परमात्मा की सुन्दर सृष्टि को व्यक्तिगत मानापमान, द्वेष और हिंसा से किसी को भी आलोड़ित करने का अधिकार नहीं है। -विशाख
चलती हुई-सब व्यवधानों को पार करती हुई-असीम तक चली जा सकती है।
दोनों भवों के मध्य भाग में जो बाल रहित खाली स्थान है उसे भृकुटि कहते हैं उसके नीचे अस्थि आवरण के उपरान्त एक बेर की गुठली जैसी ग्रन्थि है। इसे ‘आज्ञा चक्र’ कहते हैं। शरीर शास्त्र की दृष्टि से उसका कार्य और प्रयोजन अभी पूरी तरह नहीं समझा जा सका पर आत्म विद्या के अन्वेषी इसके अति महत्वपूर्ण कार्य को बहुत पहले से ही जानते हैं। इसे तीसरा नेत्र या दिव्य नेत्र कहते हैं। दृव्य दृष्टि यहीं से निःसृत होती है।
भगवान शिव के चित्रों में प्रदर्शित यह एक तीसरा नेत्र इसी स्थान पर अंकित रहता है। कथा है कि इस तीसरे नेत्र को खोलने पर एक प्रचण्ड अग्नि ज्वाला निकली थी और उसी से कामदेव जलकर भस्म हो गया था। भगवती दुर्गा के चित्रों में भी यह तीसरा नेत्र इसी स्थान पर विद्यमान है। यह तीसरा नेत्र हर मनुष्य के शरीर में मौजूद है। प्रश्न केवल विकसित करने का है। सामान्यतया दो चर्म चक्षु ही काम करते हैं और उन्हीं से जीवन के साधारण काम-काज चलाये जाते रहते हैं।
यह तीसरा नेत्र-आज्ञाचक्र यदि विकसित किया जा सके तो उससे राडार, टेलीविजन और एक्सरे यन्त्रों के तीनों काम लिये जा सकते हैं। राडार, रेडियो किरणें फेंकता है और उनके वापिस लौटने से उस स्थान का विवरण प्राप्त करता है जिस स्थान पर वे किरणें टकराई थी। टेलीविजन से दूरगामी दृश्य दिखाई पड़ते हैं। संजय ने महाभारत का सारा दृश्य इसी पद्धति से देखा था और धृतराष्ट्र को पल-पल की विस्तृत खबरें देते रहने का कार्य-दायित्व भली प्रकार निबाहा था। एक्सरे से आवरण से ढकी वस्तुयें भी दीखती हैं। शरीर के भीतरी भागों के फोटो उसी से लिये जाते हैं और क्षयजन्य घाव, हड्डी टूटना, गोली छर्रा आदि का लगा होना उसी के द्वारा लिये हुए फोटो से जाना जाता है। किसी लकड़ी के बक्स में जेवर आदि रखें हो तो एक्सरे द्वारा उसके फोटो लेकर भीतर क्या है यह जाना जा सकता है। आज्ञाचक्र इन तीनों प्रयोजनों को भली प्रकार पूरा कर सकता है।
सुदूर क्षेत्रों के निवासी व्यक्तियों की परिस्थितियों तथा विभिन्न स्थानों में घटित होने वाली घटनाओं का विवरण आज्ञाचक्र बता सकता है। उससे वहाँ के दृश्य देखे जा सकते हैं जहाँ नेत्रों की पहुँच नहीं है। भूगर्भ में छिपे हुए रहस्य प्रकट हो सकते हैं और अन्तरिक्ष में जो सूक्ष्म क्रिया-कलाप अभी पक रहा है, निकट भविष्य में प्रत्यक्ष होने वाला है, उसका पूर्व रूप समझा जा सकता है। यह साँसारिक अगम्य ज्ञान की उपलब्धि हुई। इससे ऊपर आत्म सत्ता का-आत्म चेतना का-दैवी संकेतों का अभ्यास है। इसे देख सकना इतना अद्भुत और आकर्षक है कि उस स्थिति में पहुँचा हुआ व्यक्ति परा और अपरा प्रकृति के सारे रहस्यों से ही अवगत हो जाता है। तब यह स्थूल जगत के क्रिया कलापों के और बाल-क्रीड़ा में रचे हुए रेत बालू के घर मकानों जैसी स्थिति में पाता है। ईश्वरीय सत्ता, आत्मा की स्थिति, जीवन का स्वरूप, जन्म जन्मान्तरों की शृंखला, कर्त्तव्य पथ, लोक व्यवहार का आधार आदि महत्वपूर्ण आधार ही उसे वास्तविक लगते हैं। ऐसा दिव्य दर्शी मनुष्य बाल बुद्धि से प्रेरित ओछी रीति-नीति को त्याग कर अपनी गतिविधियों में उन तत्वों का समावेश करता है जो महामानवों के लिए उचित और उपयुक्त हैं।
तीसरे नेत्र के खोलने से जो विवेक बुद्धि जागृत होती है उससे काम, क्रोध, लोभ, मोह जैसे मृग मारीच अपने असली रूप में प्रकट हो जाते हैं और उन्हें नष्ट करने के लिये शिवजी के तीसरे नेत्र की तरह हर विवेकवान की दिव्य दृष्टि खुलती है। परिष्कृत दृष्टिकोण विकसित हो जाने के कारण उसके सोचने और करने का तरीका माया मोह ग्रस्त-अज्ञान अन्धकार में भटकने वाले लोगों से सर्वथा भिन्न होता है।
दो नेत्र प्रकृति ने दिये हैं, तीसरा नेत्र खोलने और दिव्य दृष्टि प्राप्त करने को आज्ञाचक्र साधना करना-दूरदर्शी विवेकवान का काम है। हमें इस परम पुरुषार्थ के लिए साहस जुटाना ही चाहिए।