जीवन को गरिमा देती हैं धर्मश्रद्धा

August 2000

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अमेरिका के तुलसा शहर में एक प्रयोगशाला है लेडरले लैबोरेटरी। उस प्रयोगशाला में अब से चालीस वर्ष पूर्व क्षयरोग के एक टीके का आविष्कार हुआ। टीके ने लाखों रोगियों की जान बचाई। इस मायने में यह मानवजाति की अनुपम सेवा कही जा सकती है। प्रयोगशाला के कंपाउंड में एक भारतीय प्रतिमा लगी हैं। उस प्रतिमा के नीचे लिखा है, “ विज्ञान केवल आयु बढ़ाता है, धर्म उसे गहरा करता है।” यह पंक्ति उस भारतीय की प्रतिमा के रूप में प्रतिष्ठिता वैज्ञानिक प्रतिभा के जीवन-दर्शन का परिचय देती है। चैन्नई की दारुण गरीबी से निकलकर लेडरले लैबोरेटरी पहुँचने और वहाँ एक विलक्षण खोज करने तक इस वैज्ञानिक ने लंबी यात्रा की। उस यात्रा में दुःख, अभाव, कठोर परिश्रम और संघर्ष के सिवा कुछ नहीं था।

उस वैज्ञानिक का नाम है चेल्लप्रगद सुब्बाराव। चैन्नई के पास एक गाँव में जन्मे सुब्बाराव को अपने यहाँ पढ़ने-लिखने की सुविधा नहीं थी। प्राथमिक शिक्षा पाने के लिए भी उन्हें चैन्नई आना पड़ा था। वे रोज पाँच-सात किलोमीटर पैदल चलकर पढ़ने आते और वापस गाँव जाते थे। पढ़ने के प्रति उद्दाम ललक और पुस्तकों में डूबे रहने की वृत्ति उनमें बचपन से ही दिखाई दी। एक घटना ने उनके जीवन की दिशाधारा बदल दी। उनके छोटे भाई को क्षयरोग ने आ घेरा। कुछ महीनों तक वह रोग से जूझता रहा। कोई उपचार काम नहीं आया, उन दिनों क्षयरोग का कारगर उपचार प्रचलित नहीं था।

सुब्बाराव को अपने भाई से बहुत स्नेह था। उसे तिल-तिल कर मरते देखकर वह बहुत व्यथित हुए। व्यथा-वेदना के उन्हीं क्षणों में उन्होंने निश्चय किया कि अपने आपको इस रोग से लड़ने के लिए खपा देंगे। संयोग से उन्हीं दिनों सुब्बाराव को वाल्मीकि रामायण हाथ लगीं। उन्होंने रामकथा पढ़ी और प्रभाव ग्रहण किया कि किसी भी अनिष्ट या आसुरी आतंक से लड़ने के लिए बहुत साधनों की उतनी जरूरत नहीं पड़ती, जितनी संकल्प और अदम्य उत्साह की। राम और लक्ष्मण ने अकिंचन स्थिति में रहते हुए ही रावण के अदम्य आसुरी आतंक को समाप्त किया। जिस रोग ने सुब्बाराम ने उनका भाई छीना था वह भी रावण के आतंक जैसा ही लगा।

सुब्बाराम ने कई अवसरों पर कहा कि रामायण उन्हें संघर्ष करते रहने की प्रेरणा देती रही है। मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद सुब्बाराव ने आयुर्विज्ञान को चुना। साधना नहीं थे। मित्रों और संबंधियों ने सहयोग किया। आयुर्विज्ञान की पढ़ाई उत्साह से पूरी की। चैन्नई में शिक्षा पूरी करने के बाद वे 1923 में इंग्लैंड गए। वहाँ से कुछ समय बाद अमेरिका के हार्वर्ड विश्वविद्यालय की शोधवृत्ति मिल गईं। वहाँ शोध जारी रखते हुए उन्होंने जीव-रसायन की डिग्री भी हासिल की।

