युग-अभिनन्दन (Kavita)

April 1972

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पुनर्जागरण के स्वर छेड़ो जन-मन के तारों पर,

तभी विश्व में नूतन युग का अभिनन्दन होगा।

आज सृजन की डोली लेकर आगे बढ़ो कहारों।

आज प्रगति की धार न बाँधो सीमित कूल कगारो।

धरती के सीने के ऊपर की चादरें हटा दो-

हर पतझड़ की जड़ें काटकर, खुलकर हँसो, बहारो!

श्रम के सर्जक! उठो! बहाओ स्वेद ईंट-गारों पर।

वही भूमि के भाग्य-भाल का वर, चन्दन होगा।

तभी विश्व में नूतन युग का अभिनन्दन होगा॥

आज किसानों की कुटिया के सन्तोषों को पूजो!

मुक्त सृजन के सरगम के संग कर्म-कोकिलों! कूजो!

द्वार-द्वार से बहती आओ मनुज-प्यार की गंगे।

बन्धु-भाव के सप्त स्वरों! तुम विश्व-गगन में गूँजो!

विश्वासों का दाव लगाओ मत थोथे नारों पर-

तभी सार्थक ‘जन-मन-गण’ का यश वन्दन होगा।

तभी विश्व में नूतन युग का अभिनन्दन होगा॥

और धार चमकाओ कृषकों! निज हल की फालों पर,

रीझ उठे जीवन की मुरली सरल ग्राम-ग्वालों पर।

किसी नयन को भिगो न पायें अब अभाव के आँसू-

मुखरित कलियों की छाया हो गलियों के गालों पर!

पीछे सृष्टि बसायेंगे हम व्योम-चाँद-तारों पर,

पहले धरती का हर मरुथल नन्दन वन होगा।

तभी विश्व में नूतन युग का अभिनन्दन होगा॥

प्रतिपल सजग रहो सीमा पर विजयी पहरेदारों!

लक्ष्मण-रेखा अब न लाँघना, ओ लोभी हत्यारों!

जो भी पतझड़ चले लाँघने इस बसन्त का वैभव,

उसे फूँक देना पलभर में फौलादी अंगारों।

अटल एकता सकल राष्ट्र की डटे सिंह द्वारों पर,

तभी सुरक्षा के कन्धों पर युग-सर्जन होगा।

तभी विश्व में नूतन युग का अभिनन्दन होगा॥

(जगदीश सहाय खरे ‘जलज’ एम0ए0)

*समाप्त*


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