आत्मिक प्रगति के लिए उपयुक्त आहार

August 2000

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उच्चस्तरीय साधनाओं में आहार पर बारीकी से ध्यान देना होता है। आत्मशक्ति के प्रबल जागरण, इच्छाशक्ति के प्रयोगों अथवा अलौकिक सत्ताओं से संबंध स्थापित करने के लिए भोजन के एक एक ग्रास का निर्धारण किया जाता है । इच्छाशक्ति या अशरीरी सत्ताओं को लौकिक स्वार्थों की पूर्ति के लिए लगाना हो , तो ग्रास के आकार की चिंता भी करनी पड़ती है। तंत्रशास्त्रों में ग्रास के आकार की चिंता भी करनी पड़ती है । तंत्रशास्त्रों में ग्रास के भिन्न परिणाम बताएं हैं। इनमें बेर के आकार का, पक्षियों के अंडे के आकार का या चरु ओर यज्ञ आहुति के बराबर ग्रास लेने के निर्देश भी निर्धारण किए गए हैं। उन बारीकियों का ध्यान नहीं रखने पर विपरीत परिणामों के खतरे भी हैं। लेकिन सात्विक और सौम्य साधनाओं में इस तरह की बारीकियों पर ध्यान देना जरूरी नहीं है, उन साधनाओं में आहार के संबंध में जागरुकता बरतने, सावधानी रखने और आत्मिक प्रगति में सहायक सिद्ध होने वाला आहार लेने पर ही जोर दिया गया है।

किस व्यक्ति को कितना भोजन करना चाहिए, इस बारे में कड़े नियम नहीं बनाए जा सकते। सौम्य साधनाओं में इतना ही ध्यान रखना पर्याप्त है कि भूख से काफी कम भोजन किया जाए। इतना नहीं खा लिया जाए कि उसके बाद शरीर भारी होने लगे। आलस्य आ जाए या स्थिरता से बैठा न जाए। ध्यान की विधि बताने के बाद भगवान् श्रीकृष्ण तुरंत आहार के संबंध में सावधानी बरतने के लिए कहते हैं। भगवद्गीता का अध्ययन करने वालों ने इन श्लोकों को कई बार दोहराया होगा, जिनमें कहा गया है कि वस्तुतः योग उसके लिए नहीं है, जो बहुत अधिक खाता है और न उसके लिए जो बिलकुल नहीं खाता। हे अर्जुन ! यह उसके लिए भी नहीं है, जो बहुत अधिक सोता है या बहुत अधिक जागता रहता है, जो व्यक्ति परिमित मात्रा में आहार-विहार करने वाला है, जिसने चेष्टाओं को नियम में रखा हुआ है, जिसकी निद्रा और जागरण नियमित हैं, उसका योग सिद्ध हो जाता अर्थात् दुखों का नाश होने लगता है।

सौम्य साधनाओं में आहार के संतुलन का तात्पर्य यही है कि वह शरीर-पोषण के लिए ही लिया जाए। स्वाद, लिप्सा, दिखावा या कोई और प्रयोजन उसके साध न जोड़े जाएँ। इन प्रयोजनों में किसी का आतिथ्य स्वीकार करने के लिए पार्टियों में जाना, दावतें उड़ाना और आमोद-प्रमोद के लिए होटलों में खाना भी शामिल हैं। घर आए आगंतुक का स्वागत-सत्कार करने के लिए समय के अनुसार चाय-पानी करना या भोजन परोसना अलग बात है। कहीं जाने पर स्वयं भी इस तरह चाय-नाश्ता और भोजन आदि किया जा सका हैं। यह अलग बात है। योग−साधकों के लिए मनाही इस बात की है कि मित्र-परिचितों या ग्राहकों को भोजन पर बुलाने के लिए ही अतिथि बनाया जाए। उस तरह का आहार भी योग में बाधक है, क्योंकि तब आप के सामने साधना के अनुकूल भोजन चुनने का विकल्प नहीं रह जाता। स्वादिष्ट, मधुर चिकना और तला-गला जो भी भोजन तैयार किया जाता है वही ग्रहण करना होता है। दावतों में इसी तरह गरिष्ठ भोजन बनाया भी जाता है।

