देव, दानव या मानव कुछ भी बना जा सकता है।

April 1972

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मनुष्यता भूलोक है। इस धरती के श्रेष्ठ नागरिक बनकर मानवीय कर्तव्यों को पूरा करते हुए हम भू-लोक वासी मानव प्राणी कहला सकने का गर्व और गौरव अनुभव कर सकते हैं।

इससे ऊँचे लोक में जाने की इच्छा हो, स्वर्ग के पाने और रहने की इच्छा हो, तो हमें ऊँचा उठना होगा। कर्त्तव्यनिष्ठ नागरिक मात्र रहने भर से सन्तुष्ट न होकर करुणा और ममता का विकास करना होगा। पुण्य और परमार्थ अपनाना होगा। अपना चरित्र उस मार्ग-दर्शक स्तम्भ के रूप में विनिर्मित करना होगा जिसके प्रकाश में अगणित लोग सत्पथ पर चलने की प्रेरणा प्राप्त कर सकें।

आत्म-निर्माण मानवी कर्तव्य है, पर देव भूमिका की प्राप्ति आत्म-विकास से ही सम्भव है। अपनी अहंता जब संकीर्णता के बंधन तोड़ती हुई विशाल और व्यापक बनती है, लोक-कल्याण ही आत्म-कल्याण लगता है, तब समझना चाहिए हम देव बनें। देवताओं के लिए ही स्वर्ग बना है। हमारा विकसित देवत्व निश्चित रूप से हमें वहाँ पहुँचा देगा, जिसे स्वर्ग कहा जाता है। स्वर्ग ऊपर है, वहाँ पहुँचने के लिए ऊँचा उठना ही पड़ेगा। चरित्र, दृष्टिकोण और कर्म तीनों को ऊँचा उठाते हुए कोई भी व्यक्ति स्वर्ग के राज्य में सरलता पूर्वक प्रवेश कर सकता है।

नरक में जाने की इच्छा हो तो वह भी पूर्णतया अपने हाथ की बात है। नरक नीचे है। उसे अधःलोक कहते हैं। पतित जीवन जीने वाले, पतित दृष्टिकोण अपनाने वाले और पतित कर्म करने वाले अपने समग्र अधःपतन के कारण सहज ही नरक तक पहुँच सकते हैं।

नीति और सदाचरण की मर्यादाओं का उल्लंघन कर्तव्य धर्म की उपेक्षा, दूसरे के प्रति निष्ठुरता और दुष्टता का व्यवहार, इन्द्रियों का स्वेच्छाचार, मन की कुटिलता जिसने अपना ली, उसे नरक तक पहुँचने में कोई रुकावट नहीं रहती। वह फिसलता हुआ, उस स्थान तक पहुँचने और चिरकाल तक रहने में सफल हो सकता है-जिसे नरक कहा जाता है और जहाँ की असत्य मंत्रणाओं का वीभत्स वर्णन किया जा सकता है। उसे देखना ही नहीं-अनुभव करना भी पूरी तरह अपने हाथ में है। इसके लिए केवल अपनी प्रवृत्तियों को पतनोन्मुख भर बनाना है।

मनुष्य, देव और असुर यह तीन वर्ग माने गये हैं। यों वर्णनकर्ताओं ने इनकी आकृति का भी अन्तर किया है पर वह आलंकारिक है। यह तीनों ही वर्ग मनुष्य जाति में ही होते हैं। वस्तुतः आकृति में नहीं प्रकृति में अन्तर होता है।

देवता सुन्दर होते हैं, स्वर्ग में रहते हैं, वरदान देते हैं और सत्कर्म देखकर प्रसन्न होते हैं। स्वयं सुखी रहते हैं और सब को सुखी करते हैं। देखने में सुन्दर, स्पर्श में सुकुमार, सदा तरुण और अमर, अमृतपायी होते हैं। कल्प-वृक्ष के समीप रहने के कारण उनकी कोई कामना अपूर्ण नहीं रहती।

असुरों का काला कलंकित मुख होता है। दाँत बड़े-बड़े सबको खा जाने की लोभ लिप्सा के प्रतीक। सिर पर सींग-हर किसी को त्रास देने का, कष्ट पहुँचाने का-गिराने की दुष्प्रवृत्ति का परिचय देते हैं। लाल नेत्र-अहंता, ईर्ष्या और आवेश के प्रतीक। यह असुर न चैन से बैठते हैं और न बैठने देते हैं। भयावह ही उनकी आकृति होती है और भयंकर ही प्रकृति।

मनुष्य इन दोनों का मध्यवर्ती है। उपकार न बन पड़े न सही पर कम से कम किसी का अपकार नहीं करता। अनुकरणीय और अभिवन्दनीय न बन सके पर घृणित और हेय बनकर नहीं जीता। कर्तव्यनिष्ठ सदाचार और स्वाभिमानी संयत जीवन जीता है मनुष्य। मनुष्य भू-लोक में रहते हैं। देवता स्वर्ग में और असुर नरक में रहते हैं। यह तीनों ही स्थितियाँ हम स्वेच्छापूर्वक वरण करते हैं और उसी स्तर के बन कर रहते हैं।

अपनों से अपनी बात


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