दिव्य दृष्टि का संचार स्रोत-तृतीय नेत्र आज्ञाचक्र

April 1972

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संसार में अभी तक ऐसा फोटो कैमरा नहीं बना जो टैकनीकलर, विस्टा विजन और थ्री0डी0 के टेक्नोलॉजी युक्त हो। शत-प्रतिशत साफ फोटो खींचता हो। जिसमें फोटोग्राफर की आवश्यकता न हो और फिल्मप्लेट आदि लगाने का झंझट न हो। ऐसा कैमरा बनना तो दूर किसी वैज्ञानिक के मस्तिष्क में इस तरह की सम्भावना की कल्पना भी अभी तक नहीं आई है। यदि कोई सोचने भी लगे तो इन सारी सुविधाओं से सम्पन्न किसी विशालकाय तन्त्र की ही कल्पना की जा सकती है। इतने उपकरण होते हुए भी उसका साइज एक इञ्च जितना छोटा है। उसे तो सर्वथा अंश रूप ही कहना चाहिए।

यान्त्रिक जगत में ऐसा फोटो यन्त्र भले ही न बना हो, भले ही उसकी सम्भावना अशक्य मानी जाय पर ऐसा कैमरा अपने पास मौजूद है और उसका उपयोग जन्मकाल से ही हम लोग कर रहे हैं-यह जादू जैसा फोटो यन्त्र है-’नेत्र’।

हमारे नेत्र बहुत ही सम्वेदनशील और सक्रिय हैं। अपने पलक एक मिनट में प्रायः तीस सैकिण्ड बन्द रहते हैं और लगभग उतनी ही देर खुले रहते हैं। यह क्रियाकलाप निरन्तर अनायास ही चलता रहता है पर आश्चर्य यह है कि हमें इसका पता तक नहीं चलता। यों आंखें गर्भस्थ शिशु के पाँच महीने में ही बन कर तैयार हो जाती हैं और उनकी वृद्धि का क्रम छः वर्ष की आयु तक चलता रहता है। फिर भी उससे संबंधित मस्तिष्कीय संस्थानों के विकास में 26 वर्ष लग जाते हैं। दृष्टि संबंधी प्रखरता एवं परिपक्वता का क्रम पूरा होने में प्रायः 25 वर्ष लग जाते हैं। इससे पूर्व उसकी आकृति ठीक बन जाने पर भी मानसिक केन्द्र में कुछ न्यूनता ही बनी रहती है।

पलकों के निचले भाग में से एक प्रकार का अश्रु जल स्रवित होता रहता है, यह नेत्र गोलकों पर पड़ने वाली धूलि आदि साफ करता रहता है। वर्षा के दिनों में मोटर ड्राइवर के सामने वाले शीशे पर जमने वाली बूँदों को जिस प्रकार ‘विन्डशील्ड वाइपर’ साफ करता चलता है उसी प्रकार पलकें झपकने की क्रिया और यह अश्रुजल स्राव आँखों की निरन्तर सफाई करते रहते हैं। इस अश्रु जल में जीवाणु नाशक तत्व भी घुले रहते हैं जिनके कारण आँखों का शुद्धिकरण भी चलता रहता है।

आँखों की क्षमता प्रायः डेढ़ सौ प्रकार के रंग भेद पहचानने की है। उनकी बनावट अजीब है स्लोलाइट की तरह पारदर्शक, चमड़े की तरह मजबूत, रबड़ की तरह खिंचनी स्फटिक की तरह स्वच्छ और आजीवन काम देने वाली कभी न घिसने-टूटने वाली वस्तुओं से मिलकर आँखें बनी हैं। दूर दृष्टि और निकट दृष्टि की-प्रकाश के अनुरूप फैलने-सिकुड़ने की सभी विशेषतायें इस नेत्र कैमरे में विद्यमान हैं। बुढ़ापे में ‘कलर फिल्टर’ के तन्तु घिस आने से नीले और काले रंग को पहचानने की क्षमता घटती जाती है। आँख के दृश्य कलेवर से लेकर मस्तिष्क के दृष्टि संस्थान तक की लम्बाई जरा सी है पर उतने से ही गह्वर में प्रायः 13 करोड़ 70 लाख कोष होते हैं। प्रकाश की प्रतिक्रिया को यही तन्तु ग्रहण करते हैं।

आँखों के पीछे का गड्ढा जिसे ‘फोबिया’ कहते हैं। बारीक चीजें देखने के काम आता है यह नेत्र संस्थान दूषण रहित हों तो एक इञ्च के दस हजारवें भाग को भी ठीक तरह देखा और पहचाना जा सकता है।

