सृष्टि में व्याप्त सृजन-सौंदर्य उसके सृजेता की कुशलता की ओर इंगित करता है, इसकी विचित्रताएँ-विलक्षणताएं यह बाती हैं कि सृजेता के उच्चतर आयाम मानवीय बुद्धि की सभी सीमाओं से परे हैं। उसकी यह अलौकिकता मानव में ही नहीं मछलियों में भी झलकती है। एक मछली ऐसी भी है, जिसने दुनिया भर के वैज्ञानिकों को हैरत में डाल रखा है। उसका मस्तिष्क अपेक्षाकृत काफी अधिक सक्रिय है। अति सक्रिय मस्तिष्क वाली यह मछली अफ्रीका के समुद्र में पाई जाती है। इसे हाथी सूंड़ या एलीफैंट नोज नाम से जाना जाता है। इस मछली पर वैज्ञानिकों ने काफी प्रयोग किए हैं। शोधरत वैज्ञानिकों में स्वीडिश वैज्ञानिक गोर नीलसन प्रमुख है। वैज्ञानिकों का काम है कि .......... सेमी की छोटी-सी इस मछली की खोपड़ी में स्थित नन्हा-सा मस्तिष्क अत्यधिक सक्रिय होता है। यहाँ तक कि इसके कारण वह अँधेरे में भी अपना मार्ग ढूँढ़ लेती है और बाधाओं से साफ बच निकलती है।
वैज्ञानिक शोध से पता चला है कि इस मछली के मस्तिष्क में ऑक्सीजन की काफी ज्यादा खपत होती है। पता चला है कि ये मछलियाँ अपनी कुल ऑक्सीजन खपत का ............ प्रतिशत अपने मस्तिष्क में ही खर्च कर लेती हैं, जबकि मानव-मस्तिष्क में कुल खपत की मात्रा ......... प्रतिशत ऑक्सीजन खर्च होती है। इस प्रकार इस एलीफैंट नोज मछली में ऑक्सीजन की खप का प्रतिशत मानव से तीन गुना ज्यादा है। यह भी आश्चर्य की बात है कि ............ सेमी लगभग आकार वाली अन्य मछलियों की तुलना में इसका मस्तिष्क भी लगभग ............ गुना ज्यादा बड़ा है।
सृजेता का कुशल कौशल असीम है। उसने हर प्राणी को अनुपमेय एवं अद्वितीय बनाया है। ‘फ्यूगू’ मछली के बारे में भी कुछ ऐसा ही है। सामान्य क्रम में पोटैशियम सायनाइड को ऐसा विष माना जाता है, जिसे सुई के नोक के बराबर भी यदि जीभ पर रखा जाए, तो व्यक्ति की मृत्यु सुनिश्चित है। फ्यूगू का विष इस प्राणलेवा सायनाइड से भी ................ गुना अधिक तीव्र है। वैज्ञानिक अनुसंधान के मुताबिक इस फ्यूगू का विष विश्व के सारे विषों में सबसे ज्यादा जहरीला हैं। फ्यूगू मछली की करीब .............. प्रजातियाँ पाई जाती है। इनमें से सिर्फ ................... प्रजातियाँ जहरीली हैं, शेष नहीं। फ्यूगू हिंद महासागर एवं प्रशांत महासागर के दक्षिणी भाग में मिलती है। उत्तरी अमेरिका व फ्लोरिडा के समुद्र वयस्क फ्यूगू ढाई-तीन फीट लंबी होती है। इसका वजन ................ किलो होता है। इसकी त्वचा में पानी सोखने और इसे वापस निकालने का विशेष गुण होता है। खतरे का अंदेशा होते ही यह अपनी त्वचा में पानी भर फुटबाल की तरह फूल जाती है और जब खतरा टल जाता है, तब वापस अपने मूल रूप में आ जाती है।
जहाँ तक इसके खास विष की बात है, तो वह एक सामान्य फ्यूगू मछली में लगभग ............. मिलीग्राम होता है। इसका रासायनिक नाम टेट्रडोटाँक्सिन रखा गया है और इसकी संरचना पर खोजबीन जारी है। मानव−शरीर पर होने वाले घातक प्रभावों की प्रतिक्रिया एवं उसके बचाव के लिए प्रतिविष बनाए जाते हैं। मगर इसके बनाने में तमाम जटिलताएँ हैं। हालाँकि टोक्यो विश्वविद्यालय के रसायन विभाग में इस पर अनुसंधान जारी है। पर अभी तक कहीं भी इसका एंटीडोट नहीं बन पाया है। इस विष का सबसे घातक प्रभाव तंत्रिका तंत्र पर पड़ता है और थोड़ी ही देर में शरीर की समस्त क्रियाएँ बंद हो जाती हैं।
