वनवजन्य थकान को दूर करती है योगनिद्रा

August 2000

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विभिन्न प्रकार के शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक तनावों को दूर कर संपूर्ण शिथिलता और विश्राम की स्थिति उत्पन्न करने में योग की जो प्रक्रिया सबसे प्रभावशाली है, उसे ‘ योगनिद्रा’ कहते हैं। इससे थोड़े ही समय में परिपूर्ण स्फूर्ति और ताजगी प्राप्त की जा सकती हैं। इसका नियमित अभ्यास शरीर एवं मन के मध्य संतुलन स्थापित कर स्वस्थता का विकास करता है। यह मानसिक रोगों और बुरी आदतों से छुटकारा दिलाकर व्यक्ति को आत्मोन्नति की ओर अग्रसर करता और अंततः उस भूमिका में प्रतिष्ठित करता है, जिसे ‘ध्यान’कहा गया है।

आज के आपाधापी वाले युग में मनुष्य की समस्याएँ और चिंताएँ इस कदर बढ़ी हैं कि वह न तो दिन में ठीक से विश्राम कर पाता, न रात में भली प्रकार सो पाता है। फलतः जो निद्रा समग्र स्वस्थता के लिए आवश्यक मानी गई थी, वह अर्द्धचेतन स्तर की स्वप्निल नींद बनकर रह जाती है। शरीर निश्चेष्ट पड़ा रहता है और मन तमाम तरह की उलझनों में फँसा होता है, जिससे नींद उतनी गहरी नहीं आ पाती, जितनी आनी चाहिए। परिणाम यह होता है कि प्रातः जब व्यक्ति सोकर उठता है, तो ताजगी का अभाव महसूस करता है। शरीर में सुस्ती, मन में थकान और भावनाओं में उद्वेग कारण वह अस्त−व्यस्त दिखलाई पड़ता है, जिससे कार्य की मात्रा और स्तर दोनों प्रभावित होते हैं।

योगनिद्रा इन सभी प्रकार की समस्याओं से आदमी को उबारती और शारीरिक, मानसिक एवं भावनात्मक स्तर पर उसे पूर्ण विश्राम उपलब्ध कराती है। शारीरिक विश्राम के लिए बिस्तर पर लेट जाना पड़ता है। इसके बाद चेतना को शरीर विभिन्न भागों में ले जाना पड़ता है। जैसे पैर की अँगुलियों, पंजा, उसके ऊपर की संधि, संपूर्ण पाँव, घुटना, जाँघ, नितंब आदि। यह क्रिया हमेशा क्रमानुसार ही होनी चाहिए। ऐसा नहीं कि घुटने में चेतना को लाने के पश्चात् सीधे नितंब में पहुँच जाएँ और वहाँ से पुनः पाँव के पंजे में आ जाएँ तथा बीच के भागों को छोड़ दें। इसे सदा आरोहण क्रम में ही करना चाहिए ताकि एक अंग के सभी हिस्से में चेतना बारी-बारी से स्थिर होते हुए आगे बढ़े। ऐसा करते समय मन को भी उन-उन भागों में ले जाना पड़ता है और अपनी संपूर्ण सजगता वहीं बनाए रखनी पड़ी है और अपनी संपूर्ण सजगता वहीं बनाए रखनी पड़ती है। यह अभ्यास वैसा ही है, जैसे कोई घुड़सवार विभिन्न प्रकार की गलियों और चौराहों को द्रुतगति से पार करते हुए गुजर रहा हो। इस प्रकार दो-तीन बार चेतना विविध अंगों में परिभ्रमण कराने के बाद शारीरिक शिथिलता की स्थिति उत्पन्न होने लगती है, पर इसकी पूर्णता तब तक नहीं हो पाती, जब तक अंतरंगों पर भी यही क्रिया न दुहराई जाए। अभी तक चेतना बाह्य संसार से हटार शरीर के बाहरी अवयवों पर लगाई गई थी। उत्तरार्द्ध भाग में यही प्रक्रिया भीतरी संस्थानों पर अपनाई जाती है। इससे मन शांत होकर अंतर्मुखी हो जाता है। इसके साथ ही संपूर्ण विश्राम की स्थिति आ जाती है और मन धीरे-धीरे गहराई में प्रवेश करता जाता है। यह मानसिक विश्राम हुआ। यही वास्तविक योगनिद्रा है। इस दशा में व्यक्ति शरीर से तो पूर्णतः रहता है, परंतु उसकी मानसिक अवस्था ऐसी नहीं होती। वह मानसिक रूप से पूरी तरह सजग रहता है और अपनी कल्पनाशक्ति को इतना प्रखर बना लेता है कि विभिन्न प्रकार के सात्विक दृश्यों की सृष्टि कर सके। यह सृष्टि इतनी जीवंत होनी चाहिए, मानो हम कल्पनालोक में नहीं, प्रत्यक्ष जगत् में विचरण कर रहे हो। देवी-देवता, पहाड़-पर्वत, मंदिर-महात्मा, झील-झरने, खेत-उद्यान, वृक्ष-वनस्पति जैसे दृश्यों में मन को इतना प्रशिक्षित करना पड़ा है कि उनकी कल्पना मात्र से मानसपटल पर वे सब साकार हो उठें। इन कल्पना-चित्रों से मन की आँतरिक संरचना इनके अनुरूप सात्विकता के ढाँचे में ढलने लगती है और वहाँ पहले से मौजूद अवाँछनीय तत्व धीरे-धीरे बारह निकलने लगते हैं। चेतनात्मक विकास को बाधित करने वाले उक्त तत्वों के निकल जाने से व्यक्ति की आत्मोन्नति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है। इसके साथ ही आत्मशाँति बढ़ने लगती है। वह योगनिद्रा का अतिरिक्त लाभ है।

