बौद्धिक कुशाग्रता अर्जित की जा सकती है।

August 2000

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बुद्धि ईश्वरीय विभूति है। यह हर एक मनुष्य को मिली हुई है। यहाँ सर्वथा बुद्धिहीन आदमी शायद कोई भी नहीं । जिसे हम मूर्ख या बुद्धिहीन कहते हैं, उसमें बुद्धि का बिलकुल अभाव नहीं होता । एक अध्यापक की दृष्टि में किसान मूर्ख है, क्योंकि वह साहित्य के विषय में कुछ नहीं जानता, किंतु परीक्षा करने पर मालूम होगा कि किसान को खेती के संबंध में पर्याप्त होशियारी, सूझ और योग्यता है। इसी प्रकार एक वकील की दृष्टि में अध्यापक मूर्ख समझे क्योंकि वह यह भी नहीं जानता कि जुकाम हो जाने पर उसकी क्या चिकित्सा करनी चाहिए। इन सब बातों पर विचार करते हुए ऐसा मनुष्य मिलना कठिन है, जो पूर्णतः निर्बुद्धि कहा जा सके।

यहाँ जानने योग्य बात यह है कि प्रत्येक के अपने अपने निजी विषय अलग होते हैं। एक वकील है, तो दूसरा किसान। एक पढ़ा-लिखा है, जबकि दूसरा अशिक्षित । दोनों को ही अपने अपने विषयों की योग्यता होगी। न्यूनाधिकता तो इस सृष्टि का नियम है। किसी की किसी से समानता तो हो नहीं सकतीं जिस प्रकार सब मनुष्यों की आकृति भिन्न-भिन्न है, उसी प्रकार योग्यता भी पृथक-पृथक हैं। जो जितना प्राप्त कर सकता है, उतना पदार्थ उसके पास है। प्रयत्न करने पर उसे बढ़ा लेगा या प्रमाद में गँवा देगा । बुद्धिहीन शब्द का जब प्रयोग किया जाता है, तो कहने वाले का तात्पर्य उसकी बुद्धि शक्ति से नहीं होता , क्योंकि पागलों को छोड़कर असल में कोई भी बुद्धिहीन नहीं है। जब किसी व्यक्ति को सामाजिक नियमों का ज्ञान नहीं होता , दूसरों से किस प्रकार व्यवहार करना चाहिए, यह नहीं जानता , तो आम प्रचलन में उसे जंगली अथवा ‘मूर्ख कह दिया जाता है, किंतु वास्तविक मूर्ख यथार्थ में वह है, जा अपनी योग्यता को नहीं समझता ओर बिना सोचे समझे कार्य करके असफलता प्राप्त करता है। कार्य कोई भी असंभव नहीं है, लेकिन अपनी योग्यता ,वर्तमान साधन और परिस्थिति आदि का ध्यान रखे बिना जो आरंभ होता है, वह असफल की और ले जाता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जो सामाजिक नियमों का पालन करना जानता है, वह बुद्धिमान् कहा जाएगा । चतुर वह है, जो अपने व्यवसाय में बाहरी परिस्थितियों का ठीक प्रकार समन्वय करना जानता है। किसी विषय विशेष का ज्ञान प्राप्त करना तीव्र इच्छा और उचित शिक्षा क्रम पर निर्भर है, जो मनुष्य अपूर्ण या रोगी नहीं है,वह उस स्थिति को थोड़े से ही प्रयत्न से प्राप्त कर सकता है, जिसमें उसको बुद्धिमान् कहा जा सके।