आँखें देखती जरूर हैं पर उसका निष्कर्ष और प्रभाव स्पष्ट करने वाला संस्थान मस्तिष्क के पिछले भाग में स्थित है। टेलीफोन पद्धति में ‘क्रास टाक’ जैसी प्रक्रिया ही नेत्र संस्थान पर होती है और उसी से देखने की प्रक्रिया ठीक तरह अपना काम कर पाती है। मस्तिष्कीय दृष्टि संस्थान में सन्निहित कोषों को तीन वर्गों में विभक्त किया जा सकता है। यह कोष बाह्य जगत के लाल हरे और नीले रंगों से प्रभावित होते हैं इन्हीं कारणों से रंगों के उतार-चढ़ाव एवं सम्मिश्रण से बनने वाले अगणित रंग हमें परिलक्षित होते हैं। मस्तिष्क ज्ञान का 85 प्रतिशत भाग इन्हीं नेत्र गोलकों द्वारा उपलब्ध एवं विकसित होता है।

आँखों की स्थूल शक्ति की भी अपनी महत्ता है। आँखें न रहने पर संसार में सर्वत्र जब घोर अन्धकार ही शेष रह जाता है, उस स्थिति की कल्पना करें तो प्रतीत होगा कि नेत्र ज्योति मानव जीवन की कितनी बड़ी आवश्यकता है। पर इससे भी बढ़कर है हमारी सूक्ष्म दृष्टि जो उस अदृश्य जगत को दृश्यमान करती है जो चर्म चक्षुओं की पकड़ से बाहर है।

यह नहीं समझना चाहिए कि प्रकाश के माध्यम से हमारी आँखें जो देख पाती हैं, उतना ही दृष्टि क्षेत्र है। वस्तुतः प्रकाश का सूक्ष्म स्वरूप ऐसा भी है जो हमारी नेत्र सीमा से बाहर रहते हुए भी संसार में विद्यमान है और उसे भी देखा- समझा जा सके तो हम समस्त विश्व को अपने दृष्टि क्षेत्र में ले सकते हैं। तब ‘दूरदर्शी’ शब्द मात्र समझदार लोगों के-आगे की बात सोचने वालों के लिए ही लागू न होगा वरन् सचमुच हम उस स्थिति में पहुँच जायेंगे कि दूर की-अति दूर की-समस्त संसार की घटनाओं को देख सकें।

राडार यन्त्र में यही होता है वह प्रकाश किरणों से अधिक सूक्ष्म रेडियो किरणों के आधार पर दूरवर्ती वस्तुओं को उनकी हलचलों को देख सकता है। टेलीविजन पर दूरवर्ती दृश्य हमारे सामने छाया रूप में प्रस्तुत होते हैं, उसी से मिलता जुलता पर दूसरे सिद्धान्त पर आधारित राडार उपकरण है। दूरदर्शन में हमें टेलीविजन की तरह वह भी सहायता पहुँचाता है।

राडार एक प्रकार की वैज्ञानिक आँख है जो प्रकाश तरंगों की अपेक्षा रेडियो तरंगों के माध्यम से देखने का प्रयोजन पूरा करती हैं। राडार-शब्द-रेडियो डिटेक्शन एंड रेंजिंग का संक्षिप्तीकरण है।

हमारी आँखें किसी वस्तु को तभी देख पाती हैं जब प्रकाश की किरणें उससे टकराकर परावर्तित होती हैं। अँधेरे में न देखने का कारण यही है कि प्रकाश के अभाव में उसकी किरणें वस्तुओं पर पड़ती ही नहीं तो फिर वे परावर्तित होकर आँखों तक लौटेंगी ही कैसे? आँखों में स्वयं तो इतनी शक्ति है नहीं कि वे किसी वस्तु को प्रकाशवान बना सकें।

राडार को जादुई आँख कह सकते हैं। जिसमें देखने की ही नहीं वस्तुओं को प्रकाशित करने की भी क्षमता है। राडार के एन्टीना में एक ऐसा ट्रान्समीटर लगा होता है जो वस्तुओं को प्रकाशवान बनाता है। साथ ही एक ऐसा रिसीवर भी लगा होता है जो प्रकाशित वस्तु से टकराकर लौटने वाली किरणों को ग्रहण कर सके।

यहाँ यह जान लेना चाहिए कि राडार द्वारा फेंका हुआ प्रकाश सूर्य या बिजली के प्रकाश जैसा चमकीला नहीं होता न वह खुली आँखों से दिखाई पड़ता है। इसे वस्तुतः प्रकाश नहीं रेडियो कम्पन कहना चाहिए। प्रकाश किरणों की तरह रेडियो किरणें भी होती हैं पर वे चमकीली न होने के कारण आँखों को दिखाई नहीं पड़ती। अन्य बातों में दोनों समान हैं।

रात में सामने से मोटर आ रही हो तो उसके प्रकाश से सामने वाले ड्राइवर की आंखें चौंधियाने का खतरा रहता है। तेज रोशनी की ओर कुछ देर देखा जाय तो भी आँखें चौंधिया जाती हैं और उनका दीखना बन्द हो जाता है। इसके लिए लगातार देखना रोकना पड़ता है। या तो पलक झपक कर-या रोशनी को जलाते-बुझाते रहकर यह व्यवस्था करनी पड़ती है कि लगातार देखने का सिलसिला न चले। ठीक यही बात रेडार में होती है। रेडियो तरंगें भेजने और ग्रहण करने के बीच थोड़ा सा व्यवधान रखना पड़ता है। यह सिलसिला चालू रखकर दूरवर्ती वस्तुओं को देख सकना राडार के लिए सम्भव होता है।

