पारस को छूकर स्वर्ण बन जाएँ - परमपूज्य गुरुदेव की अमृतवाणी

August 2000

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गायत्री मंत्र हमारे साथ-साथ,

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।

देवियों ! भाइयों !!

आप लोग जिस कल्प-साधना सत्र में आए हुए हैं, उसमें महत्वपूर्ण काम आपको यह करना है कि किसी ऐसी सत्ता के साथ में अपने आपको जोड़ दें, जो बड़ी सामर्थ्यवान् है। अकेले आप सीमित हैं, अकेले आप जो काम करते हैं, उससे गुजारा तो हो सकता है, लेकिन और ज्यादा ऊँचा उठना अकेले के बलबूते पर संभव नहीं है। अकेले प्राणियों को भगवान् ने इतना दिया है, जिससे कि अपना गुजारा कर पाएँ। हर आदमी को इतनी अक्ल दी है, हाथ-पैर भी दिए हैं, शरीर दिया है, जिससे अपने शरीर का गुजारा कर लें और अपने बीबी-बच्चों का गुजारा कर लें और इससे अधिक किसी के पास नहीं है! मनुष्य के पास, इतना तो हर किसी के पास है, प्राणी के पास है, लेकिन इससे ज्यादा की जरूरत पड़े तो फिर आपको भगवान् का सहारा लेना पड़ेगा, ऐसे शक्तिपुँज का सहारा लेना पड़ेगा, जिसके पास शक्तियों के भंडार भरे पड़े हैं। भगवान् कौन भगवान् आप यह मानकर चलते हैं कि एक बहुत बड़ा बिजलीघर है, जिसके साथ में बल्ब लगे हरते हैं, पंखे लगे रहते हैं, छोटी-छोटी मशीनों लगी होती है और जनरेटर के साथ में जुड़ जाने की वजह से यह काम करते रहे हैं। अगर वह जुड़ें नहीं तब तब पंखा कैसे चले बल्ब कैसे जले दूसरे काम कैसे बनें इसलिए इनका जुड़ जाना आवश्यक है। जुड़े बिना बड़ी ति प्राप्त नहीं हो सकती, बड़े काम संभव नहीं हो सकते। मनुष्य बड़े काम करने के लिए किसी बड़ी शक्ति के साथ में जुड़ा रहे, यह बहुत जरूरी है। इस जुड़े रहने की प्रक्रिया का नाम है, उपासना। उपासना माने नजदीक बैठना, पास बैठना। अगर आप पास बैठ जाएँ किसी के, तो उसके गुण, उसके कर्म, उसका स्वभाव व उसकी विशेषताएँ आपके भीतर आना शुरू हो जाएँगी। आग की भट्टी के नजदीक अगर आप बैठने लगें तो, आपका शरीर गरम हो जाएगा। बरफ की फैक्टरी के भीतर अगर आप घुस जाएँ, तो आपका शरीर ठंडा होने लगेगा। ऐसी दृष्टि से आपको किसी के साथ में जुड़ना चाहिए। उपासना का अर्थ है, पास बैठना। आगे चलकर इसी को जुड़ जाना भी कहते हैं। पास बैठने का उदाहरण आप समझिए । चंदन के पेड़ के नजदीक जब उगते हैं बहुत सारे झाड़-झंखाड़ , तो उन झाड़ियों में भी चंदन की विशेषताएँ पैदा हो जाती है। यह उपासना हो गई , नजदीक बैठना हो गया । पारस के नजदीक बैठते ही, स्पर्श करते ही लोहा सोना बन जाता है। महान् शक्ति का साथ छूकर के कौन नहीं बन जाएगा, महान् । आप स्वाति की बूँद के बारे में जानते है? स्वाति की बूँद कितनी महान् होती है ? वह सीप के मुँह में जा पड़ती है, तो मोती पैदा कर सके । यही बात भगवन् के संबंध में भी है। भगवान् को कल्पवृक्ष