यों तो बुद्धि ईश्वर ने हर एक को दी है। इतने पर भी प्रयास, अभ्यास और लगन द्वारा उसे प्रखर बनाए रखने की निरंतर आवश्यकता पड़ती है। जो इस दिशा में कृपणता बरतते, उनकी बुद्धि कुँद पड़ जाती और जंग लगे लोहे की तरह निकम्मी साबित होती हैं इसलिए मनःशास्त्रियों ने कुछ ऐसे उपाय-उपचार सुझाए है ,जिनके संपादन से बुद्धि तत्व की तीक्ष्णता को प्रभावित-उत्तेजित किया जा सकना संभव है। इनमें से प्रथम है, कल्पनाशीलता। जिस मस्तिष्क में इनका अभाव है एवं जो अपनी दीन-दयनीय स्थिति से समझौता करके उससे ही संतुष्ट हो जाता तथा आगे की बात सोचने की जरूरत नहीं समझता, उसे एक प्रकार से पशु ही समझना चाहिए । पशुओं में इस क्षमता का अभाव होता है, अतएव वे बुद्धि कौशल में आदमी के समकक्ष नहीं होते । काल्पनिक चित्र बनाना ओर योजनाओं की मानसिक रूपरेखा तैयार करना ऐसे कार्य है, जो मस्तिष्क पर दबाव डालते और बुद्धि को उद्बुद्ध ओर विकसित होने के लिए विवश करता है। यहाँ कल्पनाशीलता का तात्पर्य शेखचिल्लियों जैसी कल्पना- जल्पना से नहीं हैं। इससे तो आदमी बहकता और अनावश्यक शक्ति-क्षरण होता है । यहाँ इसका संबंध अपने कार्यक्षेत्र के क्रियाकलापों एवं भविष्य की योजनाओं के उन मानसचित्रों से है, जिन्हें क्रियान्वित करने से पूर्व मानसपटल पर उन्हें साकार करना पड़ता और तर्क एवं तथ्यपूर्ण ढंग से बार बार यह विचारना पड़ता है कि इसमें सफलता असफलता की कितनी संभावना सन्निहित है। किसी को यदि कोई व्यापार करना हो, तो उसकी कल्पनाशक्ति ऐसे मानस-चित्र बनाएगी कि यह व्यापार करने से अमुक को इतना लाभ हुआ, इस वस्तु के ग्राहक अमुक महीनों में अमुक प्रकार की वस्तुओं की बिक्री बढ़ जाती है और अमुक प्रकार की घट जाती है अतएव समयानुसार आवश्यक वस्तुएं ही खरीदना चाहिए, इस प्रकार की सारी व्यवस्था के कल्पनाचित्र आरंभ में वह बनाएगा ओर यदि निर्णयशक्ति ठीक हुई ,अनुभव के आधार पर इस कल्पना में ठीक संशोधन कर सका , तो एक उत्तम योजना बन जाएगी और उसे कार्यरूप में लाकर लाभ उठाया जा सकेगा , किंतु जिसके मन में इस प्रकार की उड़ानें नहीं उड़ती वह मजदूरी करने या ढर्रे के काम पर चलने रहने के अतिरिक्त और कुछ न कर सकेगा । इसीलिए बुद्धि को कल्पना का एक संस्कारित स्वरूप कहा गया हैं।

दूसरा तत्व है, एकाग्रता। एकाग्रता के बिना ज्ञान, संपादन नहीं हो सकता और बिना ज्ञान के विद्वान् या बुद्धिमान् बनना संभव नहीं। अस्तु एकाग्रता को बुद्धि का एक अनिवार्य अवयव कहना उचित है, कारण कि उत्तम-से उत्तम मस्तिष्क वाले यदि चंचल चित हों , तो वे उतने और उस स्तर के काम नहीं कर सकेंगे, जितने कि साधारण मस्तिष्क के , किन्तु स्थिर चित्त वाले कर सकते है। कोई मनुष्य कितना ही चतुर क्यों न हो, यदि उसके मन को उचटने की आदत है और इच्छित विषय में एकाग्र नहीं होता, तो उसकी चतुरता किसी काम न आएगी और उसके निर्णय अपूर्ण एवं असंतोषजनक होंगे।

चित की एकाग्रता का संबंध रुचि से है। रूखे और अरुचिकर विषयों में मन नहीं लगता और वहाँ से बार-बार उचटता है, इसलिए जिस विषय पर मन लगता है , उसे रुचिकर बनाना चाहिए। विद्यार्थियों की ज्योमेट्री और गणित के विषय रूखे जान पड़ते हैं, इसलिए वे इससे बचते हैं, किन्तु जिन विषयों में सरलता होती है, उन्हें खूब दिलचस्पी के साथ पढ़ते हैं। यहाँ यह न सोचना चाहिए कि अमुक विषय सरस है और अमुक नीरस। संसार में कुछ भी नीरस नहीं हैं केवल मन को उनके अनुकूल बनाने की योग्यता में अंतर हैं। एक राज कर्मचारी के लिए खाट बुनने का काम कुछ भी दिलचस्पी का नहीं है, किंतु जिन्हें इसमें रुचि होती है, वे चारपाई बनने में बड़ी खूबसूरत फूल-पत्तियाँ निकालकर अपनी कला का प्रदर्शन करते हैं । संभव है कि धोबी को अध्यापक का काम नीरस मालुम पड़े , पर उसके लिए वही आसान कार्य बहुत मनोरंजक हैं। तपस्वी लोग भूखे-प्यासे निर्जन स्थानों पर रहते हैं, शीत, धूप के कष्ट सहते हैं, यह सब उनकी रुचि के अनुकूल होता है, इसलिए उस दशा में भी उन्हें प्रसन्नता ही रहती हैं । दूसरे मनुष्य को यदि उसमें रुचि नहीं है, तो वही उसके मन उचटने का कारण है।