रेडियो तरंगों की चाल भी लगभग उतनी ही है जितनी कि प्रकाश किरणों की होती है। एक सैकिण्ड में 3 लाख किलोमीटर तक की होती है। इतनी दूरी तक रेडियो किरणों के जाने और वापिस लौटने में एक सैकिण्ड के दस लाखवें भाग जितना समय लगता है। यह अत्यधिक स्वल्प समय है। इस अवधि में भी विराम की व्यवस्था करना कठिन प्रतीत होता है। फिर भी वैज्ञानिकों ने इसके लिए उपकरण बना लिये हैं। रेजोनेन्ट, ट्रान्सफार्मर, इम्पीडेन्स, इंवर्टर और स्पार्क गैपों का समन्वय करके एक विचित्र प्रकार का ड्यप्लेकसर विनिर्मित किया गया है, जो स्वल्प समय में भी प्रेषण ग्रहण के बीच व्यवधान रखे जाने की व्यवस्था पूरी करता रहता है।

रेडियो किरणें जिस वस्तु से टकरा कर जितनी देर में लौटती है, उस समय गणना के आधार पर यह जाना जाता है कि अभीष्ट वस्तु कितनी दूरी पर है और उसकी आकृति किस प्रकार की है। यन्त्र में रहने वाली ‘ए-स्कोप’ प्रक्रिया वस्तु की दूरी का ठीक निर्धारण कर देती है। इन दिनों पुरानी पद्धति में और भी सुधार हुए हैं। सूक्ष्म तरंगों का प्रयोग करने वाले ‘केलैस्ट्रीन’ एवं कैवटी मैग्नेट्रोन यन्त्र अब हर बात को और भी अच्छी तरह अंकित करने लगे हैं।

रेडियो तरंगें बादल, धुआँ, कुहरा, अँधेरा सामने होने पर रुकती नहीं और वे निर्दिष्ट दिशा में बिना किसी अवरोध के बढ़ती चली जाती हैं। जबकि प्रकाश किरणें ऐसी रुकावट आने पर अवरुद्ध और कुण्ठित हो जाती हैं। राडार पद्धति में इसीलिए प्रकाश किरणों की अपेक्षा रेडियो तरंगों का उपयोग किया जाता है।

आकाश में उड़ने वाले जहाजों की दूरी दिशा तथा शकल यह राडार ठीक-ठीक बता देता है। आँधी तूफानों की परिधि तथा चाल का पता चल जाता है। आकाश के ग्रह नक्षत्रों की स्थिति का अध्ययन करने में उससे बड़ी सहायता मिलती है। बड़ी-बड़ी दूरबीनें जो देख नहीं पातीं उन्हें बता देना राडार के लिए सरल है। उल्कापात आदि के विवरण वे बराबर अंकित करते रहते हैं। ग्रह नक्षत्रों की दूरी तथा परिधि का अंकन भी इसी पद्धति से सम्भव हुआ है। शुक्र ग्रह तक रेडियो किरणें जाने और वापिस लौटने में लगभग 7 मिनट लगते हैं इसी आधार पर उसकी दूरी लगभग 2 करोड़ मील निश्चित की गई है।

हवाई जहाज आकाश में उड़ते हैं। अँधेरे और कुहरे में उन्हें रास्ते का पता कैसे लगे? उनमें लगे ‘वैठीगेटर’ इसी पद्धति से नगर, नदी, पर्वत, मैदान आदि को दिन की तरह देखते चलते हैं। पानी के जहाजों को भी यह पद्धति सामने के टापुओं, चट्टानों, जहाजों का विवरण बताती है। युद्ध के समय इनका बहुत उपयोग है। पनडुब्बियों की स्थिति का इसी आधार पर पता चलता है। प्रक्षेपणास्त्र फेंकते समय दूरस्थ वस्तु की सही जानकारी इसी यन्त्र से विदित होती है। द्वितीय महायुद्ध में जर्मन वायु आक्रमणों से ब्रिटेन को किसी प्रकार जिन्दा रख लेने का श्रेय इन्हीं यन्त्रों को है।

रेडियो तरंगें अनेक प्रकार की होती हैं। पर उनमें से रेडार उन ‘सुपर फ्रीक्वेन्सी’ वाली तरंगों का ही प्रयोग करता है जो अत्यधिक कम्पन वाली किन्तु ‘अल्पावधि की’ होती हैं। यह एक सीमा तक ही जाती है। कितनी दूरी तक उन्हें प्रयुक्त करना है इसकी सीमा इंडिकेटर में पहले से ही व्यवस्थित कर देनी पड़ती है। यह यन्त्रों की शक्ति और देखने की आवश्यकता के अनुरूप सीमा बन्धन किया गया है। इसका अर्थ यह नहीं है कि रेडियो तरंगों की सीमा इतनी ही है। यह तो उनका एक सीमा बन्धित विशेष प्रयोग है। उनकी ऊर्जा अनन्त दूरी तक


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