भावनात्मक कायाकल्प के दौरान जब ईर्ष्या-द्वेष, भय-क्रोध, घृणा-हिंसा, दुःख-अवसाद जैसे आँतरिक मल-विक्षेपों का अवसान होकर क्षोभ, कुँठा और हीन-भावनाओं का अंत होता है, तो अंतराल एकदम सरोवर जल की तरह शाँत, शीतल एवं निर्मल हो जाता है, किंतु कई बार कुछ कठिन कुटेवों और बुरी आदतों के कारण द्वंद्व की स्थिति बनी रहती है। व्यक्ति जानता है कि यह लत ठीक नहीं। उसे वह वह छोड़ना भी चाहता है कि यह लत ठीक नहीं। उसे वह छोड़ना भी चाहता है, पर संकल्प की निर्बलता के कारण उसको त्याग नहीं पाता। ऐसी स्थिति में योगनिद्रा के मध्य स्व-संकेत देना बहुत ही लाभकारी होता देखा गया है। यदि किसी के मन में भय की भावना बुरी तरह घर कर गई है, वह उससे पिंड छुड़ाना चाहता है, तो उसे अभ्यास के दौरान अपने अंतर्मन को यह सुझाव देना पड़ेगा, “मैं निर्भय हूँ और हर प्रकार की परिस्थितियों में निर्भर बना रहूँगा। “ इस प्रकार नियमित सुझावों से धीरे-धीरे हमारी आँतरिक संरचना वैसी ही बनने लगती है, जैसा संकल्प किया गया था, किंतु ऐसा करते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि संकल्प में शक्ति हो। वह मात्र शब्द-समुच्चय बनकर न रह जाए। उसमें इतनी गहरी भावनाओं का समावेश होना चाहिए कि वैसा प्रतीत होता हुआ स्पष्ट अनुभव हों। स्वस्थता-संवर्द्धन, रोग-निवारण, प्रतिभा-परिवर्द्धन जैसे विषयों में भी यही विधि अपनाई जानी चाहिए। इस प्रकार योगनिद्रा से शरीर, मन और भावना, तीनों स्तरों पर सुधार-संशोधन संभव है।

