‘मैं’ कौन हूँ, क्यों हूँ, किसका हूँ? यह प्रश्न ऐसे हैं जिनको उपेक्षित-बिना हल किया हुआ, छोड़ दिया जाय तो वह लापरवाही बहुत महंगी पड़ती है। जीवन का सारा आनन्द ही चला जाता है। आनन्द ही नहीं चला जाता, वरन् इस उलझी हुई गुत्थी में उलझकर मनुष्य ऐसी जिन्दगी जीने के लिए विवश होता है जिसे नीरस और भारभूत ही कहा जा सके।
पिछले अंक में उस मनःस्थिति का चित्रण किया गया है जिसमें अपने आपको शरीर मान लेने से साँसारिक सुख-दुख, हानि-लाभ, मान-अपमान किस तरह उद्विग्न उद्वेलित करते हैं और हर परिस्थिति, आशंका एवं असंतोष से भरी रहती है। जो कुछ उपार्जन किया था उसका हर्ष रत्ती भर होता है और उसके साथ जुड़ी हुई विषमताओं का चिन्तन पहाड़ भर। जिसमें हर्ष स्वल्प और विषाद अपरिमित हो ऐसी जिन्दगी जीकर कौन अपने आपको सौभाग्यशाली मानेगा?
किन्तु अपने संबंध में सही ढंग से सोचने की विधि हाथ लग जाय तो देखते-देखते जादू की तरह असन्तोष और उद्वेग की स्थिति सन्तोष और उल्लास से भर जाती है। आगे और पीछे जो अन्धकार दीख रहा है उसे प्रकाश में परिणत होते देर नहीं लगती। इसी स्थिति को आत्मज्ञान कहते हैं। इसे एक प्रकार का आन्तरिक काया-कल्प ही कहना चाहिए। सुना है कि किन्हीं दिव्य विधियों से वृद्ध और जीर्ण शरीर को नवयौवन की स्थिति में बदला जा सकना सम्भव है। उस विधि को काया-कल्प कहते हैं। शारीरिक काया-कल्प के उदाहरण और प्रयोग इन दिनों प्रत्यक्ष दिखाई नहीं पड़ते; पर आत्मिक काया-कल्प हर किसी के लिए सम्भव है। आज ही-अभी ही वह स्थिति प्राप्त की जा सकती है जिसके आधार पर गरीबी को अमीरी में-दुर्भाग्य को सौभाग्य में-शत्रुओं को मित्रों में आशंकाओं को-उल्लास में परिवर्तित किया जा सके। इस अन्धकार को प्रकाश में परिणत करने वाली प्रक्रिया को आत्म-बोध कहते हैं। यह आत्म-बोध कोई दैवी वरदान, जादू या चमत्कार नहीं है; सिर्फ उस मान्यता और श्रद्धा का नाम है जो अपने स्वरूप को सही रूप में समझने का अवसर देती है और इतनी सामर्थ्य प्रदान करती है कि पिछले ढर्रे को बदल कर नये सिरे से वस्तुस्थिति के अनुरूप सोचने और करने की पद्धति को अपनाया-कार्यान्वित किया जा सके।
आत्म-बोध-आत्मोत्थान-आत्म साक्षात्कार-जीवन का सबसे बड़ा लाभ है। इससे बड़ी उपलब्धि इस मनुष्य के लिए और कोई दूसरी हो ही नहीं सकती। मैं क्या हूँ? कौन हूँ? किसलिये हूँ, इस तथ्य को समझ लेने के बाद यह भी अनुभूति होने लगती है कि उपकरण, औजार एवं पदार्थों का उपयोग, उपभोग-संबंध, स्नेह की सीमा कितनी रहनी चाहिए, इस सीमा का स्वरूप और निर्धारण जब भी जो भी कर लेगा वह दिव्य-जीवन जियेगा सुख शान्ति से ओत-प्रोत रहेगा और सर्वत्र धरती के देवताओं की तरह महामानवों की तरह हर किसी के अन्तरंग पर श्रद्धा भरा शासन करेगा।
मैं क्या हूँ? इस प्रश्न का उत्तर-शरीर हूँ, के रूप में ही हमारी अन्तः मान्यता देती है, सो परिवर्तनशील प्रकृति के साथ जुड़ी हुई परिवर्तनीय प्रतिक्रियाएं देह के साथ भी जुड़ी ही रहेंगी। संबंधित पदार्थ भी बदलेंगे ही और जिनके साथ स्नेह संबंध है उनमें भी भौतिक कारणों से अन्तर आवेगा ही। रात और दिन की तरह प्रिय-अप्रिय द्वन्द्वों का फेर चलता ही रहेगा और उसे भूल में क्षण-क्षण में प्रिय-अप्रिय अनुभव होते ही रहेंगे। दृष्टिकोण में निषेधात्मक तत्व अधिक होने से एक और भूल होती रहेगी कि शरीर को-संसार द्वारा जो सुख-सुविधायें मिल रही हैं उन्हें देखना-समझना और मोद मनाना सम्भव न हो सकेगा, इसके विपरीत जो अभाव अभियोग हैं वे ही आँखों के आगे खड़े रहेंगे, इस स्थिति में किसी सुसम्पन्न व्यक्ति के लिए भी यह सम्भव नहीं कि वह सुख-शान्ति का अनुभव कर सके।
