समान स्वभाव और समान प्रकृति का तालमेल ही ठीक बैठता है। या तो वह पहले से ही अनुकूल हो या फिर पीछे प्रयत्न करके अनुकूलता उत्पन्न की जाय, यदि ऐसा न हो सका प्रकृति भिन्नता बनी रही तो समन्वय काम-चलाऊ ही रहेगा उसमें गहराई न आ सकेगी आत्मसात होने की प्रक्रिया भी न बन पड़ेगी और वह समन्वय ऐसा ही उखड़ा-उखड़ा सा रहेगा। यदि भिन्नता, प्रतिकूलता के स्तर पर पहुँच गई तो वह विच्छेद विद्रोह की स्थिति उत्पन्न होकर ही रहेगी। इसलिए समूह रचना की दिशा में कदम बढ़ाते हुए प्रकृतिगत समानता ढूँढ़ने या विनिर्मित करने की आवश्यकता को भुला न दिया जाना चाहिए।

शत-प्रतिशत समानता तो नहीं मिलती पर जिसका रक्त स्तर जिसके रक्त से समान पड़ता है उसे शरीर स्वीकार कर लेता है। पूर्ण प्रकृति तो किसी की भी नहीं मिलती, पर जिनमें अधिकतर समानता रहती है उनका स्नेह संबंध बना रह सकता है। पर यदि दिशायें उल्टी रहीं-और परिवर्तन संभव न हुआ तो वह बन्धन हर दृष्टि से कष्टकर और असफल ही बना रहेगा। अंगों के आरोपण की तरह मैत्री परिवार बढ़ाने की आवश्यकता पूरी करने के प्रयास में भी यह तथ्य ध्यान में रखा जाना चाहिए।

हृदय आरोपण का प्रश्न वस्तुतः जटिल और विचारणीय है। हृदय के रुग्ण हो जाने पर जीवन की स्थिरता ही संकट में पड़ जाती है और कभी भी प्राण संकट उत्पन्न होने का खतरा बना रहता है। अस्वस्थ हृदय यदि बदल कर उसके स्थान पर स्वस्थ का आरोपण हो सके तो निस्सन्देह एक बहुत बड़ी बात हो सकती है और नवजीवन की संभावनायें साकार हो सकती हैं।

एक आदमी का हृदय दूसरे को लग सकता है कि नहीं इसका निष्कर्ष निकालना शरीर शास्त्रियों का काम है, यह प्रक्रिया नैतिक है या अनैतिक यह निर्णय करना न्याय शास्त्र का काम है। जितने हृदय के रोगी हैं उतने स्वस्थ हृदय मिल भी सकेंगे क्या? उनका मूल्य चुकाना और आपरेशन फीस चुका सकना सामान्य स्तर के व्यक्ति के लिए संभव है क्या, इसका विचार करना समाज शास्त्र वेत्ताओं की परिधि में आता है। उन्हें अपने-अपने ढंग से सोचना चाहिए और यदि हृदय आरोपण उचित और सरल हो तो उसके लिए अधिक प्रयत्न करना चाहिए। अध्यात्म शास्त्र हृदय आरोपण की बात तो नहीं करता पर हृदय परिवर्तन का प्रतिपादन करता है और इसे सर्वथा सम्भव बताता है। हृदय रुग्णता की तरह ही हृदयगत विकृति भी भयावह है।

हृदय रोगों की तरह हृदय विकृतियों के होने वाली हानियों पर भी विचार किया जाना चाहिए और हृदय चिकित्सा की तरह भाव-विकृतियों के निराकरण को भी महत्व मिलना चाहिए। हृदय आरोपण को शरीर शास्त्री जितना महत्व दे रहे हैं उससे अधिक महत्व अध्यात्म शास्त्रियों को हृदय परिवर्तन पर देना चाहिए।

हृदय आरोपण सफल होने पर भी मनुष्य जैसे का तैसा रहेगा पर हृदय परिवर्तन होने पर वह तत्काल तुच्छ से महान बनेगा। वाल्मीकि, अँगुलिमाल, अजामिल, विल्व मंगल का हृदय परिवर्तन ही हुआ था कि उनका कलुषित जीवन मूर्तिमान देवत्व बन गया। छोटे घर परिवारों में उत्पन्न हुए व्यक्ति अपने में महानता विकसित करते ही ऐसे मार्ग पर चल पड़े जिस पर उन्होंने आत्म-कल्याण भी किया और विश्व-कल्याण में ऐतिहासिक योगदान दिया। कबीर, रामदास, रामकृष्ण परमहंस, शंकराचार्य, रामतीर्थ, विवेकानन्द, तुलसीदास आदि की असामान्य स्थिति का कारण उनके दृष्टिकोण का बदलना-हृदय परिवर्तन ही एकमात्र कारण था। गाँधी, बुद्ध, मीरा, ईसा आदि का महान जीवन उनकी साधना-सुविधा ने नहीं हृदय परिवर्तन ने ही सम्भव किया।

सहृदय व्यक्ति अपने हृदय के टुकड़े काट कर अनेकों के हृदय क्षेत्र में बो सकता है। गन्ना, गुलाब, बरगद, चाँदनी आदि की डालियाँ काट कर बोई जाती हैं और वे ही अंकुरित होकर नया पौधा बन जाती हैं। हृदय आरोपण तो एक व्यक्ति का रक्त पिण्ड दूसरे को देने से एक का ही लाभ होता है और वह भी तब जबकि देने वाले को लेने वाले के पक्ष में अपने जीवन का अन्त करना पड़े। हृदय परिवर्तन में ऐसी बात नहीं है। सहृदय व्यक्ति अपनी महानता, ममता, क्षमता दूसरों के अन्तःकरण में आरोपित कर सकता है। अपने टुकड़े काट कर वह दूसरों को देता चलता है उससे अन्य लोग महान बनते हैं पर देने वाले को कोई क्षति नहीं उठानी पड़ती है वरन् आन्तरिक उल्लास का लाभ होता है। हमें हृदय परिवर्तन के अस्पताल खोलने चाहिए और उसकी शल्यक्रिया का विधान जानना चाहिए। यह प्रयोग हृदय आरोपण से अधिक श्रेष्ठ और श्रेयस्कर सिद्ध होगा।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles