परिष्कृत चेतना पकड़ लेती है संवेदनशील कंपनों को

August 2000

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मानवीय चेतना इतनी संवेदनशील है कि यदि उस और तनिक भी ध्यान दिया जा सके, तो वह प्रिय-अप्रिय हर प्रकार की तरंगों को पकड़ती और बताती है कि उस वस्तु या स्थान का इतिहास कैसा है एवं क्योंकर वह किसी के लिए लाभकारी या हानिकारक है ?

यों तो चेतना प्रत्येक जीवधारी में विद्यमान् है,पर कंपनों को पकड़ने और समझने की क्षमता सिर्फ मनुष्य को ही मिली हुई है। इसे उसका सौभाग्य कहना चाहिए कि प्राणियों में सर्वोच्च स्तर की चेतना उसे प्राप्त है, किंतु दुर्भाग्य यह है कि औरत आदमी उसका लाभ उठाने में विफल रहा है। वह अब तक उसका क्षुद्रतम उपयोगी ही करता रहा है इस दृष्टि से विचार किया जाए, तो वह सामान्य जीवधारी स्तर का ही साबित होगा, लेकिन उसकी बुद्धि-कुशलता उसे शिरोमणि सिद्ध करती है। वास्तविकता भी यही है। वह असाधारण है, उसकी चेतना अद्भुत और क्षमता अपरिमित है। समय-समय पर प्रकाश में अपने वाली घटनाएँ इसकी पुष्टि करती है।

टीं सी लेथव्रिज ने अपनी पुस्तक दि प्लूरलिटी ऑफ वर्ल्ड्स में एक घटना की चर्चा की है। वे लिखते हैं कि एक बार वे अपनी पत्नी मीना के साथ लैडरैम के समुद्री तट पर आयोडीन की प्रचुरता वाली एक विशेष प्रकार की घास इकट्ठी कर रहे थे । कार्य संपन्न करने के उपराँत स्थल भाग में वे कुछ उपयोगी पौधोँ की तलाश में इधर-उधर घूमने लगे। इसी क्रम में दोनों जंगल में एक निर्झर के निकट पहुँच गए। वहाँ एक विशाल शिलाखंड था। चट्टान इस प्रकार ढलुआ थी कि उस पर एक ही ओर से चढ़ा जा सकता था । दूसरी ओर से वह धरातल से लगभग बीस फुट ऊँची थी, इसलिए उस ओर से उस पर चढ़ना- उतरना दोनों ही असंभव था। मीना जब इस प्रस्तर खंड पर पहुँची , तो एक तीव्र आत्मघाती भावना ने उसे झकझोर डाला । उसको बार-बार यह लगने लगा , जैसे चट्टान से नीचे कूद पड़े। आवेग इतना प्रबल था कि कब वह उससे छलाँग लगा दे , कहना मुश्किल था। घबराकर उससे उतर पड़ी और लेथव्रिज से उसकी चर्चा की। दोनों तत्काल वहाँ से चल पड़े और पास के आदिवासी कबीले के निकट पहुँचे। चट्टान के बारे में पूछताछ की, तो ज्ञात हुआ कि एक वर्ष पूर्व उससे कूदकर एक युवक ने आत्महत्या की थी। उसी की प्राणचेतना वहाँ पर घनीभूत होकर प्रायः हर व्यक्ति को आत्मघात के लिए प्रेरित - प्रोत्साहित करती है। दूसरे शब्दों में, इसे यों भी कह सकते हैं कि आगंतुकों की प्राणचेतना वहाँ संव्याप्त तरंगों को पकड़ने में सफल रहीं इसका यह मतलब कदापि नहीं कि प्रत्येक व्यक्ति को वहाँ की अप्रिय तरंगें प्रभावित - उत्तेजित करती हों या हर आदमी वहाँ के कंपन को ग्रहण कर पाने में समर्थ होता है। वास्तव में यह व्यक्ति की योग्यता या कंपन की तीव्रता पर निर्भर करता है। वस्त्र यदि बहुत गंदा हो, तो चाहे उस पर कोई भी रँग चढ़ा दिया जाएं , कोई अंतर नहीं पड़ेगा। उसी प्रकार एकदम हलके रंग की स्पष्टता के लिए उससे भी हलके वर्ण का कपड़ा चाहिए। तात्पर्य यह कि तरंग की तीव्रता-मंदता, यह सापेक्षित स्तितियाँ है और आँतरिक स्वच्छता-अस्वच्छता तर निर्भर हैं। अंतराल की शुद्धता बढ़ने पर ग्रहण-सामर्थ्य बढ़ती है और वह हर प्रकार के कंपन को पकड़ पाने में सफल होता है।