साधना की पहली शर्त है, आहार का अनुशासन। अनुशासन में सर्वप्रथम यह आता है कि भोजन जहाँ-तहाँ नहीं किया जाए और जब भी इच्छा, सुविधा और अवसर मिल न किया जाए। क्या खाया जाता है यह जितना महत्वपूर्ण है उतना ही महत्वपूर्ण यह भी है कि कब खाया जाए और किन परिस्थितियों में खाया जाए। शुरुआत में साधकों को माँस-मदिरा और नशीली चीजों के सेवन की मनाही की जाती है। भगवान् बुद्ध ने अपने अनुयायियों को जिन दस व्रतों का पालन करने के लिए कहा था उनमें एक आहार के चुनाव से संबंधित भी था। उस नियम से मद्य-माँस का स्पष्ट निषेध किया गया गया है। सात्विक आहार की पहली सीढ़ी चढ़ते ही समय, स्थान और पात्र के चुनाव पर जोर दिया जाता है। आहार संबंधी बाकी सावधानियों का क्रम समय, स्थान और पात्र के बाद आता है।

योग ग्रंथों में भोजन की आवर्तिता निश्चित करने के लिए संक्षिप्त सूत्र का उपदेश दिया गया है। उस सूत्र के अनुसार दो बार के भोजन में, वह पूर्ण हो या स्वल्प, दो प्रहर का अंतर होना चाहिए। एक प्रहर तीन घंटे का होता है। दो बार के भोजन में इस तरह छह घंटे का अंतर रहना चाहिए। अधिक-से-अधिक तीन बार खाने का नियम इस सूत्र के आधार पर ही निश्चित किया जा सकता है।

दूसरी महत्वपूर्ण शर्त स्थान के संबंध में है। आधुनिक जीवन की शैली में स्थितियाँ और आवश्यकताएं बदल गई हैं। फिर भी यह नियम तो निभाया ही जाना चाहिए कि घर में बैठकर दफ्तर या काम करने की जगह पर भोजन करना पड़े तो वहाँ भी निश्चित भाव बनाए रखें। जब भोजन कर रहे हों, तो आसपास ऐसा माहौल बिलकुल न हो, जिसमें ध्यान बँटे। उपनिषदों ने आहार को भी यज्ञ कहा हैं। मुख यज्ञ कुँड है, उसमें अन्न की आहुति दी जा रही है, जठराग्नि उस आहुति को ग्रहण करती और तृप्त होकर शरीर को पुष्टि का आशीर्वाद दे रही है।

नैष्ठिक साधकों के लिए घर अथवा अत्यंत आत्मीयजनों के अलावा कहीं भी भोजन करने की मनाही है। कुछ साधनाओं में माँ और पत्नी के अलावा किसी के हाथ का बना खाना पूरी तरह वर्जित है। साधना के एक स्तर पर पहुँचने के बाद साधक से स्वपोशी बनने की अपेक्षा भी की जाती है कि वह अपने हाथ से बना हुआ भोजन ही करे। लेकिन सौम्य और सहज साधनाओं में अपने आत्मीयजनों के हाथ का बना भोजन ही करने का नियम है। यह नियम अपने सत्परिणामों के साथ दिनचर्या में अनुशासन को भी साधता है। अनुशासन का अपना लाभ है। असल बात भोजन को विजातीय संस्कारों से बचाना है। सामान्य स्थिति में किया गया किसी भी तरह का भोजन मात्र उदरपूर्ति करा है। उसमें किस तरह के संस्कार संक्रमित हुए हैं, इसका कोई महत्व नहीं होता। लेकिन चित्त जब निर्मल होने लगता है, तो इन बातों से बहुत फर्क पड़ता है। गंदे मैले पानी में कुछ और गंदगी पड़ जाए, तो क्या बिगड़ा है। स्वच्छ जल में गंदगी के कुछ अंश भी दिखाई देते हैं और वे जल को विकृत कर देते हैं।

भोजन निश्चित समय पर किया जाए, निश्चित स्थान पर व्यवस्थित ढंग से किया जाए और वह परिचित-परखे हाथों से ही तैयार किया हुआ हो। पके हुए भोजन के संबंध में यह सावधानी विशेष रूप से बरती जाती है, अन्यथा साधकों को फल, कंद-मूल और दूध आदि से ही गुजारा चलाने के लिए कहा जाता है प्रकृति द्वारा उत्पन्न किया गया भोजन दूसरे हाथों से तैयार आहार की तुलना में लाख गुना बेहतर है। संस्कार की दृष्टि से वह ज्यादा शुद्ध है।