बताया गया है, भगवान को अमृत बताया है अमृत को पी करके आदमी अजर-अमर हो जाते हैं, कल्पवृक्ष के नीचे बैठे करके आदमी अपनी कामनाओं को पूरा कर लेते हैं । मनुष्य के बारे में भी यही बात है। जस प्रकार से कल्पवृक्ष यानी भगवान् के नीचे आदमी बैठ जाए तब ? तब उसकी वह कामनाएँ, तृप्त हो सकती है । मरते तो वह आदमी है, जो शरीर में जिंदा रहते हैं। जो अपने आपको आत्मा समझते हैं, उनके मरने का सवाल कहाँ, ? क्यों ? फिर मरने की कोई बात ही नहीं हो सकती , मरना कभी संभव नहीं है, जो यह विचार करते हैं कौन -सा ? कि हमारा शरीर दूर है उनसे और जिस दिन भगवान् के नजदीक आ करके आदमी यह अनुभव कर ले कि हमारा जीवात्मा भगवान् का एक अंश है, फिर क्यों मरेगा आदमी ? जीवात्मा कहीं मरता है क्या ? शरीर तो कपड़ों की तरह है। रोज बदलते हैं कपड़ों को । इससे कई लाभ है, भय से आदमी की निवृत्ति होती है, कामनाओं की पूर्ति के अभाव में जो विक्षोभ उत्पन्न होते हैं, उनसे निवृत्ति होती है। आदमी को अपनी कुरूपता और कमजोरियों से जो हैरानी होती रहती है, पारस से छूकर के उसे निवृत्ति मिलती है। यह अनेक निवृत्तियां हो जाती हैं भगवान् के नजदीक जाने से । इसलिए उपासना का बहुत महत्व बताया गया है।

आप पतंग को देखते हैं न ! बच्चे के हाथ में जब पतंग होती है, तो बच्चा झटके से उड़ाता रहता है और पतंग ऊपर चढ़ जाती है। अगर कोई उड़ाने वाला न हो तब ? तब पतंग जमीन पर गिरेगी और मटियामेट हो जाएगी। मनुष्य अपने जीवन की पतंग अगर भगवान् के हाथों में सुपुर्द कर दे , तब फिर जैसा छोटा , घिनौना मनुष्य है, वैसा ही तो रह जाएगा, आगे कहाँ बढ़ेगा ? आगे उसकी उन्नति के लिए कोई संभावना नहीं है ओर न कोई गुँजाइश है। ठीक इसी प्रकार से कठपुतली के बारे में आप जानते हैं न ! कठपुतली नाचती है, कितना सुँदर तमाशा दिखाती है! बच्चे देखकर कितने खुश होते हैं, लेकिन क्या कठपुतली अपने आप नाचती है, नहीं , कठपुतली अपने आप नहीं नाचती । बाजीगर के हाथ में उसके धागे जुड़े हुए होते हैं जिसका परिणाम यह होता है कि कठपुतली सुँदर तमाशा दिखा पाती है । भगवान् का उद्यान, भगवान् के उद्यान में अगर हम रहें , तब फिर उसी के साथ में लिपटकर चलिए, लिपटकर चलेंगे तो बेल की तरह चढ़ते चले जाएँगे । पेड़ होता है और पेड़ के ऊपर बेल लिपटती चली जाती है, उतनी ही ऊँची हो जाती है, जितना कि पेड़ । पेड़ न मिले तब ? तब फिर मुश्किल है। अगर आप उतने लंबे न हों, जितनी कि बेल, बेल फैल तो सकती है जमीन पर, लेकिन ऊँची नहीं उठ सकती, ऊँचा उठने के लिए जरूरी है कि किसी पेड़ के साथ में बेल को लिपटने का सौभाग्य मिल जाए। भगवान् एक पेड़ के साथ में बेल को लिपटने का सौभाग्य मिल जाए,। भगवान् एक पेड़ की तरह है, जिसके साथ में अगर आप अपने को लपेट देते हैं।तो न जाने कहाँ-से कहाँ चले जाते हैं। ऐसा है यह भगवान्।

इसके साथ-साथ क्या करना चाहिए ? उपासना में क्या करना होता है ? उपासना में नजदीक आते हैं और नजदीक आने के साथ-साथ सबसे पहला काम करना पड़ता है, अपनी सफाई हम कर ले, तब फिर कुछ सारी गुँजाइश मिलेगी। अगर सफाई न करें , तब फिर कुछ नहीं शीशा है, शीशे को अगर आप मैला-कुचैला रख दे, उसमें फिर अपना चेहरा देखना चाहें ,तो दिखना चाहे, बिंब देखना चाहे , तो पानी को साफ होना चाहिए। इसलिए भगवान् के नजदीक जाने के लिए सबसे पहला है। अपनी सफाई के लिए जितने भी कृत्य है, जो प्रारंभिक और धार्मिक कृत्य है, इन सबसे अपने आप की सफाई ,अपना परिष्कार करने की जरूरत पड़ती हैं । जैसे , आप सुबह पूजा करने बैठते हैं। तो क्या करते हैं ? पहले आप पंचकर्म करते हैं, पवित्रीकरण एक, आचमन दो, प्राणायाम तीन, न्यास चार, शिखाबंधन पाँच यही करते हैं न, पवित्रीकरण में जल हथेली पर लेकर शरीर पर छिड़कते हैं न और यह भावना करते हैं कि हमारी मलिनताएं जो बाहर की मलिनताएं हैं, वह हो जाएँ। आचमन तीन बार कहते हैं, उसके पीछे क्या संकल्प होता है, ? उसके पीछे यह संकल्प होता है कि हमारा मन, वाणी या वचन ओर कर्म , इन तीनों की शुद्धता के लिए जल पीते हैं और जीभ पर ही पीते हैं,जीभ पर इसकी स्वाद-इंद्रिय है। इसके अंदर से कटुवचन अगर इसके साथ में चलते हैं, तो दूर हो जाएँ, यह आचमन का उद्देश्य है। प्राणायाम, जो साँस हम ग्रहण करते हैं, साँस हमारे अंग प्रत्यंगों में चली जाती है, तो प्राणायाम में भी हम यह भावना करते हैं कि भगवान् का प्राण लेकर के , भगवान् की शक्ति लेकर के यह हवा हमारे भीतर आए ओर धोकर के साफ कर दे। इसी प्रकार से न्यास में पाँचों ज्ञानेंद्रियाँ है- इनको हमेशा शुद्ध रहना चाहिए अर्थात् इनके द्वारा किए हुए कृत्य शुद्ध और पवित्र होने चाहिए। न्यास, यही उद्देश्य है। शिखावंदन ,शिखा का वंदन अर्थात् संस्कृति का वंदन। सिर के ऊपर जो ध्वजा फहरा रखी है ज्ञान की देवी गायत्री माता की , उसके प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करना,यही शिखावंदन है। यह संसार के सारे कृत्य जो कि पंचकर्म कहलाते हैं, यह सब इस उद्देश्य के लिए हैं कि साधक को यह मानकर चलना चाहिए कि अपने आपको जितना पुनीत और जितना पवित्र बना, सकेगा ,उतना ही भगवान् की किरणें उसके भीतर प्रवेश करेंगी जितना अपने आपको जलील और गंदा बनाकर रखेगा, उसी हिसाब से व्यवधान उत्पन्न होते चले जाएँगे और जो चीज वह चाहता है, उससे वंचित रह जाएगा। आप सामान्य जीवन में देखते होंगे, स्नान न करें तब ! स्नान शरीर को नहीं कराएं तब मैला-कुचैला हो जाएगा और मैल जम जाने से पसीने के छेद बंद हो जाएगा और मैल जम जाने से पसीने के छेद बंद हो जाएंगे, आप बीमार पड़ जाएँगे। इसलिए स्नान करना बहुत जरूरी है और जीव को स्नान कराना भी। शरीर का ही नहीं, आत्मा के ऊपर चढ़े हुए कषाय ओर कल्मषों