1940 में अमेरिका की सिनेमिड कंपनी की लेडरले प्रयोगशाला ने उन्हें अपने यहाँ अपने यहाँ काम करने के लिए आमंत्रित किया। यह कंपनी नई-नई दवाओं की शोध और प्रयोग-परीक्षणों पर विशेष ध्यान देती थी। सुब्बाराम को अपना उद्देश्य पूरा होता दिखाई दिया। उन्होंने प्रस्ताव स्वीकार करने में पल भर भी देर नहीं की। प्रयोगशाला में वे दिन-रात जुटे रहने लगे। दो साल में ही उन्होंने अपनी लगन और प्रतिभा को सिद्ध कर दिखाया इसका पुरस्कार उन्हें 1942 में प्रयोगशाला में शोध विभाग के प्रमुख का दायित्व सँभालने के रूप में मिला।

डॉ0 सुब्बाराम ने कुछ ही सप्ताहों में युवा वैज्ञानिकों की अच्छी टीम जुटा ली। विभिन्न पदार्थों से फोलिक अम्ल निकालने के ढेरों प्रयोग किए। जिस रोग का उपचार ढूंढ़ने में वे लगे हुए थे, उसमें फोलिक अम्ल का महत्वपूर्ण स्थान है। चार वर्ष के कठिन प्रयोगों ने आशाजनक परिणाम प्रस्तुत किए। खोज पूरी हुई। वह औषधि तैयार होकर सामने आ गई, जिसने बाद के वर्षों में लाखों लोगों को असमय मृत्यु के मुख में जाने से बचा लिया। औरिमाइसिन नामक यह औषधि बाजार में आई तो उस रोग के चंगुल में फँसे लोगों के मन में आशा का संचार हुआ। इसका श्रेय दिए जाने की बारी आई, तो डॉ0 राव अत्यंत विनम्रता से पीछे हट गए। उन्होंने कहा, इस खोज का श्रेय मुझे नहीं मेरे साथियों को मिलना चाहिए। इन लोगों ने दिन-रात एक कर खोज पूरी की है।

औषधि का आविष्कार होने के तीन साल बाद डॉ0 राव चल बसे। डॉ0 राव ने मृत्यु से कुछ दिन पहले ‘अमेरिकन रिपोर्टर’ पत्र को दिए साक्षात्कार में कहा था, अपने जीवन में उन्हें वाल्मीकि रामायण से बड़ी प्रेरणा मिली है। घोर निराशा के क्षणों में यह ग्रंथ उन्हें पर्याप्त प्रकाश देता था और खड़ा रखता था। प्रतिभा और साधना-सुविधाएँ व्यक्ति को सफलता नहीं दिलाती। बड़े और सामाजिक उद्देश्यों में तो ये और भी गौण हो जाती है। लगन और समर्पण की भावना ही व्यक्ति को उच्च उद्देश्य की प्राप्ति कराती है।

साधन-सुविधा और परिस्थितियों का महत्व है, लेकिन वे एक सीमा तक ही सहायक है। लौकिक सफलताओं में वे पर्याप्त भी हो सकती है, लेकिन बड़े लक्ष्यों के लिए हजार गुनी लगन चाहिए। सामान्य काया में जैसी निष्ठा की अपेक्षा होती है उससे लाख गुना साधन और सक्रिय निष्ठा बड़े लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए जरूरी है, क्योंकि तब व्यक्ति को प्रेरित करने और स्थिर रखने वाले छोटे मोटे आकर्षण नहीं रह जाते।

लौकिक जीवन में जिन्होंने उल्लेखनीय सफलता अर्जित की , उनकी गाथा अलग हो सकती है, लेकिन जिन लोगों ने भी बड़े उद्देश्य प्राप्त किए है, उनके जीवन में निष्ठा का सतत् निष्ठा और श्रम के बिना नहीं मिलती । निष्ठा की यह गहराई बुद्धि से नहीं भावभरे हृदय से आती है, आस्था से आती है, विश्वास से आती है। आस्था और विश्वास की सुदृढ़ भित्ति धर्म से ही मिलती हैं ।

