ध्यान से होगा अब रोगों का उपचार

August 2000

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बीमारियों का प्रमुख कारण प्रायः रोगाणुओं-विषाणुओं के आक्रमण, अपच एवं कुपोषण आदि को माना जाता है। इनसे बचने-बचाने के उपाय-उपचार का तारतम्य भी चिकित्साविज्ञानी एवं पोषण विज्ञानी तद्नुरूप ही बिठाते हैं। देखा गया है कि इस तरह की बीमारियों शिकार अधिकतर पिछड़े लोग ही बनते हैं। जबकि विकसित एवं साधन संपन्न लोग शिक्षा, संपन्नता एवं बुद्धि का दुरुपयोग करने के कारण उपजे मानसिक विक्षोभजन्य तनाव से ग्रसित होते तथा असमय ही अपनी प्राणहानि करते देखे जाते हैं। तथापि संपन्नों के कारण पनपी पतनोन्मुखी आदें न केवल व्यवहार, वरन् चिंतन-मनन एवं गुण, कर्म, स्वभाव पर भी छाई रहती हैं। फलस्वरूप शरीर और मन दोनों की शक्तियों अंधाधुँध अपव्यय होता रहता है और दोनों क्षेत्रों पर छाई रहने वाली उत्तेजना, आवेशग्रस्तता अंततः चित्र-विचित्र रोगों के रूप में फूटती है। महँगे टाँनों, दवाइयों से इन पर नियंत्रण पाना आसान नहीं है। इनसे छुटकारा पाने के लिए हमें मनोकायिक एवं योगपर मनो-आध्यात्मिक उपाय-उपचारों का आश्रय लेना पड़ेगा। समग्र स्वास्थ्य संवर्द्धन की दिशा में तभी आगे बढ़ा और जीवन का सच्चा आनंद उठाया जा सकता है, जब गुण, कर्म, स्वभाव एवं चिंतन, चरित्र, व्यवहार में उत्कृष्टता तथा सदाशयता का समावेश किया जा सके।

‘योर पावर टू हील’ नामक अपनी प्रसिद्ध कृति में हेरोल्ड शेरमेन ने कहा है कि आज के अविवादी भौतिक विकास का ही यह परिणाम है कि मनुष्य अनुदारता और उच्छृंखलता की दिशा में तेजी से बढ़ता-भागता चला जा रहा है। नशेबाजी, विलासिता, आपाधापी, शेखीखोरी जैसी दुष्प्रवृत्तियाँ एक प्रकार से सरल-स्वाभाविक जीवन के साथ विद्रोह हैं। इस कुचक्र में फँसने से शारीरिक और मानसिक संतुलन गड़बड़ाने लगता है। यही कारण है कि अति समृद्धों तथा नव धनाढ्यों के हिस्से में तनाव आया है।

दुर्भाग्यवश उसकी शाखा-प्रशाखाएँ और जटिलताएँ अभावजन्य रोगों कहीं अधिक है। इस प्रकार अपेक्षाकृत तथाकथित समृद्ध लोगों को ही अधिक घाटे में रहना पड़ा है। इन दिनों पचानवे प्रतिशत से अधिक रोगी तनाव की प्रतिक्रिया स्वरूप रोगग्रस्त पाए जाते हैं। लगातार सिरदर्द, चक्कर आना, आँखें सुर्ख रहना, काम में मन न लगना, स्मृति ह्रास, लकवा आदि जैसे रोगों का आक्रमण हो जाना, ये सभी अत्यधिक तनाव के ही दुष्परिणाम हैं। इसी प्रकार हृदय-रोग, रक्तचाप की अधिकता, अल्सर, कोलाइटिस आदि रोग प्रकाराँतर से तनाव के कारण ही पैदा होते हैं। तनाव की अधिकता मनुष्य का प्राणाँत करके छोड़ती है।