को हमको दूर करना चाहिए। यही भजन का भी उद्देश्य है। बहार से आप देखते हैं न, बार बार झाडू लगाते हैं। बरतन माँजते हैं न, रिपिटीशन करते हैं, रिपिटीशन करना जप करने का उद्देश्य है, एक तरह का साबुन लगाना है। कपड़ा धोते हैं, तो बार बार साबुन घिसते हैं अथवा बार बार कपड़े को नीचे से ऊपर तक पीटते हैं, दबोचते हैं। इसका अर्थ यह हो गया कि जिस तरीके से राम के नाम से मन के ऊपर साबुन की तरह धोना शुरू करते हैं, तो यही जप का उद्देश्य है। पत्थर पर घिसते हैं, बार-बार रिपीट करते हैं, तो निशन हो जाता है। अगर नहीं करें ,तब फिर नहीं होगा । बार - बार करने का मतलब यही है। बहुत-सी चीज को साफ करने के लिए उसको घिसाव देना पड़ता है। अपने आप को भी किसी से रगड़कर घिसाव देना पड़ेगा । घिसाव देने से हममें जो खुरदरापन है, रूखापन है, वह सब चिकनाई में, स्नेह में, सद्भावना में बदल जाता है। यह है रिहर्सल जप की ।

जप को आप यह मानकर मत चलिए कि भगवान् को अपनी खुशामद की जरूरत है और खुशामद जो कोई करता है, उससे भगवान् प्रसन्न हो जाता है । आप ऐसा ख्याल कभी मत करना । भगवान् को न खुशामद करने की दरकार है और न कोई शानदार शक्ति खुशामद करने की दरकार है और न कोई शानदार शक्ति खुशामद पसंद करती है। भगवान् की चोर खुशामद नहीं करते , तो क्या देखभाल नहीं करता! चिड़िया कहाँ खुशामद करती है? इतने पृथ्वी के जीव -जंतु हैं, इनमें से कौन पूजा - प्रार्थना करता है, तो क्या भगवान् ध्यान नहीं रखते ? तब क्या भगवान् नाराज हो जाते हैं क्या ? जो आदमी जग करेगा, उसी से प्रसन्न होंगे। जो जप नहीं करेगा, उससे प्रसन्न नहीं होंगे। नहीं जप करने का मतलब अगर अपने खुशामद समझा है, तो आप गलती करते हैं। भगवान् को न किसी खुशामद की जरूरत है। भेंट देंगे, पूजा देंगे, प्रसाद बांटेंगे । आप क्या बच्चों की सी बात करते हैं। फूल की जरूरत पड़ेगी , तो भगवान् कही भी किसी के बगीचे में घुस जाएंगे और वहाँ से फल चुनते रहेंगे सारी दुनिया तो उन्हीं की है, जहाँ जरूर पड़ेगी, वहीं सुगंध ले सकते हैं। आपके फूलों से क्या बनता-बिगड़ता है उनका । इसलिए उपहार, इनाम, रिश्वत आदि की दृष्टि से न कोई वस्तु दी जा सकती है उसको और न उसके ऊपर किसी वाणी का असर पड़ता है। प्रार्थना करने का, पूजा करने का इनका कोई असर नहीं पड़ता । तब यह पूजा उपासना, इतना कृत्य जो आप रोज करते हैं,किस लिए किया जाता है ? यह वास्तव में अपने मन की धुलाई है, अपने मन की रँगाई है। पहले आप अपने आपको धोकर रखेंगे , तो रँगना संभव हो जाएगा, फिर आप उपासना जो करेंगे , सफल हो सकती है, साधनाएँ सार्थक हो सकती है। अगर आपने अपनी धुलाई नहीं की, अपने कषाय-कल्मषों को धोया नहीं, तो फिर बहुत मुश्किल है, फिर आपके लिए बहुत कठिन हो जाएगा । खेत को अगर आप जाएगी ? यह खेत की जुताई , राम नाम का जप करना अथवा अन्य