लंबे अभ्यास के उपराँत उक्त तीनों तलों पर संपूर्ण विश्राम की स्थिति सध जाती हैं ऐसी अवस्था में मन अंतर्मुखी होकर एकाग्र होने लगता है। यह ‘प्रयाहार’ है। प्रत्याहार की दशा प्राप्त होने पर बहुत देर तक मन को उस स्थिति में नहीं रखा जा सकता। शीघ्र ही नींद आ जाती है। अतः योगनिद्रा के साधकों को आत्मोन्नति के अगले सोपान तक सफलतापूर्वक पहुँचने के लिए इष्टमूर्ति गुरु, उगते सूर्य, कमलपुष्प या ऐसी ही किसी सरस-सात्विक वस्तु पर ध्यान केंद्रित करने की सलाह दी जाती है। यह ‘धारण’ की स्थिति है। इस अवस्था में जब मन को किसी वस्तु पर केंद्रित किया जाता है, तो भीतर से तरह-तरह के दृश्य, विचार, आकृतियाँ उभर-उभरकर ऊपर आने लगती हैं। यह वास्तव में अर्द्धचेतन मन के ही विचार होते हैं, जो अचानक साकार हो उठते हैं। संस्कारों के रूप में वर्षों से दबे ये अनुभव, घटनाएँ, दमित वासनाएँ, स्मृतियाँ मौके की तलाश में रहती हैं और अवसर मिले ही चेतनतल पर आ धमकती हैं। इन विक्षेपों के रहते ध्यान नहीं सध सका। अस्तु, सबसे पहले उन्हें गलाना पड़ता है । इसके लिए कोई विशेष प्रयास की जरूर नहीं। साक्षी भाव से द्रष्टा बनकर उन्हें देखना भर होता है। आरंभ में ये संस्कार डरावने दृश्यों के रूप में उभरते हैं। कभी भूत, कभी पिशाच, कभी राक्षस, तो कभी साँप, शेर, बिच्छू के रूप में प्रकट होते हैं। पीछे इनका स्वरूप तात्विक और सुँदर हो जाता है। अब यह अपना रूप बदलकर उपवन, तड़ाग, महात्मा, पर्वत, मैदान आदि दृश्यों के रूप में सामने आते हैं, किंतु योगाभ्यासी को किसी भी दृश्य के प्रति आसक्त नहीं होना चाहिए। बस, द्रष्टाभाव से उन्हें देखते भर रहना चाहिए। इससे धीरे-धीरे संस्कार क्षय होने लगेंगे और मानसपटल पर उनका उभरना बंद हो जाएगा। तदुपरांत थोड़े समय के अभ्यास से स्वाभाविक ध्यान की स्थिति पैदा हो जाएगी। यह शुद्ध चेतना की अवस्था है।

इस प्रकार योगनिद्रा के अभ्यास से अभ्यासी प्रत्याहार से लेकर ध्यान की स्थिति तक आसानी से पहुँच सकता है। आगे और परिश्रम करके समाधि-सुध का भी आनंद ले सकता है, पर इसके लिए बिलकुल पृथक प्रयास करना पड़ेगा। जो इतने कठिन अभ्यास से समाधि सिद्ध करने में असमर्थ है, वे सहजता से ध्यान स्तर तक पहुँचकर उनके लाभों लाभान्वित हो ही सकते हैं। इसमें कुछ विशेष कठिनाई नहीं।

योगनिद्रा केवल नींद की कमी से होने वाली हानियों से ही नहीं बचाती, अपितु अपेक्षाकृत कम समय में निद्रा की पूर्ति भी करती है। यह शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक उपद्रवों को शाँत कर व्यक्तित्व के समग्र और संतुलित विकास में सहायक है। इससे मस्तिष्क की अल्फा तरंगें काफी बढ़ जाती और रक्तचाप की शिकायत समाप्त होने लगती है। रक्तवाहनियों का संकुचन ठीक हो जाने से शरीर में रक्तसंचरण की क्रिया दुरुस्त हो जाती हैं समस्त जीवकोषों को ऑक्सीजन की आपूर्ति पर्याप्त मात्रा में होने लगती तथा हृदय-गति संतुलित बनी रहती हैं यह शरीर-मन की तनावजन्य थकान को दूर करके योगाभ्यासी को ध्यान की उच्चस्तरीय कक्षा में प्रतिष्ठित कर देती है। इसमें भौतिकतायुक्त जीवनयापन करने वाले लोगों के लिए भी लाभ की उतनी ही गुँजाइश है, जितनी अध्यात्म-मार्ग पर चलने वाले आत्मोत्कर्ष के इच्छुकों के लिए। इसलिए इसका अभ्यास हर एक को करना चाहिए।


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