इस संदर्भ में अध्ययन एवं अनुसंधानरत मनोवैज्ञानिकों एवं अध्यात्मवेत्ताओं का कहना है कि तनाव की अधिकता व्यक्ति के अपने चिंतन-मनन एवं विचारधारा के अनुरूप होती हैं। निषेधात्मक, निराशावादी, संशयात्मक चिंतन एवं दृष्टिकोण तनाव को बढ़ावा देते हैं। सुप्रसिद्ध स्नायविक तनाव विशेषज्ञ डॉ0 एडमंड जेकबसन के अनुसार ब्लडप्रेशर, हृदय रोग आदि अब मध्यम वर्ग के लोगों में भी पनप रहा है। इसका मूल कारण उन्होंने अज्ञा भय, चिंता जो अंतर्मन में व्याप्त हो जाती है, को बताया है। इसके फलस्वरूप व्यक्ति की स्वाभाविक खुशी व प्रफुल्लता छिन जाती है। इसी तरह जो लोग अधिक आराम का, विलासी जीवन जीना चाहते हैं, परिश्रम से बचना चाहते हैं, आमदनी से अधिक बढ़ चढ़कर खर्च करते हैं, वे अपने चारों ओर मकड़जाल की रह अत्यधिक चिंताओं का घेरा बुन ले हैं। ये सभी तनाव बढ़ाने में सहाय होते हैं। मोटापा, मधुमेय, दमा, आर्थराइटिस आदि तनाव की ही देन हैं। विश्व के प्रायः सभी मूर्द्धन्य चिकित्साविज्ञानियों एवं मनोरोग विशेषज्ञों का यही निष्कर्ष है कि पचहत्तर प्रतिशत रोगों का मूल कारण उद्वेगजन्य मनः स्थिति-तनाव ही है।

(मन की अमोघ शक्ति को यदि सर्वनात्मक एवं विधेयात्मक दिया में लगाया जा सके तथा सृष्टि के कण-कण में समाई चेतन-सा से संबंध जोड़ा जा सके, तो कठिन से कठिन बीमारियों पर भी विजय पाई जा सकती है।)

अब प्रश्न उठता है कि इस महाव्याधि से छुटकारा कैसे पाया जाए ? विशेषज्ञों का कहना है कि जब इस रोग का मूल कारण शरीर नहीं मन है, तो इलाज भी मन का ही करना उचित होगा। प्रख्यात मनोवेत्ता पादरी नार्मन विन्सेंट पील का कहना है कि मेडीडेट एवं मेडीडेट दोनों शब्दों का एक ही उद्गम है, अर्थात् दवा करना एवं प्रक्रियाओं तक ही समिति हैं। मन सूक्ष्म है, जहाँ तक ध्यान के द्वारा ही पहुँच जा सकता है और उस क्षेत्र में जमी पड़ी बीमारियों की जड़ों को खोदकर बाहर निकाला जा सकता है।

इस संदर्भ में वोरेन दंपत्ति के नाम से विख्यात एक मनोचिकित्सक द्वय व उनके दल ने बहुत ही सराहनीय कार्य किया है। इस संबंध में एंब्रोस बोरेन ने हेरोल्ड शेरमेन के नाम से बीस से अधिक पुस्तकें प्रकाशित की है। इनमें से योर पावर टू हील नामक उपर्युक्त पुस्तक में उन्होंने लिख हैं। कि समग्र शारीरिक एवं मानसिक स्वास्थ्य प्राप्त करने के लिए चेतनसत्ता के साथ मिलकर उसका सहयोग लेना ही एकमात्र उपाय है। केवल चिकित्सकीय उपाय-उपचार ही पर्याप्त नहीं है।

श्री एंब्रोस वोरेन पेशे से एक इंजीनियर थे और अमेरिका की प्रसिद्ध फोर्ड मोटर कंपनी में औद्योगिक परामर्शदस्ता के रूप में काम करते थे। संयोगवश सन् 1920 में उन्हें एक असाध्य बीमारी ने घेर लिया और वे मरणासन्न स्थिति में जा पहुँचे। इसी बीच अमेरिका में मनःचिकित्सा एवं दर्शनशास्त्र में अग्रणी माने जाने वाले थोमस जे0 हडसन की एक पुस्तक उनके हाथ लगी । उसके आधार पर उनकी प्रभावोत्पादक मनोकायिक चिकित्सा का उन्होंने अपने ऊपर प्रयोग करने का साहस किया और रोगमुक्त हुए। इस घटना का वर्णन करते हुए उन्होँने लिखा है कि मन की अमोघ शक्ति को यदि सृजनात्मक एवं विधेयात्मक दिशा में लगाया जा सके तथा सृष्टि के कण-कण में समाई चेतनसत्ता से संबंध जोड़ा जा सके, तो कठिन बीमारियों पर भी विजय पाई जा सकती है। स्वयं का सृजनात्मक शुभ चिंतन एवं लोगों की सद्भावनायुक्त सम्मिलित ईश-प्रार्थना की शक्ति चमत्कारी ढंग से अपना प्रभाव दिखाती है।