एकाग्रता से कार्यशक्ति को बड़ी उत्तेजना मिलती हैं कमजोर मस्तिष्क को भी एकाग्रता की प्रेरणा अद्भुत प्रतिभा संपन्न बना देती है। इसे यों समझें। एक नदी दो सौ गज चौड़ी और पाँच गज गहरी है। यदि उसकी चौड़ाई दस गज कर दी जाए , तो निश्चय ही गहराई पहले की अपेक्षा बहुत अधिक हो जाएगा। एकाग्रता की शक्ति ऐसी ही होती है। चिंतन के विस्तार को समेटकर उसे किसी एक विषय पर केंद्रीभूत कर लेने पर उस विषय के एक से एक रहस्य उजागर होने लगते हैं और चिंतन को उसमें वरिष्ठता और विशिष्टता प्राप्त हो जाती है । ऐसा एकाग्रता के अभाव में शक्य नहीं है, अस्तु बुद्धिमान् बनने के लिए एकाग्रता संपादन अनिवार्य है ।

जिज्ञासा -जानने, समझने और सीखने की इच्छा यदि मनुष्य में न होती, तो शायद वह आज की उन्नत स्थिति में न होकर मूढ़ ही बना रहता । किसी चीज के प्रति इच्छा का होना या न होकर मूढ़ ही बना रहता । किसी चीज के प्रति इच्छा का होना या न होना अत्यंत महत्वपूर्ण है। वह किसी की प्रगति को विकसित या बाधित कर सकती है। वह किसी की प्रगति को विकसित या बाधित कर सकती है। इसकी उपादेयता को स्वयं प्रजापति ब्रह्मा ने भी एकोऽहम् बहुस्याम’कहकर प्रकाराँतर से स्वीकार ही किया है। आज उस महान् इच्छा का ही परिणाम है कि यह बहुरंगी सृष्टि बन पड़ी और अनेकानेक प्रकार की सत्ताएँ अस्तित्व में आई । ऐसा न हुआ होता , तो अब की यह सुँदर पृथ्वी वीरान और बंजर पड़ी रहती। न यहाँ वृक्ष वनस्पतियाँ होती, न पहाड़-पर्वत, सर्वत्र शून्य ही पसरा रहता । न यहाँ वृक्ष-वनस्पतियाँ होती, न पहाड़-पर्वत , सर्वत्र शून्य ही पसरा रहता। अतएव इच्छा की महत्ता का बखान करने के लिए उपर्युक्त आदि वाक्य ही पर्याप्त है। ज्यादा कुछ कहने सुनने की आवश्यकता नहीं । फिर भी इसकी विशेषताओं पर चिंतन -मनन करने पर ज्ञात होता है कि जिस अंतराल में यह विकसित होती है, उसका मस्तिष्क एक प्रकार का चुँबकीय गुण प्राप्त कर लेता है, जिससे उसका इच्छित विषय अपने आप खिंचता रहता है। कहते हैं कि वैध को रोगी हर जगह मिल जाते हैं । एक दूसरी कहावत है कि बेगारी को स्वर्ग में भी बेगार मिलेगा। इन उक्तियों में सत्य का अंश यह है कि उसका मानसिक चुँबकत्व अपने अनुकूल स्थितियाँ आकर्षित कर लेता है । निखिल विश्व- ब्रह्माँड में अनंत ज्ञान भरा हुआ हैं । उसमें से हर व्यक्ति उतना ही प्राप्त कर सकेगा, । जिसे कुछ सीखने की इच्छा नहीं होती, वह कभी सीख भी न सकेगा । नहीं सीखना, नहीं होती, वह कभी सीख भी न सकेगा। नहीं सीखना , नहीं जानना और ज्ञानार्जन करने का कोई उपाय न करना, इसे बुद्धिहीनता के अतिरिक्त और क्या कहेंगे।

