अखण्ड ज्योति एवं परमपूज्य गुरुदेव (2)

August 2000

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‘अखण्ड ज्योति’ का प्रकाशन ठीक वसंतपर्व के दिन से ही हुआ था। यों दिखने में वह भी एक साहित्यिक प्रयास जैसा लगता है, पर जिन्होंने उसे निकट से देखा है, वे जानते हैं कि यह प्रकाशपुँज है, जिसने एक दीपक से असंख्य दीपक जलने वाले काव्यालंकार को प्रत्यक्ष कर दिखाया है। आत्मा को, अखण्ड ज्योति का दिव्यदर्शन, प्रत्याहार, ध्यान-धारणा, समाधि के क्षेत्र के आगे बढ़ाकर व्यवहार के कार्यक्षेत्र में उतारा जा सकता है। इस अनोखेपन का अभिनव प्रयोग करने का दुस्साहस किया गया और वह सफल होकर रहा, यही है एक शब्द में कहा जा सकने योग्य ‘अखण्ड ज्योति’ का इतिहास। युगाँतरीय चेतना की गंगोत्री उसे माना जा सकता है, उसका सेवा-साधना क्षेत्र युगनिर्माण योजना के रूप में आज अति विस्तृत क्षेत्र में लहलहाता हुआ देखा जा सकता है।

अखण्ड ज्योति दिसंबर 75, पृष्ठ 62

‘अखण्ड ज्योति’ लगती भर पत्रिका है, वस्तुतः यह एक मिशन है, जो किसी वर्ग, क्षेत्र, धर्म की समिति परिधि में नहीं बँधता और न छुटपुट सामयिक हलचलों तक सीमित होता है। फुँसियों पर मरहम-पट्टी करने की औपचारिकता स्वीकार करते हुए भी उसका लक्ष्य रक्तशोधन प्रक्रिया है। इसके लिए टिटहरी द्वारा समुद्र पाटे जाने वाले दुस्साहस की पुनरावृत्ति करने वाली विनम्र हलचल को अखण्ड ज्योति कहा जा सकता है। आज उसका बाजारू मूल्य थोड़ा ही आँका जा सकता है, पर वस्तुतः है वह अत्यंत गरिमायुक्त एवं बहुमूल्य।

अखण्ड ज्योति दिसंबर 75, पृष्ठ 62

अपना आध्यात्मिक परिवार ही अखण्ड ज्योति के सदस्यों के रूप में बिखरा पड़ा है। कुछ समय पूर्व तक हम लोग परस्पर बिखरे हुए एक-दूसरे से अपरिचित थे। जिस सूत्र से यह मणिमाला के दाने परस्पर इतनी सघनतापूर्वक गुँथ गए उसे ‘अखण्ड ज्योति’ पत्रिका कहा जा सकता है। अखण्ड ज्योति क्या है वसंत पर्व की एक स्फुरणा। प्रकाराँतर में हम लोगों के निताँत दूरवर्ती और अपरिचित होते हुए भी एक-दूसरे के अधिकतम निकट शब्दों में सघन आत्मीय बना देने का श्रेय इस स्फुरणा को ही है, जो वसंतपर्व के उपहार के स्वरूप उमगी और जिसके बंधनों में बँधकर हम एक कारवाँ के रूप में किसी महान् लक्ष्य की ओर कंधे-से-कंधा मिलाकर चल पड़े।

अखण्ड ज्योति दिसंबर 77, पृष्ठ 54

अखण्ड ज्योति मनोरंजन के लिए चित्र-विचित्र लेखों का गुलदस्ता बनाकर पाठकों का मन बहलाने वाली पत्रिका नहीं है। इसके पीछे एक उच्चस्तरीय लक्ष्य है। वह है-लोकचिंतन में उत्कृष्टता का समावेश एवं चिंतन-चरित्र और व्यवहार के बहुमुखी पक्षों में आदर्शवादिता का प्रवेश। यह कार्य अत्यंत कठिन है। अंतराल का कायाकल्प करने एवं सर्जरी के समान है। इसमें भावनाओं, मान्यताओं, संवेदनाओं, आकाँक्षाओं के अनेकानेक पक्षों-स्तरों में जनचेतना का संचार एवं इसी हेतु इसमें कितने ही तर्कों, तथ्यों, प्रमाणों और उदाहरणों का समावेश करना होता है। इस संग्रह के लिए मनन और अध्ययन-अवगाहन के मानसरोवर में उतरे हंसों की तरह मोती बीनने पड़ते हैं। हंस तो अपना-अपना ही पेट भरते हैं, पर यहाँ उससे बढ़-चढ़कर काम करना होता है। यह मणिमुक्तक वितरण करने जैसी प्रक्रिया है, जिससे अनेकों को सुसज्जित, समुन्नत एवं सुसंस्कृत बनाया जा सके। यही वह प्रयत्न है, जिसमें राजहंस की तरह अखण्ड ज्योति के प्रयास पिछले पचास वर्षों से अनवरत तत्परता के साथ चले आ रहे हैं। इसका परिणाम भी आशातीत हुआ है।

अखण्ड ज्योति नवंबर 87, पृष्ठ 63

अखण्ड ज्योति के पृष्ठों पर काले अक्षर ही नहीं छपते वरन् उसके साथ प्रचंड प्राण प्रवाह भी बहता है। ऐसा प्रवाह जो सोतों को जगाता है, जागों को खड़ा करता है, खड़ों को चलाता है और चलतों को उछाल देता है। उसकी दिव्य क्षमता में कहीं कोई संदेह की गुँजाइश है नहीं।

अखण्ड ज्योति दिसंबर 87, पृष्ठ 62

अखण्ड ज्योति के पृष्ठों में लिपटी प्राणवान् ऊर्जा और उसके द्वारा बन पड़ने वाली क्रिया-प्रक्रिया हस्तामलकवत् प्रत्यक्ष है। इसकी उपयोगिता एवं क्षमा को हर पारखी ने भूरि-भूरि सराहा है। उसे पारस की उपमा देने वाले कहते हैं, जो भी इसे छूते हैं, वे अपने कल्मष-कषाय धो डालते हैं और ऐसा व्यक्तित्व विकसित करते हैं, जिसे कायाकल्प की उपमा दी जा सके। यदि ऐसा न होता तो सत्प्रवृत्ति-संवर्द्धन और दुष्प्रवृत्ति-उन्मूलन के दुहरे मोरचे पर जो लाखों शूरवीर लड़ रहे हैं, उनका कहीं अता-पा भी न होता। उज्ज्वल भविष्य का जो विश्वास जन-जन के मन में जाग रहा है, उसका बीजाँकुर भी कहीं दृष्टिगोचर न होता। इस दिव्य ऊर्जा की गरिमा और क्षमता को हर कसौटी पर कसा और खरा पाया जा सकता है। उसमें जन-जन को देवमानव में विकसित करने की भागीदारी ललक को युगचेतना के रूप में प्रज्वलित देखा जा सकता है।

अखण्ड ज्योति दिसंबर 87, पृष्ठ 63

“अखण्ड ज्योति का प्रधान लक्ष्य है, ऋषि परंपराओं का पुनर्जीवन। इसी को आधुनिक परिवेश में अध्यात्म और विज्ञान का समन्वय भी कह सकते हैं।”

अखण्ड ज्योति जनवरी 88, पृष्ठ 55


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