मछलियाँ तीरंदाज़ भी होती हैं। यह बात आश्चर्यजनक भले ही हो, किंतु है सत्य। इस विशेषता के कारण इन्हें अँग्रेजी में आर्चर फिश भी कहा जाता है। यह भार से फिलीपींस के तटीय क्षेत्रों और सुदूर आस्ट्रेलिया तक खारे पानी में पाई जाती है। इनमें सबसे बड़ी प्रजाति लगभग दस इंच तक होती है, जबकि इसकी अन्य प्रजातियाँ आठ इंच से बड़ी नहीं होती। अपने छोटे आकार के बावजूद यह मछली पानी की सतह से कई फीट दूर बैठे शिकार पर सटीक निशाना लगाती है। जिससे शिकार नीचे गिर जाता है। छह फीट की दूरी तक इसका निशाना कभी बेकार नहीं जाता। कई बार तो आर्चर फिश को 12 फीट दूर बैठे शिकार को गिराते हुए देखा गया है।
इस मछली का अध्ययन करने वालों ने एक अवसर पर पाया कि पानी की सतह से कुछ इंच ऊपर पौधे की टहनी पर बैठी एक छोटी-सी छिपकली को आर्चर फिश ने पानी की कई बूंदें दनादन दागदन दागकर नीचे गिरा दिया। आर्चर फिश की इस अद्भुत क्षमता के कारण यह सोचना स्वाभाविक है कि इस मछली के मुँह का विकास अन्य मछलियों के मुँह से कुछ अलग तरह से हुआ होगा। बाद में इसके अध्ययन से यह पता चला कि जहाँ ज्यादातर मछलियों में जीभ मुँह के तलवे में जकड़ी होती है, वहीं इसमें यह सामान्य रूप से ढीली होती है, जिससे आगे की तरफ एक खाँचा-सा बन जाता है। यह खाँचा और जीभ साथ-साथ एक नलिका बनाते हैं। जिसका इस्तेमाल फूँकनी की तरह पानी की बूँदों को बाहर फेंकने में या जा सकता है। छोटे-सी आर्चर फिश पानी की बूंदें दागने अभ्यास तब शुरू करती है, जब वह केवल एक इंच ी होती है। चूँकि यह तब केवल दो या तीन इंच तक ही बूंदें फेंक सकती है, इसीलिए इसे अपने बचपन में पानी के कीटों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। बाद में बड़े होने पर अपना शिकार खुद करने लगती है।
मछलियों में विचित्रताएं ही नहीं सौंदर्य भी होता है। स्वर्ण मीन यानि के गोल्डफिश ऐसा ही उदाहरण हैं। गोल्डफिश का सिर्फ रंग ही मनमोहक नहीं होता, बल्कि इसका रूप और आकार भी विचित्र एवं दिलचस्प होता है। इनमें से किसी का सिर शेर जैसा और पूँछ झालरदार और आँखें दूरबीन जैसी, नो किसी का मुँह घड़े जैसा और पूँछ झालरदार। कुल मिलाकर इन छोटी और खूबसूरत मछलियों का आकर्षण इतना ज्यादा है कि हर कोई इन्हें अपने घर के एक्वेरियम में सजाने की चाह रखा हैं। इनमें से कुछ मछलियों को लायन हेड, फेनटेल्स, बबल आइस आदि नामों से जाना जाता है।
जब कभी हमें किसी होने वाली दुर्घटना या घटना आदि का अनायास ही पूर्वाभास हो जाता है, तो प्रायः इसे काल्पनिक रूप में छठी इंद्रिय का कमाल माना जाता है। परंतु अभी तक इस संबंध में कोई ठोस जानकारी सामने नहीं आई हैं मगर मछलियों के मामले में छठी इंद्रिय पूरी तरह से स्पष्ट है और इसके प्रयोग भी हो चुके हैं। मछलियों में छठी इंद्रिय से संबंधित अंग उसके शरीर के दायें एवं बायें ओर स्थित होते हैं। इस इंद्रिय से संबंधित अंगों का कार्य श्रवण एवं स्पर्श इंद्रियों के माध्यम से हो है। स्पष्ट रूप से देखे जा सकने वाले ये अंग मछलियों को पर्यावरण की पूरी जानकारी देते रहते हैं। इन अंगों से प्राप्त संवेदनाओं और सूचनाओं के आधार पर ये मछलियाँ अपने को उसी स्थिति-परिस्थिति के अनुरूप ढाल लेती है। जिससे वे आस-पास के वातावरण में परिवर्तन होने के उपराँत अपने को बचा लेती हैं।
महाकवि रहीम ने सृष्टि-सृजन की इसी अनुपमेय विशेषता को देखकर कहा था, “रहिमन देखि बड़न को लघु न दीजिए डारि,” अर्थात् बड़े को देखकर छोटे को उपेक्षित नहीं कर देना चाहिए। क्योंकि छोटे में भी कुछ ऐसी विशेषताएँ हो सकती हैं, जिसके लिए बड़ा तरसा ही रहे। विधाता ने अपनी सृष्टि में सभी को मौलिक और अलौकिक बनाया है। हर कहीं उसी की चेतना की अभिव्यक्ति है। जीव और प्रकृति की सारी विचित्रताएँ-विलक्षणताएँ एक उसी परमचेतना की ओर संकेत करती हैं।