आमतौर से हर व्यक्ति यही प्रयास करता है कि - दूसरे लोग उसे बड़ा, सुखी या सम्पन्न समझें। इसी का ढाँचा खड़ा करने में उसकी सारी शक्ति लगी रहती है। सारे प्रयास इसी परिधि के इर्द-गिर्द घूमते रहते हैं। वस्त्र-आभूषण, शृंगार, ठाठ-बाट, डिग्री, पद आदि के बड़प्पन प्रदर्शित करने वाले आचरण बड़ी कठिनाई से जमा किये जाते हैं और उसी संचय में सारा समय, श्रम एवं मनोयोग खप जाता है। दूसरे लोग अपनी ही समस्याओं में उलझे होते हैं, उन्हें किसी की अमीरी, गरीबी का मूल्यांकन करने में क्या रुचि हो सकती है, पर हर व्यक्ति समझता यही है कि सब का सारा ध्यान मेरे ही ऊपर केन्द्रित है और यह मनोवैज्ञानिक भूल मनुष्य को उस निरर्थक क्रियाकलाप और चिन्तन में लगाये रहती है जिसे तात्विक दृष्टि से पूर्णतया निरर्थक कहा जा सके। किसी ने-कुछ देर के लिए-हमें साधन सम्पन्न-अमीर-बड़ा आदमी जान या मान भी लिया तो इससे क्या तो अपना प्रयोजन सधा, और क्या उसे लाभ हुआ?
आत्म-बोध न होने से मनुष्य की महत्वाकाँक्षायें-चेष्टाएं-योजनाएं-गतिविधियाँ, एक प्रकार की निरर्थक कामों में-लगी रहती हैं और बहूमूल्य मानव-जीवन ऐसे ही उन विडम्बनाओं में गल जाता है। जो सुख-साधन भौतिक-जीवन में उपलब्ध थे उनको भी दृष्टिकोण के कारण समझा और सराहा नहीं जाता। स्त्री, सन्तान, शरीर, शिक्षा, सहायक, साधन जो कुछ भी मिले हुए हैं उनके मूल्य-महत्व को भी यदि समझने की चेष्टा की जाय-इनसे मिलने वाली सहायता सुविधा का लेखा-जोखा लिया जाय तो भी हर व्यक्ति को अपनी स्थिति बहुत हद तक हर्ष, सन्तोष से भरी हुई प्रतीत हो सकती है; पर इस दुर्भाग्य को क्या कहा जाय, जिसके अनुसार केवल अभाव और छिद्र ही दिखाई पड़ते हैं। अपनी कुरूपता हर किसी को कुरूप प्रस्तुत करती है। आन्तरिक दुर्बलता, आशंका-अविश्वास, अवरोध, द्वेष, घृणा के रूप में फुफकारती और वातावरण को विषाक्त करती रहती है। सो इन्हीं विडम्बनाओं में उलझा हुआ-विभीषिकाओं से संत्रस्त, आशंकाओं से उद्विग्न-मनुष्य अन्तर्दाह की आग में हर क्षण जलता हुआ नारकीय जीवन जीता है। यह सब आत्म बोध न होने का परिणाम है।
मैं क्या हूँ? इसका उत्तर अपने अब तक के चले आर रहें ढर्रे वाले अभ्यास के अनुरूप नहीं वरन् तत्व चिन्तन के आधार पर देना चाहिए। दूसरे लोग क्या कहते हैं-क्या सोचते हैं और क्या करते हैं-इससे भी हमें प्रभावित नहीं होना चाहिए। निस्संदेह वातावरण अन्धकार भरा है। प्राचीन काल में सतयुगी व्यक्तित्व, कर्तृत्व और वातावरण-शुद्ध चिन्तन में सहायता करता था। उससे प्रभावित हर नागरिक को सही दिशा मिलती थी। आज सब कुछ उल्टा है; यदि आज वस्तुस्थिति समझने के लिए लोग क्या कहते हैं और क्या करते हैं इसे आधार बनाया जाय तो निश्चित रूप से हमें अवाँछनीय निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा और अनुचित रीति-नीति अपनाने के लिए विवश होना पड़ेगा।
आत्मबोध की पहली सीढ़ी यह है कि लोक-चिन्तन की अवाँछनीयता को समझा जाय और अपनी अब तक की ढर्रे पर लुढ़कती हुई मान्यताओं के औचित्य