उक्त घटना ने बॉडी-माइंड स्पिरिट हीलिंग वर्कशॉप, अर्थात् शारीरिक-मानसिक-आध्यात्मिक हीलिगं कार्यशाला को जन्म दिया। एब्रोस बोरेन ने सर्वप्रथम अतींद्रिय अनुसंधान एसोसिएट्स फाउंडेशन की स्थापना की । इसी एसोसिएशन के माध्यम से उनकी भेंट एक समाजसेवी एवं अतींद्रिय क्षमता संपन्न रूसी युवती ओल्गा से हुई और दोनों ने परिणयसूत्र में बँधकर लोकमंगल के लिए कार्य करने का संकल्प लिया। इन्होंने प्रचलित चिकित्सा के साथ-ही-साथ धार्मिक परंपराओं एवं मनोवैज्ञानिक तथ्यों का सहारा लेते हुए मनुष्य के भीतर प्रसुप्त पड़ी हुई शक्तियों को जाग्रत् करने का कार्य हाथ में लिया । सृष्टि के आरंभ से ही मनुष्य ने रोग एवं कष्टों से मुक्ति पाने के लिए किसी न किसी शक्ति का सहारा लिया है, चाहे वह देवी-देवता के रूप में हो, मंत्र-तंत्र हो अथवा अतींद्रिय क्षमता संपन्न मानव हो । यों तो प्रत्येक वस्तु का अच्छा और बुरा उपयोग हुआ करता है । इस तथ्य के अनुसार चिकित्सा के नाम पर कर्मकाँड, मंत्रोच्चार, स्तुति, बलिदान, उपहार आदि रोग-मुक्ति या कष्ट-निवारण में कहाँ तक अपने आप में सक्षम है, यह अलग बात है। किंतु जहाँ तक श्रद्धा या विश्वास के माध्यम से मन को प्रभावित किया गया हो , वहाँ सफलता अवश्य मिलती है। यह निर्विवाद तथ्य है।

वोरेन दंपत्ति ने इसी तथ्य का आश्रय लिया । बिना किसी की आस्था को डगमगाए उसकी कमियों को दूर करते हुए सर्वप्रथम रोगियों को पाँच-दस मिनट से लेकर आधे घंटे तक शिथिलीकरण एवं ध्यान कराना आरंभ किया । संगीतमय वातावरण में शिथिलीकरण करवाया व बताया जाता कि रोग के कारण मन में जो भय एवं चिंता उत्पन्न हो गई है, उसे विधेयात्मक एवं उत्कृष्ट विचारों से आप्लावित करने के लिए ईश्वर से प्रार्थना करें। प्रार्थना का स्वरूप भी निर्धारित कर दिया गया था। रोगी का मनोबल बढ़ाने और निषेधात्मक चिंतन दूर करने के सभी उपाय किए जाते इसका सत्परिणाम देखकर उन्होंने अपनी मातृभूमि के अतिरिक्त कई अन्य देशों में यह कार्यशाला चलाई और लाखों व्यक्तियों का रोगमुक्त किया । अमेरिका में यह संस्था अभी भी कार्यरत है।

भारतीय ऋषि-मनीषियों ने प्राचीनकाल से ही इस संदर्भ में योगोपचार विधा को उपयुक्त पाया और सबके लिए सुगम बनाया। भारतीय ध्यानयोग पद्धति अब चिकित्साविज्ञान में एक विधा के रूप में प्रतिष्ठा पा चुकी है और भविष्य में इसके माध्यम से तनाव सहित अनेक असाध्य रोगों के उपचार और संभावित रोगों की रोकथाम की संभावना भी बनी है। किंतु ध्यान-साधना का यह भौतिक पक्ष है, जो स्वास्थ्य-संवर्द्धन एवं प्राण उन्नयत तक सीमित है। ध्यान की गहराई में प्रवेश करने से न केवल जीवनी शक्ति के अभिवर्द्धन एवं संतुलित मनःस्थिति का लाभ मिलता है, वरन् विश्वव्यापी दिव्यसत्ता के साथ घनिष्ठता बना लेते और उसके साथ संपर्क-सान्निध्य साध सकने वाले आत्मिक चुंबकत्व का भी विकास होता है। आत्म-विकास ही ध्यानयोग का वास्तविक लक्ष्य है।


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