किसी तरीके से अपने आपका परिष्कार करना सब एक ही है जोव करके अगर आपने खेत ठीक तरीके से तैयार कर लिया है, तो बुआई में आपको कोई दिक्कत नहीं पड़ेगी , बुआई सरल हो जाएगी , खेत तो जोता हुआ है और अगर जोता हुआ न हो तब ? कंकड़-पत्थर वाला खेत हो तब ? तब आप जो कुछ भी बोएंगे जमीन, में आपका सब बीज भी मारा जाएगा और आप फिर निराश होते फिरेंगे । दीवार को चिनने से पहले, खड़ी करने से पहले जमीन खोदनी पड़ती है, तब खोद करके उसमें नींव भरनी पड़ती है। जप करना, पूजा करना, ध्यान करना, यह अपने आपकी खुदाई करने के बराबर है, ताकि वहाँ राम के नाम की नींव चिनी जा सके ।यह जुताई और बुवाई, रँगाई ओर धुलाई की तरह है, यह बात समझ में आ जाए, तब फिर आपको उपासना -कृत्यों का रहस्य मालूम हो गया, यह समझाना चाहिए ।

नमन हम करे हैं , वंदन करते हैं , सूर्य नारायण को जल चढ़ाते हैं- इनका क्या मतलब है? हम अपने आपको समर्पित करते हैं अपने छोटे-से बरतन में भरा हुआ जल हम सुर्य भगवान् के सामने चढ़ा देते हैं, इसका अर्थ यह होता है प्रकाराँतर से कि हमारे शरीर में जो भी जल भरा हुआ है, जीवन-रस भरा हुआ है , इसको हम विराट् सता को, भगवान् को समर्पित करते हैं और यह आशा करते हैं कि हमारे जल को केंद्रित न रखा जाए, बल्कि इसको हवा में बिखेर दिया जाए, ओस के रूप में , ठंडक के रूप में , नमी के रूप में । यह हमारा थोड़ा-सा जल जो अर्घ्य के रूप में चढ़ाया गया है, सारे समाज के काम आए, देश के काम आ जाए, इस उद्देश्य को लेकर सूर्य अर्घ्य चढ़ाया जाता है सुर्य अर्घ्य में आप पानी तो चढ़ा देते हैं, लेकिन उसका भावार्थ नहीं समझे, तब फिर केवल क्रीड़ा -कृत्य हो जाएगा, फिर एक विडंबना हो जाएगी, उससे कुछ बनेगा नहीं । वह सिर्फ जल को विसर्जन करना होगा। जैसे जल को सूर्य नारायण के सामने विसर्जन करना पड़ेगा अपने आपको। इसका अर्थ है कि उनका अनुशासन अपने ऊपर धारण करना पड़ेगा इष्ट । इष्ट आपने कोई तय कर लिया अर्थात् आपका शिव इष्ट है, इसका मतलब हो गया , कल्याण आपका इष्ट है। गायत्री अगर आपका इष्ट है, तो इसका अर्थ हो गया कि आपने शालीनता की देवी का , पुनीत और पवित्रता की देवी का वरण कर लिया, उसके सामने अपने आपको चढ़ाने का निश्चय कर लिया। इसी प्रकार से यह जो है गायत्री, यह प्रज्ञा की देवी, सदाशयता की देवी , शालीनता की देवी , इसके प्रति अगर अपने आपको समर्पित करते हैं, तो आप मान लीजिए अपने इष्ट निर्धारित कर लिया । यह प्रतीक है। सारे आध्यात्मिक क्रियाकलापों का अर्थ केवल एक होता है कि हम भगवान् में रम जाएँ, भगवान् में तन्मय हो जाएँ भगवान् को साथ लेकर के चलें। इन्हीं को हम पूजा के प्रतीकों के माध्यम से चरितार्थ करते हैं। जल चढ़ाते हैं, भगवान् को कोई पानी की जरूरत थोड़े ही है, बल्कि उसका यह अर्थ है कि हम अपने आपको जल जैसा पुनीत, जल जैसा बहने वाला, जल जैसा पुनीत,जल जैसा नम्र बनाते हैं पुष्प हम भगवान् के ऊपर चढ़ाते हैं, तो इसका अर्थ यह होता है कि फूल जैसा जीवन जिएँगे , सुरभित जीवन जिएँगे ।