संगति-इसमें इतनी क्षमता है कि वह व्यक्ति में अपने समान विशिष्टता पैदा कर देती हैं । यह विशिष्टता संगति के अनुसार अच्छी या बुरी दोनों प्रकार की हो सकती है, जो वास्तव में उसकी बुद्धि कुशलता को ही बरसाती है, कारण कि बुद्धि की सहायता के बिना किसी क्षेत्र में वरिष्ठ या विशिष्ट बनने की कल्पना नहीं की जा सकती । जेबकतरों के साथ रहकर व्यक्ति इतना निष्णात जेबकट बन जाता है। कि उसे सामने वाले के हाव-भाव को देखकर यह अनुमान लगाने देर नहीं लगती कि उसके पास मोटी रकम है। इसके बाद वह अपने अभ्यास और कौशल का इस्तेमाल कर इतनी सफाई से उसकी जेब खाली कर जाता है कि व्यक्ति को उसका आभास तक नहीं मिलता । झाडू लगाने का काम करने वाला बालक एडीसन एक वैज्ञानिक के सान्निध्य में रहकर महान् वैज्ञानिक एडीसन वन गया। दूसरी ओर भेड़ियों के झुँड में पलने वाला रामू रामू भेड़िया बन गया। उसमें मानवीय व्यवहार वाला एक भी गुण विकसित नहीं हो सका । इसमें विपरीत वह भेड़ियों जैसा गुर्राना, खाना और रहना सीख गया। यहाँ तक कि दो पैरों से चलने की मनुष्य की नैसर्गिक चाल भी भूल गया और चौपायों की तरह भागने लगा। इससे ऐसा प्रतीत होता है कि बुद्धि तो हर एक के पास है,पर बिना उसे प्रशिक्षित और पैना किए वह निकम्मी पड़ी रहती है। संगति उसके इस निकम्मेपन को दूर करती और उसमें प्रखरता पैदा करती है।

जड़ मूर्ख यहाँ कोई भी नहीं । यदि ऐसा कोई दीखता है, तो उसका एक ही कारण है कि बुद्धि को पर्याप्त प्रशिक्षण नहीं मिल सका। जब जिस डाल पर बैठे, उसी को काटने वाला कालिदास जैसा वज्र मूर्ख भी विद्वान् कवि बन सकता है तो कोई कारण नहीं कि दूसरे वैसी स्थिति प्राप्त न कर सके। मनोयोग, रुचि वातावरण, एकाग्रता कल्पनाशीलता , सान्निध्य आदि कुछ ऐसे तत्व हैं, जिनकी सहायता से आदमी बौद्धिक कुशाग्रता अर्जित कर वह उपाधि प्राप्त कर सकता है, जिसे आमतौर पर विद्वान् या बुद्धिमान् कहते हैं।

“शाब्द-शाब्द में अंतर, कोई हीरा-कोई पत्थर” वाली कहावत चिरकाल से चली आ रही है। तात्पर्य यह कि शब्दब्रह्म की महत्ता से लोग अनादिकाल से ही परिचित हैं । भौतिक जगत् की अनेकानेक शक्तियों में ध्वनि की गणना प्रमुख रूप से की जाती है। चेतन जगत् में ब्राह्मी चेतना के मूल में भी एक ही शक्ति सक्रिय है, जो भिन्न-भिन्न रूपों में चेतना घटकों में गतिशील देखो जाती है। यह मूल शक्ति है - शब्दब्रह्म की। प्रत्यक्षतः इसे वार्त्तालाप के रूप में देखा जा सकता है। शब्द एक से होते हुए भी उनकी प्रतिक्रिया इस आधार पर भिन्न हो सकती है कि उन्हें किस स्तर के व्यक्ति ने किस भाव से प्रकट किया।

