बुद्ध को आत्मबोध हुआ। कठोर तपश्चर्या के बाद प्राप्त उपलब्धि से वे निर्वाण-मोक्ष की ओर भी बढ़ सकते थे। पर उनका लक्ष्य था-अनाचार-कुरीति से भर समाज का परिशोधन तथा विवेक रूपी अस्त्र द्वारा जनमानस का परिष्कार। आत्मबोधजन्य ईश्वरीय संदेश को व्यापक बनाने वे निकल पड़े और जन-जन तक पहुँचकर विचार-क्राँति कर सकने में सफल हुए। प्रव्रज्या बौद्ध धर्म का प्रधान अंग मानी जाती थी। भिक्षुगण सतत् चलते रहते थे व बुद्ध के साथ संघ, धर्म शरणम् गच्छामि नारा लगो, भारतवर्ष ही नहीं, सारे विश्व भर में उनका संदेश पहुँचाने का लक्ष्य पूरा कर सके। सिद्धार्थ के अंदर विश्वकल्याण की कामना रूप में जो बीज पला वह गौतम बुद्ध के रूप में विकसित होकर सारी मानवता को धन्य कर गया।
व्रत ही वह शक्ति है, जो व्यक्ति की सोई हुई शक्ति को जाग्रत करती है। असंभव कार्यों को संभव बनाने की निष्ठा बढ़ती है। निष्ठा में वृद्धि के साथ वह त्याग की भूमिका में पदार्पण करता है। त्याग द्वारा शक्तियों का विकास होने से श्रद्धा बढ़ने लगती है ओर श्रद्धा की दृढ़ता के साथ सत्य का मार्ग खुल जाता है इस तरह श्रावणी पर्व में जीवन को लक्ष्य की ओर ले जाने वाली व्रतनिष्ठा से जोड़ा जाता है, जो व्यक्ति के आत्मिक कायाकल्प के रूप में पर्व का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष है।