समन्वित जीवन जिएंगे, हँसता और हँसाता हुआ जीवन जिएँगे । फूल चढ़ाना भगवान् को रिश्वत नहीं है, अपने आपका शिक्षण है। आत्मशिक्षण के लिए हम फूल चढ़ाते हैं हमारा फूल जैसा जीवन ही भगवान् के चरणों पर चढ़ने का अधिकारी बन सकता है। फूल न हो तब ? तब क्या चढ़ेगा भगवान् के चरणों पर स्थान प्राप्त करना है, तो फिर इसका एक ही तरीका रह गया, कौन सा ? कि आप फूल की तरह खिले । भगवान् के लिए और क्या क्या करना पड़ता है? धूप देते हैं, नैवेद्य देते हैं, दीपक जलाते हैं दीपक से आप यह मत सोचिए कि भगवान् को कम दिखाई पड़ता है, इसलिए आप रोशनी कर देंगे , तो उनको रास्ता चलने में सुगमता रहेगी। नहीं , ऐसा नहीं है। भगवान् के तो कितने ही दीपक जलते हैं। उनका सूरज दिन में देखा है न आपने ? रात को चाँद का दीपक देखा है न ? भगवान् के यहाँ कोई दीपक की कमी नहीं हैं हम भगवान् को दीपक नहीं दिखाते हैं। दीपक दिखाने का अर्थ केवल अपने आपको यह सिखाने का है, यह आत्मशिक्षण है कि हम को दीपक की तरह जिंदगी जीनी चाहिए। बस, यही तो उद्देश्य है ओर कोई उद्देश्य नहीं है। इसलिए आप जो पूजाकृत्य में वस्तु समर्पित करते हैं, उसके पीछे आत्मशिक्षण की , जिसका मूल उद्देश्य नहीं है, आत्मपरिष्कार की प्रेरणा ग्रहण करें । नैवेद्य ग्रहण करते हैं, नैवेध को मिठास कहते हैं। भगवान् कोई चींटी थोड़े ही है, जो शक्कर तलाश करते फिरे और शक्कर के लिए भागते फिरें, ऐसा नहीं है। नैवेद्य का अर्थ होता है, मिठास । हम मिठास जैसा जीवन जिएँ , हमारे व्यवहार में मिठास हो , हमारे में विनम्रता हो, सज्जनता हो, दूसरोँ का सम्मान करना सीखें । यह क्या है ? यही नैवेद्य है। पूजा में आप चावल चढ़ाते हैं भगवान् के ऊपर , जिसका अर्थ होता है, अपनी कमाई का एक हिस्सा भगवान् के लिए अर्थात् श्रेष्ठ कामों के लिए हम नियमित रूप से लगाते चलें , तो इसका अर्थ यह हो गया कि आपने भगवान् को नैवेद्य चढ़ा दिया, अक्षत चढ़ा दिए, धूप चढ़ा दी बस, इन सबका चढ़ाने का मतलब आप भूलना मत। इसमें रिश्वत का कोई भाव नहीं है, उपहार और इनाम बाँटने का कोई भाव नहीं है। ऐसा करके हम भगवान् का और अपमान कर देंगे। हमारी हैसियत ही कहाँ है, जो हम भगवान् को अंधेरे में से बचाकर रोशनी में ला पाएँ। यह तो हम अपना शिक्षण करते हैं। तमसो मा ज्योतिर्गमय। हम प्रकाश की ओर चलेंगे , अंधेरे की ओर नहीं । यह शिक्षण करने के लिए हम दीपक जलाते हैं।