आधारभूत बातों का ध्यान रखने के बाद भोजन के चुनाव की बारी आती है। वह हिंसा से अर्जित किया हुआ तो कतई नहीं होना चाहिए। तंत्रमार्ग के उपास माँस, मदिरा और अनाज में भी तामसी प्रकृति के फल या अन्न ग्रहण कर लेते हैं। दक्षिणमार्गी साधकों के लिए इस तरह का भोजन सख्त मना है। अनाज में भी कुटे-पीसे धान्य की बजाय अक्षत भोजन ज्यादा सात्विक है। अनाज पीसकर रोटी बनाने की तुलना में खिचड़ी, अंकुरित अनाज, दालें आदि ज्यादा गुणकारी है। लेकिन सीधे इन बारीकियों में नहीं जाना चाहिए। आहार-संयम साधते समय उसके सात्विक होने पर ही ध्यान देना पर्याप्त है।

साधक के लिए उपयुक्त आहार की मीमाँसा करे हुए गीताकार ने निशिद्ध भोजन के संबंध में स्पष्ट निर्देश दिया हैं। भगवान् श्रीकृष्ण के इस उपदेश को सिद्ध और साधन समान रूप से उद्धत करते हैं कि जो भोजन जीवन, प्राणशक्ति, बल, स्वास्थ्य, आनंद और उल्लास को बढ़ता है और जो मधुर, चिकनाई से युक्त, पोषक और रुचिकर है वह सात्विक हैं। स्वाद में तीखा, खट्टा नमकीन, बहुत गरम, चटपटा, तला हुआ और गले या पेट में जलन उत्पन्न करने के साथ दुःख, रोग, शोक लाने वाला भोजन राजसी प्रकृति का है। तामसी भोजन वह है, जो बेस्वाद हो, सड़ गया हो, बासी हो, जूठा और गंदा हो तथा बिगड़ गया हो। (गीता 177-9) साधक को राजसी और तामसी भोजन से बचाना चाहिए।

शुद्ध सात्विक आहार की आवश्यकता इसलिए है कि ध्यान, भजन, कीर्तन और स्मरण आदि उपायों में साधक को देर तक एक ही स्थिति में बैठे रहना पड़ता है। स्थिर और सुख आसन से बैठने पर शरीर का तापमान गिरता है। स्वाभाविक ही इससे पाचन-संस्थान प्रभावित होता है। साधक यदि कठिनाई से पचने वाला भोजन लेता है, तो उससे भूख मरने, रक्तचाप और गठिया जैसी बीमारियाँ हो सकती है। गरिष्ठ भोजन श्वास रोग को भी जन्म देता है। वे सभी बीमारियाँ हो सकती है। गरिष्ठ भोजन श्वास रोग को भी जन्म देता है। वे सभी बीमारियाँ ध्यान, भजन और चित की एकाग्रता में विक्षेप उत्पन्न करती है।

शरीरशास्त्र की दृष्टि से हलका-फुलका और सुपाच्य भोजन क्यों जरूरी है? योगविद्या के व्याख्याकार पंडित श्रीपद दामोदर सातवलेकर लिखते हैं, भोजन को पचाने के लिए पाँच प्रकार के पाचक रसों का परिपाक और निश्चित तापमान शरीर को योगसाधना के उपयुक्त बनाता है। दोनों ही स्थितियाँ आहार-विवेक से बनती हैं । जब ध्यान को यदि अपनी दिनचर्या का अंग बनाना हो तो इस विवेक को अपनाना ही पड़ेगा ।

आहार-विवेक को व्यवहार में उतारने का खुलासा करते हुए श्री सातवलेकर ने लिखा है, सर्वप्रथम सब्जियों को अच्छी तरह उबालकर काम में लाना चाहिए । कच्ची सब्जियाँ ठीक से हजम नहीं होतीं। हजम हो भी जाती है, तो समय लेती है। इससे शरीर में आलस्य आता है। सब्जियों में आवश्यक मसाले उचित मात्रा में मिलाए जाने चाहिए, ताकि वे उनके वात, पित्त और कफकारी गुणों को संतुलित कर सकें। इस तरह शरीर में शक्ति का हास नहीं होगा, पपीता, अनानास ,सेब ,संतरा , अमरूद आदि में पर्याप्त पाचक रस होते हैं। सब्जियों में धनिया, कालीमिर्च , हल्दी , जीरा, सौंफ सरसों या मूँगफली का तेल भी पाचनक्रिया को सक्रिय-सुचारु रखने में सहायक होते हैं । कुछ जड़ी बूटियाँ भी भोजन को सुपाच्य बनाती है।

