सेवा-साधना की एक मिसाल

August 2000

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मनुष्य-जन्म की शुरुआत सेवा से होती है और अंत भी उसी में। जीवन का आदि और अंत-यह दो ऐसी अवस्थाएँ है, जब मनुष्य सर्वथा अशक्त-असमर्थ होता है, इसलिए उसे सहारे की आवश्यकता पड़ती है । इन दोनों का मध्यवर्ती अंतराल ही ऐसा है, जिसमें आदमी सबसे समर्थ, सशक्त और योग्य होता है यही वह काल है, जब उसे स्वयं पर किए गए उपकारों के बदले समाज को उपकृत करके ऋण चुकाना पड़ता है यदि वह ऐसा न करे और जन्म से लेकर मृत्युपर्यंत सेवा लेता रहे, तो उसकी वह कृतघ्नता मरणोत्तर जीवन में ऐसा वज्राघात बनकर बरसती है, जिसके लिए उसके पास सिर्फ पछतावा ही शेष रहता है। इसलिए समझदार लोग सेवा की महत्ता को समझते और उसे अपनाते हैं

ऐसे ही लोगों में एक है, डॉ0 शरद कुमार दीक्षित । न्यूयार्क के बुकलिन क्षेत्र के निवासी डॉ0 दीक्षित भारतीय मूल के एक सुयोग्य प्लास्टिक सर्जन है। विगत लगभग दो दशकों से वे सेवा की ऐसी प्रतिमूर्ति बने हुए हैं , जिसका उदाहरण अन्यत्र मिलना मुश्किल हैं । यों समाज में रहने वाले हर एक व्यक्ति द्वारा दूसरे की न्यूनाधिक सहायताएँ होती रहती हैं, भले ही वह मजबूरीवश बन पड़े या किसी अपरिहार्य कारणवश, पर सेवा जिस उच्चस्तरीय भावना का नाम है, वह निःस्वार्थ हुए बिना बन नहीं पड़ती । यह निस्स्वार्थता यदि कहीं ढूँढ़नी हो , तो वह डॉ0 दीक्षित के जीवन में देखी जा सकती है। त्याग और समर्पण का ऐसा अद्भुत समन्वय विरले ही कहीं दिखाई पड़ता है।

अपने विद्यार्थी जीवन में अक्सर वे सोचा करते कि क्या जीवन सिर्फ लेना-ही - लेना है? समाज को निस्पृह होकर देने का दायित्व क्या उसका नहीं ?यदि ऐसा ही है, तो धर्म और अध्यात्म की उपयोगिता कितनी है? इस पर विचार होना चाहिए। धर्म जीवन को अनुशासित करने वाली विधा है, यदि यह सच है, तो उसका व्यावहारिक रूप समाज सेवक किसी भजनानंदी धार्मिक की तुलना में कम धार्मिक या अधार्मिक कैसे हो सकता है?

प्रश्नों के इन झंझावातों से कई बार वे इतने विचलित हो उठते कि यह तक सूझ नहीं पड़ता कि ज्ञान की कौन−सी धारा अपनाई जाए कि उसका स्वार्थ और परमार्थ दोनों सध सकें । भावुकता पर काबू पाकर काफी विचार मंथन के बाद उनने यह निश्चय किया कि चिकित्सा का क्षेत्र ही एक मात्र ऐसा क्षेत्र है, जिससे जीविकोपार्जन और लोक मंगल का द्विविधि कार्य सरलतापूर्वक संपन्न होता रह सकता है। यह निर्णय कर उनने चिकित्सा शास्त्र में प्रवेश ले लिया और अंततः प्लास्टिक सर्जन बनकर निकलें।

(धर्म जीवन को अनुशासित करने वाली विधा है, यदि यह सच है, तो उसका व्यावहारिक रूप समाज-सेवा को मानना ही पड़ेगा । ऐसे में एक समाज सेवक किसी भजनानंदी धार्मिक की तुलना में कम धार्मिक कैसे हो सकता है?)

