ऋषित्व के अभिवर्द्धन का पर्व : श्रावणी

August 2000

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सावन की रिमझिम फुहारों के बीच जो उल्लास - वर्षा प्रारंभ होती है, उसका घनीभूत स्वरूप श्रावणी पर्व है। सावन के अंतिम दिन अर्थात् सावन की पूर्णिमा को मनाया जाने वाला यह त्योहार यों तो सामान्यतया रक्षाबंधन के रूप में प्रचलित है, किंतु इसमें आत्मिक जागरण के अलौकिक उपचार के साथ, संस्कृति - रक्षा के महत्वपूर्ण संदेश भी सँजोए हुए है । यह पर्व अपनी अनोखी उमंगे - अनूठी तरंगों के बीच जनसामान्य को पर्यावरण- संरक्षण, हरीतिमा- संवर्द्धन का बोध भी करता है।

इस पर्व की अतीत कथाएँ जो भाव बरसाती है, उनसे यही स्पष्ट होता है कि पुरातनकाल में ब्रह्मबल संपन्न ब्राह्मण राष्ट्र के नेता होते थे। जन-जीवन को सन्मार्ग पर चलाना उनका कर्तव्य था। आसुरी विचारों एवं प्रवृत्तियों से रक्षा करने की जिम्मेदारी उन्हीं की थी । ‘वयम् राष्ट्रेंजागृयाम् पुरोहिताः ‘ का व्रत धारण किए हुए ये पुरोहित आचार्यगण अपने यजमानों को रक्षा−सूत्र बाँधते हुए अपने संकल्प को स्मरण करते थे कि मनुष्यता को ऊँचा उठाने के लिए उन्हें क्या करना है, यदि एक वर्ष में उनके कार्यों में कोई शिथिलता आ गई हो ,तो उसे दूर करके पुनः जाग्रत होना है। इन ब्रह्मवेत्ता ब्राह्मणों का कार्य तप के उच्चतम मानदंडों को अपने जीवन में धारण करते हुए सदा-सर्वदा जनकल्याण में निरत रहना था ।

आज के भोगवादी दौर में अतीत का वह पुरातन गौरव खो गया हैं। यह पवित्र पर्व भी मात्र धनोपार्जन का साधन बनकर रह गया हैं पुरोहितगण प्रायः रक्षा−सूत्र के बदले अपने यजमान से धन कमाने की फिक्र में लग गए है । राष्ट्र के पुरोहितों द्वारा कर्तव्य-विस्मरण की यह स्थिति ही देश के सांस्कृतिक पवन एवं पराभव का अहम् कारण है। श्रावणी पर्व संस्कृति रक्षा के पर्व के रूप में राष्ट्र-पुरोहितों को अपने दायित्व के पुनः स्मरण का बोध कराता है।

यज्ञोपवीत-परिवर्तन एवं प्रायश्चित के रूप में हेमाद्रि संकल्प आदि कृत्य इस पर्व से अविच्छिन्न रूप से जुड़े हुए है। इस रूप में यह आत्मशोधन या ऋषित्व-ब्राह्मणत्व के निखार का पुण्य पर्व है। श्रावणी पर्व के दिन पुराना यज्ञोपवीत बदला जाता है । शिखा -सिंचन एवं यज्ञोपवीत-नवीनीकरण को एक तरह से इनका वार्षिक संस्कार भी कहा जा सकता है। जिस प्रकार जन्मदिन एवं विवाहदिन मनाए जाते हैं, उसी प्रकार श्रावणी पर्व को आत्मिक कायाकल्प का संकल्प दिन भी कहा सकता है। शिखा के रूप में विवेकशीलता को जीवन में सर्वोपरि प्रतिष्ठा देना और यज्ञोपवीत के रूप में कर्तव्यनिष्ठा को बनाए रखना अर्थात् ज्ञान ओर कर्म के समन्वय के माध्यम से जीवन के प्रगतिपथ पर बढ़ते रहने की रीति−नीति अपनाए रखना इनका मर्म संदेश है। जिसे इस अवसर पर गहराई से हृदयंगम किया जाना चाहिए।

शिखा- सिंचन और उपवीत नवीनीकरण के बाद जो कृत्य किए जाते हैं, उनमें आचार्य हेमाद्रिकृत् प्रायश्चित संकल्प प्रमुख है। सावधानी के साथ रहने वाले व्यक्तियों में भी प्रमादवश या अज्ञानवश कुछ - न - कुछ भूलें ही जाती है। यदि इनकी नियमित शुद्धि एवं सुधार न किया जाए, तो इनका बोझ बढ़ता जाता है ओर जीवन अंधेरों से घिरता चला जाता है । बढ़ी-चढ़ी यह पाप राशि ही नानाप्रकार की आधि-व्याधियों , संकट एवं शोक- संताप के रूप में जीवन को नरक स्वरूप बना देती है। इस विकार राशि के शोधन परिमार्जन के निमित्त श्रावणी पर्व का प्रायश्चित विधान एक अचूक उपचार के रूप में आता है। इस प्रायश्चित विधान एक अचूक उपचार के रूप में आता है।इस प्रायश्चित का सार, प्रमाद एवं अज्ञानवश हुई भूलों का सच्चे हृदय से पश्चाताप ओर उन्हें दुबारा न दुहराने का दृढ़ संकल्प है। इसी के साथ वर्षभर में हुई क्षतिपूर्ति के निमित्त अभीष्ट सत्य वृति को धारण करने का व्रत लेना है।

वस्तुतः यह व्रतनिष्ठा ही हम सबको जीवनलक्ष्य की ओर आगे बढ़ाती है। शास्त्रवचन है-

व्रतेन दीक्षामाप्नोति दीक्षयाप्नेति दक्षिणाम् । दक्षिणा श्रद्धामाप्नोति श्रद्धया सत्यमाप्यते ॥