ऐसी ही एक अन्य घटना का वर्णन जीन फोरमैन ने अपने ग्रथ दि मास्क ऑफ टाइम में किया है। वे लिखती हैं कि एक बार जब वह हेम्पटन कोर्ट की दीर्घा से होकर शाही मंच की ओर जा रही थी, तो उनका मन अचानक बिना किसी कारण के भारी हो गया एवं वेदना ओर अवसाद से भर गया। वे इस आकस्मिक मनोवेदना का निमित्त जानने का प्रयास करती है रही, पर कुछ समझ नहीं पाई । बाद में पता चला कि सन् 1541 में इसी स्थान पर हेनरी अष्टम की पत्नी कैथरीन को चरित्रहीनता का दोषी पाकर बंदी बनाया गया था वह सुरक्षा गार्डों से बचकर दीर्घा की सम्राट् से मिलने चिल्लाती हुई भागी, जो उस समय न्यायमंच पर विराजमान् थे, पर वह वहाँ पहुँच नहीं सकी, कारण कि उसका द्वार बंद था, । अगले वर्ष उसे फाँसी दे दी गई।

जीन फोरमैन ने दीर्घा से होकर गुजरने वाले अनेक लोगों से इस बारे पूछताछ की, पर तीन को छोड़कर किसी ने भी कोई विचित्रता का उल्लेख नहीं किया । स्पष्ट है, चेतना की संवेदनशीलता ही कंपनों को पकड़ती और समझती है।

काँलिन विल्सन अपनी कृति दि साइकिक डिटेक्टिव में लिखते हैं। कि एक बार उनकी पत्नी अपने दो छात्रों के साथ वोड़मिन जेल देखने गई । घूमते-घूमते वे एक परित्यक्त कमरे के पास पहुँचे। वहाँ आते ही विल्सन की पत्नी को ऐसा लगने लगा, जैसे वह खूब रोए। तुरंत ही वह वहाँ से आगे बढ़ गई। पीछे पता चला कि एक दुर्दांत कैदी को उसी कमरे में रखकर इतनी भीषण यातना दी गई थी कि उसने रोते तड़पते प्राण त्याग दिए। कैदी की वही पीड़ा उनके संवेदनशील प्राण में संचरित हो गई, फलतः उन्हें भी वही अनुभूति होने लगी ।

आग बढ़ने पर उन्हें एक टीनशेड मिला । मानसिक अवस्था में एक बार फिर , परिवर्तन आया। इस बार मन गहरी उदासी से भर गया । उसने उस पर काबू पाने का असफल प्रयास किया, लेकिन बेकार रहा। संपूर्ण कारागृह देखने के पश्चात् वे जेलर के पास पहुँचीं और उक्त टीनशेड के संबंध में जानकारी चाही। जेलर ने बताया कि वहाँ वैरनान भूहर नामक एक हत्यारा रहता था जिसने एक साथ चाल लोगों को मार डाला था । मरने वालों में उसकी माँ , भाई तथा फार्म हाउस के दो नौकर थे।