आरंभ में उनने अपने गृहराज्य महाराष्ट्र को अपनी सेवाएँ दी , पीछे अमेरिका चले गए। वहाँ भी वे चैन से न रह सके। लोगों का निराश स्वर, म्लान मुख ,बेबस आँखें जब उनके मानस पटल पर उभरतीं, तो वे व्याकुल हो उठते, सोचते, कैसे उनके चेहरों को फूल की तरह खिलाऊँ और मुस्कराहट पैदा करूं ? पर जब अपनी विवशता का ध्यान आता, तो संपूर्ण उत्साह तप्त तवे पर पानी उड़ेलने की तरह ठंडा पड़ जाता । धन और साधन के बिना अच्छी से अच्छी योग्यता भी कितनी निकम्मी साबित होती है, यह आज उन्हें ज्ञात हुआ। उन्हें लगा कि दुनिया में संपत्ति के अभाव में शायद लोकसेवा भी असंभव है, इसलिए ऐसे लोगों की पहली आवश्यकता संपदा इकट्ठी करना होनी चाहिएं। इतना निश्चय कर वे अपने डॉक्टरी पेशे में रात-दिन एक करके जुट पड़े । परिश्रम और लगन जब कभी समन्वित होते हैं ,तो कुबेर की तरह धन संचय में देर नहीं लगती। डॉ0 दीक्षित के साथ भी यही हुआ । कुछ ही वर्षों में उन्होंने इतने पैसे जमा कर लिए कि उससे लोककल्याण के कार्य का सरलतापूर्वक श्रीगणेश किया जा सकें।

आगे उन्होंने एक साहसिक निर्णय लिया कि छह महीने अमेरिका रहकर आजीविका निर्वाह के निमित्त श्रम करेंगे और शेष छह महीने भारत जाकर गरीबों का निःशुल्क उपचार। तब से लेकर अब तक उनका यह क्रम अनवरत रूप से लेकर अप्रैल माह तक तह महाराष्ट्र में रहते और हजारों अभावग्रस्त लोगों के चेहरों को खूबसूरती प्रदान करते हैं । जिनके आँख, कान , नाक या ओष्ठ में किसी प्रकार के बाह्य विकार जन्मजात रूप से या दुर्घटनास्वरूप बन गए हों , वे उसे ऑपरेशन द्वारा ठीक कर देते हैं इस प्रकार जो व्यक्ति अपनी निर्धनता के कारण इन्हें ढोने के लिए मजबूर थे, वे अब अपनी विकृति निवारण के उपरांत काफी प्रसन्नता अनुभव करते हैं। इस संबंध में डॉ0 दीक्षित कहते हैं कि ऑपरेशन के बाद लोगों के मुरझाए चेहरे पर चमक देखकर उनको अपार संतोष होता है भगवान् से प्रार्थना करते हुए वे कहते हैं कि ईश्वर उन्हें इस योग्य बनाए रखे कि वह लंबे-से लंबे समय तक यह कार्य करते रह सकें । उनका मत हैं तो कदाचित् उससे बढ़चढ़कर नहीं होगा जैसे कि वे हर मरीज को विकार-मुक्त करने के बाद अनुभव करते हैं।

उपचार के निमित्त वे जिस ऑपरेशन थियेटर का उपयोग करते हैं, वह एकदम कामचलाऊ और साधारण किस्म का है। उसमें दो मेजें, कुछ कुर्सियां और थोड़े-से अत्यंत आवश्यक उपकरण हैं। उनकी सहायता के लिए हर वक्त दो महिला सहयोगी वहाँ मौजूद रहती हैं। वे ऑपरेशन के दौरान उनका हाथ बँटाती हैं।