अर्थात् व्रत से दीक्षा मिलती है, दीक्षा के समय दक्षिणा दी जाती है। दक्षिणा से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य की प्राप्ति होती है । इस वक्तव्य से यह सत्य सुनिश्चित हो जाता है । कि व्रत ही वह शक्ति है, जो व्यक्ति की सोई हुई शक्ति को जाग्रत करती है। असंभव कार्यों को संभव बनाने की निष्ठा बढ़ती है। निष्ठा में बुद्धि के साथ वह त्याग की भूमिका में पदार्पण करता है। त्याग द्वारा शक्तियों का विकास होने से श्रद्धा बढ़ने लगती है और श्रद्धा की दृढ़ता के साथ सत्य का मार्ग खुल जाता है। इस तरह श्रावणी पर्व में जीवन को लक्ष्य की ओर ले जाने वाली व्रतनिष्ठा से जोड़ा जाता है, जो व्यक्ति के आत्मिक कायाकल्प के रूप में पर्व का सबसे महत्वपूर्ण पक्ष हैं।

श्रावणी पर्व का दिन भाई-बहिनों के पवित्र स्नेह-सूत्र के प्रतीक रक्षाबंधन से भी जुड़ा हुआ है। इसके प्रवचन में आने के विषय में एक किंवदंती बहुश्रुत है कि जब भगवान् श्रीकृष्ण के हाथ में चोट लगी थी तब द्रौपदी ने अपने वस्त्र को फाड़कर उनके हाथ में बाँधा था और ऐसे समय में श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को विपत्ति के समय रक्षा का वचन दिया था। कौरव-सभा में चीरहरण के समय द्रौपदी की लाज बचाकर श्रीकृष्ण ने अपना यही वचन निभाया था।

हमारे प्राचीन ग्रंथों एवं इतिहास में ऐसी अनेक घटनाएँ हैं, जो रक्षा−सूत्र के महत्व को प्रदर्शित करती है। यह धागा बंधन नहीं, बहन-भाई के पवित्र प्रेम और रिश्तों का त्योहार है। इसका महत्व मात्र हिंदुओं ने ही नहीं दूसरे मजहब के लोगों ने भी आँका है। इस संदर्भ में मुगलकाल का यह उद्धरण उल्लेखनीय है। जब रानी कर्णवती ने बहादुरशाह के आक्रमण से अपनी रक्षा के लिए हुमायू को राखी भेजी थी और हुमायू ने इसे सहर्ष स्वीकार कर अपना फर्ज निभाया था। बाद के अन्य बादशाहों ने भी रक्षाबंधन के महत्व को स्वीकार किया, इसका उल्लेख इतिहास के पृष्ठों में अंकित है।

आज मूल्यों के घोर अवमूल्यन के दौर में जब नारी-अस्मिता खतरे में है, इस पवित्र रक्षाबंधन की आवश्यकता अपने मूल रूप में और बढ़ जाती है। वस्तुतः नारी जाती के पवित्र भाव एवं सम्मान की दृष्टि में ही व्यक्ति, समाज एवं संस्कृति का उत्कर्ष निहित है।

इस पर्व के साथ हरीतिमा-संवर्द्धन का पुण्य-प्रयोजन भी जुड़ा हुआ है। जिसके महत्व को आज के पर्यावरण-संकट के युग में भलीभांति समझा जा सकता है। आज जब जंगलों का नाश तेजी से हो रहा है, पृथ्वी के सुरक्षाकवच का ह्रास गंभीर पर्यावरण संकट के रूप में दृश्यमान है। वायु, जल एवं मृदा का प्रदूषण, बाढ़, तेजाबी वर्षा, सूखा, भूस्खलन, बादलों का फटना, बढ़ता तापमान आदि इसी के अलग-अलग रूप हैं।

मनुष्य-जीवन की खुशहाली एवं स्थायी प्रगति के लिए प्रकृति-संतुलन एवं इसके लिए हरीतिमा-संवर्द्धन के विषय में हमारे ऋषि, पूर्वज भलीभाँति परिचित थे। अतः वृक्षारोपण पर वे बहुत जोर देते थे। वृक्षों की महत्ता का उल्लेख करते हुए अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में कहा गया है, वृक्ष-वनस्पतियाँ भी मनुष्य की ही तरह पृथ्वी के पुत्र हैं। वस्तुतः स्वास्थ्यवर्द्धक एवं वायुमंडल शोधक गुणों के कारण हरीतिमा की भूमिका अद्वितीय है। मनुष्य के मानसिक विकास एवं शाँति के साथ भी इसका घनिष्ठ संबंध है। शायद यही कारण है कि वैदिक संस्कृति अरण्यों में विकसित हुई थी और इसका नाम आरण्यक संस्कृति पड़ा था। श्रावणी पर्व वृक्षारोपण के इसी शुभ प्रयोजन की याद दिलाकर इसको क्रियान्वित करने की प्रेरणा देता है।

इस तरह श्रावणी के पुण्य पर्व का पावन दिवस प्रायश्चित पर्व के रूप में आत्मिक विकास-ऋषित्व के अभिवर्द्धन, रक्षाबंधन के रूप में नारी-अस्मिता एवं संस्कृति-पूजा और हरीतिमा-संवर्द्धन के रूप में पर्यावरण-रक्षा का संदेश देते हुए जीवन के आँतरिक एवं बाह्य दोनों मोरचों पर सक्रिय होने का संदेश देता है। जिसे आत्मसात् कर हम सर्वांगीण प्रगति का पथ प्रशस्त कर सकते हैं।


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