इन प्रतीकों के बारे में आप ध्यान रखिए। अगर प्रतीकों के बारे में ध्यान नहीं रखेंगे, तब फिर मुश्किल है। अपने आपका तो शोधन करना ही पड़ेगा । नहीं करेंगे तो मुश्किल पड़ी रहेगी । आपको उस साधु की कथा याद है? जो एक चोर को यह जवाब देता था, भगवान् को देखना कोई कठिन नहीं है , तो एक दिन चोर ने पूछा, स्वामी जी हमें भी दिखा दीजिए स्वामी ने कहा, अच्छा, दिखा देंगे। उसने पूछा, कब दिखा देंगे। ? उन्होंने कहा, जब कहो , तभी दिखा देंगे । चोर दूसरे दिन तैयार होकर आ गया सवेरे ही। उसने कहा, हमको दिखाइए भगवान् । संत ने कहा, अच्छा तो चलो ,साथ साथ चलते हैं ओर इस पहाड़ के ऊपर टीले पर से दिखा पाएँगे । उसने कहा अच्छा तो चलिए । तो उन्होंने कहा, देखो भाई वहाँ कुछ पूजा -पाठ करना पड़ता है। चार पत्थर लेकर चलना पड़ेगा । चार पत्थर लेकर चलने से ही बात बनेगी । चोर तैयार हो गया । उसने चार पत्थर सिर पर रख लिए ओर जब चलने लगा, तो रास्ते में थोड़ी दूर ही चढ़ा हो गा कि थक गया, तो उसने कहा, स्वामी जी,यह तो बहुत भारी पत्थर फेंक दो। उसने एक पत्थर फेंक दिया । थोड़ा और आगे चला, फिर थक गया। स्वामी जी ने कहा, स्वामी जी यह तो तीन पत्थर है, थोड़ा ओर कम कराइए । फिर एक ओर फेंक दिया । दो पत्थर रह गए। उनको लेकर ऊपर चढ़ने लगा। फिर कहने लगा, यह तो बहुत भारी है। एक पत्थर और फेंक दिया। एक पत्थर और रह गया । उसको लेकर जब ऊपर पहाड़ पर चढ़ता चला जा रहा था, तब फिर वह बहुत थक गया। उसने कहा, स्वामी जी आप ऐसी कृपा करें , आप इस पत्थर को भी फिंकवा दीजिए, तब बात बनेगी। अब तो मुझसे चला नहीं जाता । पहले चार पत्थर लाया, फिर तीन लिए, दो लिए, अब में चलते-चलते थक गया हूँ के मेरी गरदन में भी दर्द होता है, आप इसको भी फिंकवा दीजिए , तो बाबा जी ने कहा, अच्छा , तो उसी भी फेंक दो। चारों पत्थरों को फेंक देने के बाद में जब वहाँ ऊपर टीले पर पहुँचा , तब महात्मा भगवान् को दिखाने के बजाय चोर से यह यह पूछा ,जब चार पत्थर लेकर आप टीले पर चढ़ रहे थे तब चढ़ना मुश्किल था न ? अरे साहब। बहुत मुश्किल था, हम चढ़ ही नहीं सकते थे। तब उन्होंने कहा, हमारे सिर के ऊपर पत्थर रखे हुए है,हम उन पत्थरों को एक-एक करके फेंक दें, तब फिर हमारे लिए टीले पर चढ़ना, भगवान् को देख सकना कोई भी चीज कठिन नहीं रहेगी । काम का पत्थर, क्रोध का पत्थर, लोभ का पत्थर, मोह का पत्थर , मद और मत्सर का पत्थर, यह सारे के सारे पत्थर ऐसे घिनौने पत्थर हैं, जो हमारी नाम में दम करते रहते हैं, हमको हैरान करते रहते हैं । अगर इस हैरानी को ओर इन पत्थरों को दूर न करे , तो बहुत मुश्किल हो जाएगी, बस यही तो शिक्षण है। आप सारी उपासना का उद्देश्य बार-बार ध्यान रखिए, इसका एक ही उद्देश्य है कि अपने आपको पुनीत बनाएँ , स्वच्छ करें । दिवाली के दिन घर को साफ करते हैं। ताकि लक्ष्मी जी आएँ, अपने आपकी पहले धुलाई और सफाई कर देना है। बस, आप यह कर पाएँगे , तो समझिए आपकी बहुत सारी मंजिल पार हो गई । मुझे उम्मीद है, आप ऐसे ही करेंगे। आज की बात समाप्त ।


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