भूहर एडमाँटन, एल्व्रेटा का रहने वाला था। वह फार्म हाउस में काम करने वाले एक मजदूर की पुत्री से विवाह करना चाहता था। माँ इसका विरोध कर रही थी। किसी मजदूर-कन्या से उसका पुत्र शादी करे, इसे वह बिल्कुल बर्दाश्त नहीं कर पा रही थी। इस बात को लेकर एक दिन दानों में तू तू मैं हो गई । भूहर को क्रोध आ गया । उसने माँ को गोली मार दी । भाई गोली की आवाज सुनकर वहाँ आया, तो उसे भी नहीं छोड़ा । दो मजदूर यह सब दृश्य देख रहे थे, उन्हें भी मौत की नींद सुला दिया। बाद में उसे फाँसी की सजा हो गई ।

जेलर ने बताया कि भूहर जितने दिन इस टीनशेड में रहा, बराबर पश्चाताप करता रहा। वह अपराध-बोध से इस प्रकार ग्रसित था कि हमेशा एकाँत में गुमसुम बना रहता । जब मन करता, भोजन कर लेता, अन्यथा यों ही पड़ा रहता। उसे बार-बार यही कचोट रहा था कि उसने माँ- भाई की हत्या क्यों की ? इसकी विषण्णता इतना गहरा थी कि जब से वह यहाँ आया था, स्वयं कभी किसी से कोई बात नहीं की थी। जितना और जो कुछ उससे पूछा जाता, बहुत कुरेदने पर उसका संक्षिप्त सा उतर देता । उसकी यही उदासी वहाँ के वातावरण में सवार थी और जिस तिस को इसी मानसिक भूमिका में घसीट लाती । यह घटना महात्मा आनंद स्वामी के पुत्र श्री रणतीर के साथ जेल में हुई अनुभूति से बहुत मेल खाती है। उनका भोजन एक वार्डन बनाता था, जिसने खून किया था व अब व्यवहार ठीक होने के कारण वार्डन बना दिया गया था। जब भी वे उसके बने हाथ का भोजन लेते, उन्हें खून करने के ही स्वप्न आते थे।

विज्ञान भी अब इस प्रकार की घटनाओं की सत्यता स्वीकारने लगा है। उसका कहना है कि यह संपूर्ण विश्व तरंगमय है। यहाँ का हर जड़-चेतना तरंगयुक्त है । इसकी विशद व्याख्या विज्ञान का ‘क्वाँटम सिद्धांत’ करता है। उसके अनुसार पदार्थ की मूल सता कंपायमान है, अस्तु जब पदार्थ का लय होता है, तो वह अपनी मूल प्रकृति तरंग रूप में आ जाता है। उसका सर्वथा लोप नहीं होता, सिर्फ रूपांतरण होता है। अतएव संसार में जितनी घटनाएँ घटती है, घटने के बाद वह बिल्कुल समाप्त नहीं हो जाती, वरन् तरंग रूप में अपना अस्तित्व बनाए रहती है। इन्हीं सूक्ष्म तरंगों को मानती चेतना का सर्वोच्च संस्थान- मस्तिष्क पकड़ता एवं तत्संबंधी जानकारी प्राप्त करता है, तो विज्ञानवेत्ता कहते हैं कि जब मस्तिष्कीय तरंगों की आवृत्ति घटनाक्रमों की तरंगीय आवृत्ति के आस पास होती है, तो मनुष्य को स्थान या वस्तु संबंधी घटनाओं का कुछ-कुछ आभास होने लगता है, किन्तु जब दोनों की आवृत्तियां एक दूसरे के समतुल्य हो जाती हैं, तब घटनाएँ साकार हो उठती है, मानो सब कुछ सामने घट रहा हो।

योगी-यती साधनाओं के माध्यम से स्वयं को एक ऐसी भूमिका में प्रतिष्ठित कर लेते हैं कि इच्छानुसार अपने प्राण- कंपन परिवर्तित कर सकें । ऐसी स्थिति में वस्तु, व्यक्ति या स्थान संबंधी भूतकालीन घटनाएँ उनके समक्ष मूर्तिमान् हो उठती है। इसे चेतना की परिष्कृति कह लें , उसकी संवेदनशीलता या प्राण-कंपन की उच्चता , बात एक ही हैं।


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