प्रतिदिन 30 से लेकर 35 ऑपरेशन करने के पश्चात् वे इतने थक जाते हैं कि आराम की आवश्यकता महसूस होती है। इसके बावजूद यदि कोई उनसे अपनी सर्जरी उसी दिन कर देने का आग्रह करता है, तो वे उसे टालते नहीं, पर ऐसा प्रायः कम हो है। इन ऑपरेशनों पर आमतौर से 15 से 20 हजार रुपये के बीच खर्च आता है, लेकिन मरीजों से एक पाई नहीं ली जाती। इलाज तक रहने-खाने का व्यय उनका अपना होता है और इलाज पूरा होते ही उन्हीं छुट्टी दे दी जाती है। इस प्रकार के धर्मार्थ इलाज में प्रतिवर्ष हजारों डालर उनका निज का खर्च हो जा है। इसके बाद भी वे बीस वर्षों से भी अधिक समय से इस सेवा को जारी रखे हुए है। कारण पूछने पर इतना ही कहते हैं कि ध्यान और समाधि का आनंद बड़ा अद्भुत है, ऐसा पढ़ा-सुना है, किंतु अपने कार्य से जितना आत्मिक संतोष मिलता है, वह किसी भी प्रकार उस सुख से कम होगा, ऐसा नहीं लगता। उनका निजी अनुभव है विराट् ब्रह्म की उपासना उस ईश्वरोपासना से अनेकों गुना चमत्कारिक है, जिसे हम व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए मंदिर-मस्जिद में आए दिन करे हैं। धर्मस्थलों में सिजदा करने और सिर नवाने से उनका कोई विरोध नहीं, आस्तिक होने के नाते वे भी ऐसा करते हैं, पर वे कहते हैं कि जिस प्रकार ‘परीक्षा-परीक्षा’ रटने मात्र से कोई विद्यार्थी पास नहीं हो सकता, उसी प्रकार केवल भगवान् का नाम जपकर उसे प्राप्त नहीं या जा सकता। उसके लिए उसका काम करना पड़ता है। यह काम मानवता की सेवा से बढ़कर दूसरा कोई हो नहीं सकता, ऐसा उनका मत है।

इस विधि की विडंबना ही कहनी चाहिए कि जो व्यक्ति अपना वैभव लुटाकर दूसरों को स्वस्थता और खुशियाँ बाँट रहो है, वही आज अनेक रोगों का शिकार है। डॉ0 शरद कुमार दीक्षित कैंसर के मरीज हैं। उन्हें दिल की भी बीमारी है। इतना ही नहीं, कोढ़ में खाज की तरह ते पक्षाघात से भी ग्रस्त हैं वर्षों पूर्व उनकी वाक्शक्ति भी प्रभावित हो चुकी है। इन सब रोगों के बाद भी वे जिस समर्पण भाव से अपनी सेवा साधना में जुटे हैं, वह वास्तव में स्तुत्य है। ऐसे व्यक्ति इहलोक में ही स्वर्ग-मुक्ति के उस आयाम को प्राप्त कर लेते हैं, जिसके लिए शास्त्रों में अन्य लोकों की चर्चा हैं।

सेवा प्रकाराँतर से एक साधना है। जो इसे भली प्रकार संपन्न कर लेता है, समझना चाहिए उसने सब कुछ पा लिया । यों ईश्वरप्राप्ति जीवन का चरम लक्ष्य है, पर जहाँ निर्दोष और निर्विकार सहयोग, सम्मान,यश, कीर्ति आदि हो, वहाँ भी ईश्वरीय अंश प्रकाशित हो रहा होता है, ऐसा आप्तवचन हैं। ऐसे में वह व्यक्ति चमत्कारिक ईश-विभूतियों को भले ही न पा सके , पर आत्मिक ऋद्धि और भौतिक सिद्धियों का स्वामी तो हो ही जाता है। इसीलिए सेवा को सर्वोपरि ईश्वर-उपासना कहा गया है। इसे हर हालत में हर एक को करनी ही चाहिए।


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