भारत रत्न से सम्मानित और देश को परमाणु शक्ति संपन्न राष्ट्र बनाने की दिशा में उल्लेखनीय योगदान दे रहें वैज्ञानिक अब्दुल कलाम ने अपना जीवन कठिनाइयों में शुरू किया। उनका बचपन रामेश्वरम् में अखबार बेचते हुए बीता । आजादी की लड़ाई के उन दिनों वे अपने देश को महाशक्ति के रूप में देखने का स्वप्न सँजोया रखते थे। परमाणु शक्ति का तब पता चल चुका था और प्रो0 अब्दुल कलाम सोचते थे कि काश अपने देश को उस महाशक्ति से संपन्न कर सके । अत्यंत सामान्य स्थितियों में शुरू कर कठिन संघर्षों की राह गुजरते हुए भी उन्होँने अपने सपने को मरने नहीं दिया। सन् 1997 में पोखरण में दूसरे परमाणु परीक्षण परीक्षण की कमान संभालने हुए प्रो0 अब्दुल कलाम ने अनुभव किया कि स्वप्न एक हद तक पूरा हुआ है। प्रो0 अब्दुल कलाम को भारतीय प्रक्षेपास्त्र कार्यक्रम आरंभ करने का श्रेय भी मिला है। उनके संयोजन में देश न प्रक्षेपास्त्र युग में प्रवेश किया। एक अवसर पर उन्होंने कहा था, देश को परमाणु शक्ति से संपन्न करने की उत्कट लालसा उन्हें कठिन संघर्षों में भी टिके रहने की हिम्मत देती थी । चिंतन के क्षेत्र में भी उनकी गवेषणाएँ देश को आश्वस्त करती है। ‘इंडिया टू थाउजेंड ट्वंटी ए विजन फॉर न्यू मिलेनियम’ में उन्होंने इस बात की प्रबल संभावना व्यक्त की है कि सन् 2020 में भारत अति उन्नत देश हो जाएगा।

आधुनिक भारत के इतिहास में एक और विभूति का नाम लिया जा सकता है, जिसने अकिंचन स्थिति में जीवन-यात्रा आरंभ की। अपनी माँ से स्वाभिमान और लगन की शिक्षा लेकर यह विभूति प्रधानमंत्री पद तक पहुँची। चीन के हाथों मिली पराजय के तीन वर्ष बाद ही उन्होंने एक समर जी ओर देश सिर गर्व से उन्न किया। उस विभूति पहचान लिए इस पैरे की तीन पंक्तियाँ ही पर्याप्त है। लालबहादुर शास्त्री पहले प्रधानमंत्री थे, जो अत्यंत साधारण परिवार से आए। इनसे भी बड़ी बात यह कि प्रधानमंत्री बनने के बाद भी वे अपने गरीबी के दिन नहीं भूले। उनका बेटा कॉलेज पढ़ने के लिए कार से नहीं बल्कि बस से जाता था। मंत्री बनने के बाद भी उनके के पास अपना कहने जैसा घर नहीं था।

शास्त्री जी की सादगी और निष्ठा को मिसाल के तौर पर उद्धृत किया जाता है। यह व्रतशीलता कहाँ से आई, शास्त्री जी कहते थे कि उन्होंने अपना सार्वजनिक जीवन भारत सेवक समाज में स्वयंसेवक के रूप में शामिल होने से किया था। संस्था का नियम पालन करते हुए शपथ ली कि कम-से-कम बीस वर्ष तक निस्वार्थ समाजसेवा करेंगे और पूरा जीवन सादगी से बितायेंगे। यह व्रत इतना आनंददायक लगा कि हमेशा ही निभने लगा। जिन दिनों वे काशी विद्यापीठ में पढ़ते थे, उन दिनों स्वतंत्रता आँदोलन चल रहा था। देशसेवा के लिए अपने आपको होम देने का व्रत उन्हीं दिनों ले लिया और उसे आजीवन निबाहा। यों उच्च पदों पर और लोग भी पहुँचते हैं, लेकिन जीवन की चमक पूरे समाज को रोशन देती है। उच्च भावनाएँ सामान्य कार्य को भी पूजा और यज्ञ की तरह पुनीत बना देती हैं, जबकि सामान्य भावनाएँ पुण्य कार्यों को भी उजड़ा रूप दे देती हैं। इसीलिए कहा गया है कि धर्म-भावना जीवन-उद्देश्य को सार्थकता प्रदान करती हैं।


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