घटना उन दिनों की है, जब एक नवयुवक स्वामी दयानंद जी के पास पहुँचा। उस समय स्वामी जी नाम स्मरण संदर्भ में उपस्थित जनसमुदाय के समक्ष भक्तियोग का उपदेश दे रहे थे। तार्किक, शंकालु एवं अहंकार से परिपूरित उस नवयुवक को यह सब कुछ अच्छा नहीं लगा। प्रवचन के बीच में ही प्रतिवाद करते हुए वह बोल उठा, “स्वामी जी! भक्ति और भगवान् क्या होते हैं नाम स्मरण से होने वाला फायदा क्या है यह शब्दों का ही जाल-जंजाल मात्र है। इससे किसी को कुछ मिलने वाला नहीं है

स्वामी दयानंद चाहते तो अपना उपदेश जारी भी रख सकते थे, किंतु उस जिज्ञासु की शंका का समाधान तब कैसे होता अतः वे बड़े जोश-खरोश के साथ बोले, “पागल कहीं का, जाने क्या बक रहा है जानता भी नहीं और मानता भी नहीं। अहंकार इतना बढ़ा-चढ़ा है कि न जाने कोई प्रकाँड पंडित हो।”

स्वामी जी के इन अपशब्दों को सुनकर नवयुवा तिलमिला उठा। उसे अपना अपमान सहन न हुआ तो कहने लगा,”आप एक संन्यासी की भाँति लगते हैं, फिर भी आपको बोलने-चालने का सही ढंग नहीं आया है। “

स्वामी जी सहज स्वभाव में बड़े शाँत में बोले, “अरे भाई! आपको क्या हो गया मैंने तो आपसे कुछ भी नहीं कहा है दो-चार शब्द ही तो निकले है। इससे क्या आपको कोई विशेष चोट पहुँची है। यह कोरे शब्द ही तो हैं, पत्थर तो नहीं, जिनसे चोट लगती और हड्डी टूट जाती है। आप स्वयं भी तो कह रहे थे कि भक्ति और भगवान् शब्दाडंबर के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। जब शब्दों से कुछ बनता-बिगड़ता ही नहीं तो फिर आए इतना आगबबूला क्यों होते जा रहे हैं। तनिक गहराई से सोच-विचार कीजिए तो पता चलेगा कि बुरे शब्दों की चोट ने जिस प्रकार से आपको मर्माहत कर घायल किया है, ठीक उसी प्रकार भगवान् के पवित्र नाम स्मरण से व्यक्ति के सद्गुण विकसित होते हैं और भक्तिरस से सराबोर होने पर दुख-दर्द के घाव शीघ्र ही भर जाते हैं। संतप्त मन शीतल और शाँत बनता है। शब्दों के प्रयोग से ही व्यक्ति में आक्रोश उभरता है और वह अशाँत दिखने लगता है। “

“शब्दों का स्थूल उपयोग भाषा में है। ज्ञान और अनुभव के आदान-प्रदान में, वार्त्तालाप में सत्यता, नम्रता और शिष्टता का अपना प्रभाव है और कटु या स्वार्थपूर्ण वार्ता का अपना। परिशोधित-परिष्कृत होने पर ही शब्द अमृत बन सकते हैं और विकृ होने पर विष का भी काम कर डालते हैं। “ स्वामी दयानंद जी के इस उपदेश का उस नवयुवक पर इतना गहरा प्रभाव पड़ा कि श्रद्धासिक्त होकर वह उनके पैरों में गिर पड़ा और बोला, “गुरुदेव! आपके कथन से मेरी शंका पूरी तरह मिट गई और वस्तुस्थिति समझ में आ गई कि मंत्रजप, स्तोत्रपाठ, नाम स्मरण आदि भाषा का विषय नहीं, वरन् व्यक्ति के अंतराल की भाव-संवेदनाओं को जगाने वाली ऐसी अलौकिक शक्ति-सामर्थ्य है, जिसके फलस्वरूप अहंकार एवं अन्य विकारों को विसर्जित होने में जरा भी देर नहीं लगती।”

परिशोधित वाणी ही वाक्शक्ति का अनूठा प्रमाण है। जो इस तथ्य को जानते और हृदयंगम करते तथा तद्नुरूप प्रयास-अभ्यास करते हैं, वही हर क्षेत्र में सहयोग-सहकार अर्जित कर पाते हैं। बाह्य परिमार्जन और आँतरिक परिष्कार के उपराँत ही जिह्वा से निकले शब्दों में वह सामर्थ्य पैदा होती है, जो महामानवों में दिखाई पड़ती है।


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