कबहुँक हौं यहि रहनि रहौंगो। श्रीरघुनाथ-कृपाल-कृपातें संत-सुभाव गहौंगो॥
जथालालभसंतोष सदा, काहू सों कछु न चहौंगो। पर-हित-निरत निरंतर, मन, क्रम बचन नेम निबहौंगो॥
परुष वचन अति दुसह श्रवन सुनि तेहि पावक न दहौंगो। बिगत मान, सम सीतल मन, पर-गुन नहिं दोष कहौंगो॥
परिहरि देह-जनित चिंता, दुख-सुख समबुद्धि सहौंगो। तुलसीदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरि-भगति लहौंगो॥
समाज-व्यवस्था का जो आदर्श स्वरूप गोस्वामी जी के मन में था, वह रामराज्य वर्णन में चित्रित है। रामचरितमानस के उत्तरकाँड में उनके चित्रण का सार यह है, “ सब लोग अपने-अपने वर्ण और आश्रम के अनुकूल धर्म में तत्पर रहते हुए सदा वेदमार्ग पर चलते हैं और सुख पाते हैं। उन्हें न किसी का गम है ओर न ही शोक। सब मनुष्य परस्पर प्रीति करते हैं और वेदों में बताई हुई नीति (मर्यादा) में तत्पर रहकर अपने-अपने धर्म का पालन करते है। धर्म अपने चारों चरणों में सत्य, शौच, दया और दान से जगत् में परिपूर्ण हो रहा है। पापकर्मों में किसी की भी प्रवृत्ति नहीं हैं। न कोई दरिद्र है, न दुःख है और न ही दीन है। दंभरहित, धर्मपरायण और पुण्यात्माजनों में सभी चतुर और गुणवान् हैं। काल, कर्म, स्वभाव और गुणों से उत्पन्न हुए दुःख किसी को भी नहीं होते।
गोस्वामी तुलसीदास का संदेश विशिष्ट लोगों और उच्चकोटि के साधकों, सहयोगियों या विद्वानों के लिए शायद उतना उपयोगी न हो। शास्त्र, परंपरा और लोक मर्यादा का अतिक्रमण कर जाने वालों को भी वह सतही या रूढ़िवादी लग सकता है। अतिक्रमण करने वालों में सिद्धयोगी और दंभ से चूर हुए जा रहे दोनों तरह के लोग लिए जाने चाहिए। लेकिन उनका संदेश सर्वसाधारण के लिए उपादेय और सुख-शाँति के मार्ग पर ले जाने वाला है।