साधक को अपनी स्थिति , आवश्यकता और प्रकृति के अनुसार आहार का चुनाव करना चाहिए । इस संबंध में थोड़ी-सी सजगता बरती जाए, तो पता चल जाता है कि अपने लिए किस तरह का भोजन चाहिए । सजगता भोजन से पूर्व ही होनी चाहिएं। उसकी विधि यह है कि भोजन शुरू करने से दस मिनट पहले शाँत होकर बैठा जाए। हो सके तो आसान लगाकर, आंखें बंद कर ध्यानमुद्रा में बैठें । पाँच बार गहरी साँस छोड़ने के बाद कुछ देर फिर ठहरे । यह एक प्राणायाम हुआ। इस प्राणायाम हुआ। इस प्रकार पाँच बार गहरी साँस ले और छोड़े । प्राणायाम के समय अपने इष्ट के स्मरण पूर्वक यह संकल्प करें कि अपने लिए उपयुक्त भोजन का चुनाव करना है। अभी जो भोजन सामने आ रहा है, उसके अधिष्ठाता देव यह बताने का अनुग्रह करें कि वे मुझे पोषण देंगे या नहीं ।

भोजन को संस्कारित करने का एक उपाय उसे भगवान् को समर्पित करना भी है। भगवान् को समर्पित करने के बाद आहार प्रसाद रूप हो जाता है। उसकी प्रकृति, स्वभाव, संस्कार जो भी हो सभी में प्रसाद-भाव का समावेश हो जाता है। प्रसाद का अर्थ है, अनुग्रह के रूप में प्राप्त हुआ। इष्ट-आराध्य से जो प्रसाद रूप में आता है, वह कल्याणकारी ही होता है । सभी साधना संप्रदायों में भोजन को समर्पित करने का विधान है। ताँत्रिक साधनाओं में तो इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है। वहाँ देवी, शिव अथवा भैरव को भोजन केवल समर्पित ही नहीं किया जाता, थाली में रखे व्यंजनों को नए सिरे से सजाया जाता है। उन व्यंजनों से त्रिकोण, चतुर्भुज ,व्यास ,षट्कोण और स्वस्तिक जैसी आकृतियाँ बनाई जाती है। कुछ ताँत्रिक साधक भोजन को छुरी या अँगुली से लकीर खींचकर भी संस्कारित करते हैं।इन उपायों के जरिये समझा जाता है कि अब भोजन विजातीय संस्कारों से मुक्त हो गया । वह ग्रहण किया जा सकता है। ताँत्रिक साधनाओं में आहार के माध्यम से अभियार कर्म किए जाने की आशंका प्रबल रहती है । योग्य गुरु इस तरह के उपायों द्वारा अनर्थकारी प्रभावों के निवारण का उपाय सुझाते हैं । दक्षिणमार्गी साधनाओं में यह काम स्मरण और निवेदन से ही संपन्न कर लिया जाता है।

साधना के क्षेत्र में गति होने ओर उच्च स्थिति की ओर अग्रसर होते जाने के साथ विवेक का उदय भी होता चलता है। सजगता सिद्ध हो जाने के बाद ज्यादा सावधानी रखने की आवश्यकता नहीं रह जाती। आहार सामने आने के बाद आँतरिक विवेक स्वयं ही निर्धारण कर लेता है। यह स्थिति प्राप्त करने के लिए एक न्यूनतम अनुशासन को तो अभ्यास में लाना ही पड़ता है। वह अभ्यास सिद्ध होने के बाद आहार शुद्ध होने लगता है और छाँदोग्य के ऋषि के अनुसार आहार-शुद्धि के बाद सत्व शुद्ध होने लगता है। आहार शुद्धौं सत्वशुद्धि । सत्व शुद्ध होने लगता है, तो चेतना की उस निश्छल, निर्मल और प्रकाशपूर्ण अवस्था में परमात्मसत्ता का प्रतिबिंब भी उतर आता है । उसके आलोक में श्रेयमार्ग पर सहज गति होने लगती है।


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